Wednesday, 17 June 2020

तुम्हारी प्रेरणा के इंतज़ार में





मैंने कब चाहा,
कि तुम्हारे और मेरे दरमियां
कोई दीवार आ जाये !
ना ही जो कभी ये सोचा
कि इन ख़तों को लिखना बंद कर दूँ।

बात बस इतनी है...
कि ये ख़त,
बेमक़सद से लगने लगे थे।
और जब...
मैंने इनको लिखने से ख़ुद को रोका ;
तब जाना ....
कि अब तो मेरी ही ज़िंदगी बेमक़सद हो गई।
शायद,
फिर से तुम्हारी किसी प्रेरणा के इंतज़ार में !

याद है उस दिन
जब तुमने फ़ोन पर पूछा था...
"एक बात बताओ
तुमने लिखना क्यों छोड़ दिया"?

तब ऐसा लगा
कि मेरे जिस्म पर फंसी हुई
किसी केंचुली को....
तुमने झटके से परे कर दिया !

और फिर, जब तुमने कहा...
"ये न मान बैठना
कि तुम अपने लिये लिखते हो।
याद रखो,
तुम्हारे ख़त अब तुम्हारे नहीं
ये तुम्हें चाहने वालों के भी हैं"।

यक़ीन मानो
तुम्हारी बात ख़त्म होते न होते
मेरी पलकों की कोर नम हो आई थी।

और बताओ, कैसी हो ?
कितने दिन गुज़र गए,
मेरे कई-कई भाव
तुमसे साझा ही न कर सका।
मशीन की तरह दिन उगा
और अस्त हो गया !!
प्लग-इन, प्लग-ऑउट की मानिंद
रात आयी और चली गयी !!

वज़न बढ़ा लिया है मैंने
आईना भी बहुत कम देखता हूँ अब !

कभी चाहकर भी नहीं बन सका
तुम्हारी तरह मैं !
चार लोगों के साथ बैठकर
मुस्कुराने की कोशिश तो की,
पर हँसी आकर भी नहीं आयी !
ये भी जतन किया कि कोई
तुमको मेरी आँखों में न पढ़ ले
मगर इसमें भी नाक़ाम रहा।

' सुबह जागकर
मेरे शब्दों में सुक़ून पाने वाली;
' रातों को मेरे शब्दों का लिहाफ़ बनाकर
चैन से सो जाने वाली !
.... मैं इन दिनों बहुत बेचैन हूँ।

जाने क्यूँ ,
ये दिल मेरा...
मुझसे बग़ावत करने लगा है।
शायद इसे ये भरम हो चला है
कि मेरे दिल में,
अब तुमने रहने से इनकार कर दिया है।

तुम तो अबोली बोलियाँ भी जानती हो न !
एक बार मेरे दिल को भी समझा दो !!
मैं चाहता हूँ
इसकी रिदम बरक़रार रहे अभी।
कितने अधूरे पल जीने बाक़ी हैं।
जिनके सपने देखे हैं हमने,
जागती आँखों से
...साथ-साथ !

एक बात और,
मेरे शहर में सावन ख़ूब भीगा इस बार।
मगर एक कमी है
किसी बादल में अब तक
तुम्हारी मुस्कुराहट नहीं दिखाई दी।
हो सके तो भादो का कोई बादल
तुम्हारे शहर से भेज देना
मेरी गली में...!

हाँ...मैं !
तुम्हारा
देव




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