Friday 19 June 2020

'बुराँश' रख लेती हूँ मैं तुम्हारा नाम




"तुम कौन हो !
 एक अजनबी।
 क्यूँ आये हो !
 तुम्हें हँसाने।
 क्या ठहरोगे ?
 कभी नहीं !
 कब जाओगे ?
  पता नहीं !"

पीहू मेरे,
आज अलसुबह से ही
तुम्हारी ये कविता
मेरे मन के आँगन में चक्कर काट रही है।
चाहकर भी मैं
इसके मर्म से मुक्त नहीं हो पा रही हूँ !

वैसे पता है न तुमको...
कि तुम्हारी बहुत कम कविताओं से
मैं ख़ुद को जोड़ पायी हूँ अब तक।
लेक़िन तब भी, तुम्हारी ये कविता
एक साथ प्यार और रीतेपन का भाव भर देती है मुझमें !

सच कहूँ देव...
यात्रा में जो लालित्य है
वो गंतव्य की प्राप्ति में नहीं।
पड़ाव का जो आनंद है
वो मंज़िल पर पहुँचने में नहीं।
ख़ैर छोड़ो...

पिछले कई सालों से
या कहूँ कि बचपन से ही
मेरे गर्मी के दिन,
पहाड़ों पर गुज़रते रहे।
मगर इस बार,
परिस्थितियाँ अलग हैं।
इस लॉक-डाउन में,
बड़ी ही विचित्र जगह पर टिकी हुई हूँ मैं।
कभी हॉटेल का सा एहसास होता है
तो कभी किसी इंडस्ट्रियल एरिया जैसा आभास।
सारी सुख-सुविधाएँ हैं
कुछ नहीं है, तो बस प्रकृति।
आज सुबह टहलने निकली
तो पता है क्या देखा ?
लाल फूलों वाला 'बॉटल-ब्रश' का ये पेड़।

अचानक से ऐसा लगा,
जैसे पहाड़ों पर हूँ मैं !
हिमालय के पंजों में लेटी हुई।
ऊपर से अलसायी, भीतर से जागी सी !
फिर मुझे बुराँश की याद आने लगी।
प्रेम में पगे, प्रेम के प्रतीक
.... बुराँश के चटक लाल फूल।
छटपटा उठी भीतर तक
और तुम्हें ख़त लिखने बैठ गई।

निर्लज्ज कहीं के !
मुझ पर इल्ज़ाम धरते तुम्हें लाज नहीं आती ?
जिस व्हाइट-वाइन को तुम, पानी समझकर पी गए
उसमें मेरा क्या दोष था !
बताओ भला....
पर जब,
मैं बुराँश के शरबत की बोतल लाई थी
तब पूरे एक-महीने,
तुम नाक-भौं सिकोड़ते रहे
न पीने के बहाने ढूंढते रहे।
और जब तुमने उसे चखा
तो दो ही दिनों में
पूरी बोतल ख़ाली कर दी।
उसके बाद भी,
अहो भाव का एक शब्द तक मुँह से न निकला तुम्हारे !

बावरे पीहू,
जानते हो....
जब-जब पहाड़ों पर जाती हूँ
तब-तब मैं
अपने फ़ोन की कॉन्टैक्ट-लिस्ट में
तुम्हारा नाम बदल देती हूँ।
आज वो नाम बताऊँ ?
'बुराँश' रख लेती हूँ मैं तुम्हारा नाम !
बुराँश....
जो तलहटी में तो लाल रंग का होता है
मगर ऊँचाई पर जाओ
तो सफेद हो जाता है।
जिसका खिलना प्रेम और यौवन का प्रतीक
तो जिसका मुरझा कर गिरना
बिछोह और आँसुओं का संकेत !

पता नहीं
तुम समझ पा रहे हो या नहीं
मगर हाँ,
मेरा प्रेम प्रतीकों में पलता है।
लो,
अब सुमित्रानंदन पंत याद आ रहे हैं।
 “सार जंगल में त्वीं जस क्वें न्हॉ रें क्वें न्हॉ,
  फूलन छे के बुरूंश जंगल जस जली जां।"
जानती हूँ पगलू ,
तुम्हें कुमाऊँनी बोली नहीं समझ आती
मगर प्रेम तो समझ आता है ना !
बोलो ?

तुम्हारी
मैं !



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