Thursday 27 November 2014

कमाल की आइरनि है





प्रिय देव,

कई बातें हैं,
जिन पर मैं सिर्फ मुस्कुरा देती हूँ;
कुछ कहती नहीं।
लेकिन,
कभी किसी एक बात पर मैं अटक कर रह जाती हूँ।
या वो बात मुझे उलझा लेती है अपने आप में .....
मछली का काँटा बन कर !
छटपटाने लगती हूँ
तब तक,
जब तक कि वो बात मेरे मन की गुफाओं से अपना रास्ता बना कर फट ना पड़े ...
लावे की तरह !!!

याद है,
एक बार तुमने अपने बचपन की कुछ यादें साझा की थीं।
कमाल की आइरनि है देव
सितारा होटल में लाईम जूस कोर्डियल पिलाते हुये तुम मुझे गाँव की ओर ले चले थे।
और मैं अनायास ही चुसकियाँ लेने लगी थी....
उस खट-मिट्ठे नीबू पानी की !
कितना कुछ जीवंत हो उठा था....
वो काँच की बरनियाँ, उनमें रखी चॉकलेट्स !
ओहह सॉरी ...
क्या बोले थे तुम ?
“टॉफी, गोली और बिस्कुट।”
हा हा हा !!!

जानते हो,
मुझे बंधना अच्छा नहीं लगता।
मैं उड़ना चाहती हूँ !
कभी-कभी लगता है,
कि चलते-चलते भी उड़ रही हूँ।
तुमसे मिलकर आने के बाद मैं तुम्हारे बारे में नहीं सोचती।
बस तुम्हारी कोई बात मुझे उलझा लेती है
..... मछली का काँटा बनकर ।
और मैं दिन भर उसी बात को अपने ज़ेहन में लिए घूमती रहती हूँ ।
यहाँ से वहाँ....

कभी-कभी ये भरम होने लगता है
कि मैं तुम्हारी बात सोच रही हूँ
या तुम्हें सोच रही हूँ।
सच कहूँ,
मुझे तुम्हारी बातें अच्छी लगती हैं
पर मैं तुम्हें नहीं सोचना चाहती।
ज़रूरी तो नहीं,
कि जिसे चाहो उसी के बारे में सोचते रहो.....
बार – बार लगातार !!!

कल सिग्नल पर लाइट जैसे ही ग्रीन हुई
मुझे एक लड़का दिखा,
जो तुम्हारी यादों को वर्तमान की थैली में सहेज कर निकल रहा था।
मैंने आनन-फानन गाड़ी साइड में रोकी
और उसे आवाज़ देकर वो यादें खरीद लीं।
कौड़ी के मोल....
कुछ लोग मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे।
नहीं जानती कि मुझ पर.....
या मुझमें छिपे तुम पर !
लेकिन ये सच है
कि उस लड़के ने मेरे मन की गुफा में एक रास्ता बना दिया।
मगर उसमें से जो बह कर निकला .....
वो लावा नहीं प्रेम था।
मुझे अन्यथा मत लेना..

तुम्हारी

मैं !





Thursday 20 November 2014

तुम .....

क्या कह रही थीं तुम .....
पगली कहीं की !
कि,
“मुझ पर ख़त ना लिखा करो देव
किसी को पसंद नहीं आएंगे।”
अच्छा एक बात कहो
ये ख़त, क्या मैं ये सोच कर लिखता हूँ
कि किसी को पसंद आएंगे या नहीं !
या कि फिर
प्यार तुम्हें करूँ और ख़त किसी और पर लिखूँ ....
बोलो !!!!

तुम,
जो दिन-रात चलती रहती हो घड़ी की टिक-टिक सूइयों जैसी।
तुम,
जो आटा महीन पीसने की जुगत में खुद भी पिसती रहती हो।
तुम,
जो चावल के दाने का कण देखने के लिए खुद उबल पड़ती हो ।
तुम,
जब ये कहती हो कि तुम पर ख़त ना लिखूँ ...............
तो मैं सोच में पड़ जाता हूँ।
हर प्रेम एक ख़याल है,
हर ख़याल की कोई साकार प्रेरणा है।
मेरे लिए वो प्रेरणा तुम हो ।
समझी मेरी सोनपरी !

याद है उस दिन .....
जब तुम बिज़नेस की किसी बात पर अड़ गईं थीं।
और अड़ी भी ऐसी कि टस से मस न हुईं ।
तब फ्लाइट पकड़ कर मुझे आनन-फानन तुम्हारे पास आना पड़ा था।
और फिर क्या बोली थीं तुम ?
अपनी कलाइयों को मेरे कांधे पे रख कर ....
ये ज़िद तो बस एक बहाना थी देव !
दरअसल तुमसे मिलने का मन हो रहा था।
उफ़ ये तुम,
और ये तुम्हारी बातें।
लाख कोशिश करूँ तो भी आपे में न रह पाऊँ।
वैसे एक बात कहूँ ....
हर मैं के लिए, एक तुम चाहिए।
हर मैं अधूरा है तुम्हारे बगैर !!!

