लो,
एक
चक्कर और लगा लिया पृथ्वी ने !
फिर
से झरने लगे हरसिंगार
फिर
लौट आया क्वांर।
कितनी
उत्साहित रहती है ये पृथ्वी
जैसे
किसी बच्चे ने सीखा हो
अभी-अभी
साईकल चलाना।
चक्कर-दर-चक्कर
लगाती
बग़ैर
उत्साह में कमी लाये।
इसके
ठीक उलट
वो
अधेड़ याद आता है मुझे।
जिसने
चालीस पार करते ही
ख़ुद
को बूढ़ा मान लिया था।
हर
दिन ख़ुद में एक नई बीमारी खोजता रहता।
हर
दिन जीने के लिए
मरने
का कोई बहाना ढूँढ लाता।
बारिश
बीत रही है
लोग
गीली और सीली दीवारों की
देखभाल
में जुट गए हैं।
कल
एक बूढ़े पेंटर को देखा
एक
दीवार का रंग उतारते हुए,
फिर
से नया रंग चढ़ाने के लिए।
बड़ा
अजीब था
दीवार
को अनावृत होते देखना
परत-दर-परत
!
मैं
सोचने लगा
हमारा
मन भी तो कितने चोले ओढ़ता है...
उसी
शरीर में रहकर !
जन्म
के पहले दिन से लेकर
दूध
के दाँत टूटने तक।
फिर
स्कूल के दिन।
कॉलेज
में गुज़ारे हुए
बहुत
थोड़े से, मगर कितने हसीन दिन !
इस
सबके बीच
जाने
कब आ जाता है
दिल
धड़काने वाला वो मीठा एहसास !
और
फिर....
रंग
बदलते जीवन के साथ
मीठेपन
में घुलता
कड़वा, कसैला, तीखा
और चटपटा स्वाद !
यही
सब सोच रहा था
कि
मेरा ध्यान
दीवार
की ओर गया।
तो
देखा,
कि
वहाँ एक अनगढ़ सी आकृति बनी हुई है
...
दिल की आकृति !
इधर
उधर निगाह दौड़ाई
लेकिन
बूढ़ा पेंटर कहीं नज़र नहीं आया।
ख़याल
आया
कि
अगर तुम यहाँ होतीं
तो
इस सब पर कैसे रिएक्ट करतीं।
फिर
बूढ़े को खोजने बाहर गया।
वो
गुलमोहर के नीचे बैठकर
सुक़ून
से बीड़ी पी रहा था।
मैंने
उसे लगभग झंझोड़ते हुए पूछा
"दादा,
ये
दिल किसके लिए बनाया ?"
वो
अपने झक्क सफ़ेद दाँत निकाल कर
अजीब
तरह से हँसने लगा।
वो
हँसे जा रहा था
और
मैं उसकी साँवली सूरत निहार रहा था।
कभी
लगता था
कि
वो सिर्फ हँस रहा है।
कभी
लगता था
कि
एक समंदर है उसकी आँखों में...
जिसमें
से सैलाब बस फूट ही पड़ने वाला है।
फिर...
मेरे
भीतर कुछ हहरा कर उठा
और
बहुत नीचे तलहटी में बैठ गया।
सच
कहती हो तुम
हमारे
साथ-साथ एक पूरा संसार चला करता है।
हम
कभी भी अकेले नहीं होते !!
और
हाँ,
अब
मैं बिल्कुल ठीक हूँ
चिंता
मत करना।
तुम्हारा
देव
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