उदासी
के धागे का रंग
घनघोर
घटा के जैसा ही होता होगा !
लेकिन
वहीं कहीं
कोई
अदृश्य रंगरेज़,
अपना
अमूर्त मर्तबान लिये
उसमें
पीला-सिंदूरी रंग घोले खड़ा रहता है...
...हमेशा
!
ताकि
मौका मिलते ही
वो
रंग दिया करे...
उदास
धागे को, ख़ुशियों
के रंग में।
झुकी
हुई कमर वाली वो बुढ़िया
जो
अपने दीपक के लिए
जाने
कहाँ से ईंधन जुटाया करती थी।
कभी
कच्चा तैल, तो
कभी ठिठुरा हुआ घी।
सफ़ेद
चंदन का बड़ा सा टीका,
भ्रूमध्य
के ठीक बीचों-बीच !
दूर
से दमकता, गंभीर
चेहरा।
पास
जाकर देखो, तो
झिलमिल मुस्कान।
बहुत
अच्छे से जानता था, मैं ये बात तब भी
कि
अभावों से बड़ी गहरी रिश्तेदारी है..
..इस
बुढ़िया की !
लेकिन
हर बार
बरगद
की ओट से निकलकर
पहुँच
जाया करता था मैं
उससे
प्रसाद माँगने !
अक़्सर
चना-चिरौंजी
कभी-कभी
गुड़ की छोटी सी डल्ली
और
कभी...
एक
प्यार भरा उलाहना
"क्यों
रे
रोज़
चला आता है प्रसादी के लिए ?
आज
नहीं है मेरे पास।
कल
आना
अब
कल खिलाऊँगी।"
फिर
एक विराम आ गया।
पहले
दिन बीते
उसके
बाद दिन फिरे।
कितने
ही शहरों की ख़ाक छानी
कितनी
ही क़िताबों की धूल झाड़ी
मगर
वो बुढ़िया
कभी
ओझल नहीं हो पाई।
मेरी
स्मृतियों के उजालदान से ...!
अनगिनत
लमहों का साक्षी,
वो
अचल बरगद।
और
जाने कितनी सुगंधों को ख़ुद में समेटे,
वो
छोटी सी मंदिरी।
उन
सबके सामने
जाने
कितने बरसों बाद
आज
एक अजीब सा अपराध-भाव मन में लिए खड़ा ..मैं !
आज,
बरगद
की लटकती जटाएँ
यूँ
लग रही थीं
मानो
कोई चायनीज़ बूढ़ा
अपनी
विरल लंबी दाढ़ी
और
लहराती हुई मूँछों के साथ... झुका खड़ा हो।
कल
सारी रात...
अनंत
चतुर्दशी का जुलूस निकला
आज
सुबह लगभग पूरा शहर सोया पड़ा था।
और
मैं...
वक़्त
की अदालत के कटहरे से
हर
बीती हुई बात, याद
कर रहा था।
पास
ही एक रेडीमेड की दुकान हुआ करती थी।
जब मैं
नौ साल का था
पिताजी
ने वहाँ से,
एक
बैगी जैकेट दिलवाई थी।
दायीं
ओर एक चाय की दुकान थी
जहाँ
पर वो बुढ़िया रोज़ चाय पीती थी।
और
हाँ...
पेड़
के नीचे बैठा रहने वाला वो दयालु श्वान !
जिसे
कुत्ता पुकारा जाना मुझे चुभता था।
जिसका
पूरा शरीर काला
और
पैर सूखी हल्दी के रंग के थे।
कितनी
ही बातें ज़ेहन मैं आ-जा रही थीं।
चाय
की दुकान अब भी वहीं है।
वहाँ
जाकर एक सुपर चाय ली,
और
कोना पकड़ कर खड़ा हो गया।
पानी
की बूँदें चाय में गिर रही थीं
मैं
अजीब सा उल्लास लिए
इधर-उधर
देख रहा था।
कि
तभी कुछ रलका..आँखों के भीतर से
और
गालों पर से ढुलकता हुआ
होठों
के पास ठिठके हुए
गिलास
के भीतर जा गिरा।
चाय
की मिठास खारी हो गयी।
मैं
उसे वैसा ही छोड़ चला आया।
सखिया
सुनो..
कभी-कभी
हम,
उन
अपराधों के लिए भी अपराध-बोध से भर उठते हैं
जो
हमने किये ही नहीं !
तुम
तो समझ सकती हो
कि
कितना बेबस महसूस कर रहा हूँ मैं अभी।
ओ
मेरी रंगरेज़ !
जुलाहा
मेरी...
चली
आओ तुम
अपने
चटकीले रंगों से
मेरा
मन रंगने के लिये।
उदासी
के रंग वाले धागे
अब
नहीं थामे जाते मुझसे...
समझ
रही हो ना !
तुम्हारा
देव
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