मुझे अब भी याद है
उस शाम मैं बहुत थक गया था
पता ही नहीं चला कब सोफ़े पर बैठे-बैठे आँख लग गयी।
अचानक चेहरे पर गीले बालों की छुअन ने सरसराहट कर दी ....
देखा तो तुम थीं,
अभी-अभी आयीं थी नहा कर।
“तुम शाम को नहा रही हो, वो भी सर्दी के मौसम में ....
बीमार हो गईं तो?
मैं सहसा बोल उठा था।
“अरे बुद्धू नहीं नहाऊँगी तो बेचैन हो जाऊँगी।”
कहते – कहते तुमने मेरी नाक को लगभग मोड़ दिया था।
और मैं ...
मैं हतप्रभ सा तुम्हारे उस रूप के आगे नत हो गया था ।

सच सुनोगी ........
ये तुम ही हो,
जिसके दम पर मैं अपने ख़यालों की दुनिया में रमा रहता हूँ।
ये तुम ही हो,
जिससे प्रेरणा पाकर मैं ख़त लिख पाता हूँ ।
मेरी कल्पना का यथार्थ आधार हो तुम !
फिर कभी न कहना,
कि मुझ पर ख़त ना लिखा करो।
तुमसे ही रोशन है, मेरे ख़तों का ये संसार !!!
सुन रही हो ना ....

तुम्हारा

देव










Thursday 13 November 2014

....अक्सर !!!




एक लमहा होता है
जो पसर जाता है, किन्हीं दो के बीच !
.... दीवार बनकर।
और इंसान अजनबी बन जाते हैं, हमेशा के लिए ।
बस एक लमहा
जो या तो खाली कर देता है सदियों के लिए
या फिर बुझा दिया करता है जन्मों की प्यास !
लमहे जो जुड़े होते हैं इंसानों से।
लमहे जो भरमाते हैं हमें,
दो रिश्तों के बीच खाई खोद कर ।

उस दिन तुम कितनी अपनी सी लगी थीं,
एकदम मासूम,
..... बच्ची जैसी !!!
“देव तो पाठकों का है
मेरा क्या ?”      
यह कह कर जब तुमने अपनी आँखें ऊपर की तो मैं तुम्हें देखता ही रह गया था ।
तुम्हारे वो छोटे-छोटे बाल,
जो मुझे अक्सर लेडी डायना की याद दिलाते हैं ।
हल्के से भींचे हुये होंठ,
जिनका सामान्य रंग भी लिपस्टिक के किसी यूनीक शेड सा लगता है ।
वो नज़ाकत से निखरी हुयी तुम्हारी उँगलियाँ ....
और उनके बीच इठलाता i-phone !

कुछ देर रुक कर तुम फिर बोली थीं ...
“मैं एक प्रेक्टिकल लड़की हूँ
मुझे तुम्हारी तरह किसी की तलाश नहीं है देव !
समझने की कोशिश कर रही हूँ
इन फीलिंग्स को, जो मेरे लिए नयी हैं अभी
बिलकुल नयी !!!”
                
और जब मेरी उमंग की आँच पर तुम्हारी तटस्थता की परत चढ़ने लगी,
तभी तुमने फूँक देकर उस बुझती आँच को सुलगा दिया।
“अगर ये प्यार है,
तो मैं इसे जीना चाहती हूँ ।
उड़ना चाहती हूँ,
बहना चाहती हूँ ,
तुम में घुल कर खुद को भूल जाना चाहती हूँ !”

और मैं फिर से दौड़ने लगा था ...
रूमानियत के घोड़े पर सरपट सवार होकर !
पता नहीं, मैं कुछ खोज रहा हूँ या नहीं।
मगर हाँ,
मैं वैसा समझदार नहीं,
जैसे कि लोग अक्सर हुआ करते हैं
इसीलिए मैं भी अक्सर...
खैर छोड़ो ।

फिर तुम अपने काम में मसरूफ़ हो गईं
और मैं तुम्हारे ख़यालों में !!!
ख़याल, जो सोने नहीं देते
ख़याल, जो बंधे हैं हर गुज़रते लमहे के साथ ।

वो भी तो एक लमहा ही था
जब मैं तुमसे बात करने के लिए तड़प रहा था, मचल रहा था।
तुमने कोई प्रतिरोध नहीं किया
बस एक लमहा ओढ़ लिया
...अजनबीपन का !
मुश्किल से आधे मिनिट ही बात हुयी थी
और तुम बोलीं ....
“सुनो,
Whatsapp पर आ सकते हो क्या ?
अभी बात करना पॉसिबल नहीं।“

जल्दी से मैं Whatsapp पर आया।
इतनी जल्दी कि मन ही मन गिरते-गिरते बचा,
पर तुम कहीं भी नज़र नहीं आयीं।

मैंने हड़बड़ा कर तुम्हें Whatsapp किया
-हैलो

-जी
(उधर से तुम्हारा जवाब आया )

-बिज़ि हो क्या?
(मैंने पूछा)

-हम्म
बिट बिज़ि

-ठीक है फिर कभी
(मैं बोला)

-श्योर
प्लीज़ डोंट-माइंड

-ऐसे माइंड करने लगे तो हो गया काम।
(मैंने एक स्माइली के साथ लिख भेजा)

तब तुमने एक के बदले दो स्माइली भेज दी।
उसके बाद मैं बार-बार Whatsapp पर आकर तुम्हें निहारता रहा .....
तुम अक्सर Online ही दिखीं ।

वो लमहा ही तो होता है
जो हमें अजनबी बना दिया करता है
....अक्सर !!!

तुम्हारा


देव 

Thursday 6 November 2014

मैं अपनी विरासत कहाँ सहेज पाया !




सुबह के यही कोई सात बज कर पचास मिनिट हुये थे ।
खिड़की खोली तो हवा का झौंका चेहरे से टकरा गया ।
लगा आज की हवा कुछ अलग है ।
जो अजनबी होकर भी अजनबी नहीं है  !
बस एक संदेस लायी है ...
कि सर्दी का लश्कर आ पहुँचा है ।
डेरे डल रहे हैं, तम्बू तन रहे हैं ।
हाँ,
कल ही तो दो तिब्बती लड़कियाँ दिखी थीं ।
लड़कियाँ जो हर साल स्वेटर, मफ़लर और ऊनी टोपियाँ लाती हैं।
अचानक सुथी याद आ गयी .....
यही नाम था उसका ।
वो दिल्ली में मिली थी, बारह साल पहले !
लंबी, तांबई, कमर पर टैटू सजाये
लहरा कर चलती थी ।
अक्सर कहा करती थी कि
“ इंदौर आऊँगी
मेरी फ़्रेंड्स रहती हैं वहाँ । ”
ओह ......
वक़्त की गोल बिसात पर एक और पासा घूमा और थिर गया ।
ये सब सोच ही रहा था कि गैया के रंभाने का स्वर सुनाई दिया ।
स्वर में इतनी करुणा थी कि मैं असहज हो उठा ।
रहा नहीं गया, उठकर बाहर चला आया ।
जैसे ही गाय ने मेरी आहट सुनी, पलट कर फिर रंभाने लगी ।
इस बार स्वर और अधिक दारुण और तीव्र था ।

हतप्रभ सा मैं कुछ रोटियाँ और ब्रेड ले आया ।
गाय मुझे देर तक देखती रही, फिर अनमनी सी खाने लगी ।
होदी का पानी भी नहीं पीया।
खाते-खाते फिर मेरी ओर मुँह करके रंभायी
कुछ क्षण ठहरी और चली गयी ।

उसी जगह खड़ा हूँ पर वहीं नहीं हूँ !
बहुत .... बहुत पीछे चला आया हूँ ।
निक्कर, बुशर्ट वाला मैं !
कंठाल नदी, कचहरी के पीछे वाली टेकरी !
ये ठंड का मौसम....
वो दिवाली की छुट्टियाँ ।
और हम चार-पाँच दोस्तों का टेकरी पे चढ़ कर,
जाली-बोर की झाड़ियों में से छोटे-छोटे लाल जाली-बोर चुनना ।
सबकुछ आज याद आ गया
फिर खुद से एक शिकायत की मैंने...
कि मैं ये सब भूला ही क्यों था ?
नहीं , शायद मैं कुछ भी नहीं भूला था
बस वक़्त ने एक ताला जड़ दिया था, बचपन के उन दिनों पर ।
जिसे आज गाय के रंभाने ने खोल दिया ।

ओह प्रिया ....
मुझे लगता है कि मेरा बचपन बहुत समृद्ध है ....
उसमें नदी है, पहाड़ है, पेड़ों पर चढ़ाई है ।
बबूल के कांटे हैं, बेशरम की झाड़ियाँ हैं ।
साँप और बिच्छू हैं, जंगली सियार हैं ।

मैं अपनी विरासत कहाँ सहेज पाया !
सिर्फ पछताता हूँ, याद करता हूँ और घुटता हूँ ।
मगर हाँ ,
तुम्हारे प्रेम की थाती सीने से लगाए रखना चाहता हूँ ।
जब तक कि मेरी साँसें साथ न छोड़ें !
वही एक संजीवनी है,
जो पल-पल की घुटन और असमय अवसान से मुझे बचाए हुये है ।
मैं निराश नहीं हूँ सखी
बस उद्वेलित हूँ ।
तुम समझ रही हो न !!!

तुम्हारा

देव