Friday 28 August 2015

एक किताब अब भी महफ़ूज है ..... नमी और सीलन से अछूती।






प्रिय देव,

मुझे अन्यथा न लेना
मगर....
मैं हँसती रहती हूँ
मुश्किल हालत में भी।
और तुम ....
दुखी होने के बहाने तलाशा करते हो।
लेखक हो ना ...
शायद इसलिये
लेकिन ये सब ज़रूरी है क्या ?
तुम्हीं कहो .... !

“मैं तुम्हें फिर मिलूँगी” ......
अमृता प्रीतम की इस किताब के एक सौ पांचवें पन्ने पर,
तुमने एक मोर-पंख रख कर भेजा था ना मुझे।  
और एक छोटा सा उपन्यास ... नागमणी !
जिसके सहारे मैंने,
एक लंबी हवाई यात्रा पूरी की थी।
उस पूरे उपन्यास में
तुमने जगह-जगह यह दिखाने के लिए अंडर-लाइन किया था
कि तुम भी मुझे वैसे ही चाहते हो
जैसे कि उस उपन्यास की नायिका ने,
अपने नायक को चाहा !

हाँ,
तुम उदास हो इन दिनों।
कुछ यादों को हमेशा के लिए साथ बहा ले गयी,
क्या करें ?
बारिश ही तो थी !


ये जानकार मुझे भी तकलीफ हुई
कि किताबों का वो गट्ठर
जिसे तुम पिछले बारह सालों से संभाले थे
इस बारिश ने सीला कर दिया
कुछ पन्ने अब कभी भी पलटे नहीं जायेंगे।
लेकिन उस बारिश को क्या कहें
जो देहरी पार कर
घर के भीतर चली आये
वो भी अढ़ाई बजे रात में
... निर्लज्ज जैसी !!

देव सुनो ...
वादा करो
कि इस उदासी को खुद पर
इतना हावी न होने दोगे
कि बची हुई साँसों का मोल भूल जाओ।

एक अनजाने भय में जीते हो तुम।  
कभी-कभी लगता है
कि पैशन है ये तुम्हारा
हमेशा आशंकित रहना !!
क्या मैं गलत हूँ
बोलो ?


बारिश चली गई
मगर तुमने उसकी नमी सहेज ली।
देखो अब
तुम खुद फिसल गये
उसके गीलेपन तले।

ज़रूरी तो नहीं
कि हम हर कदम के बाद
रुककर ....
एक अनजान आशंका की आहट सुनें।
और हर फिसलन के बाद
फिज़ियोथेरेपी और अल्ट्रा-साउंड मशीन का सहारा लें।

अस्तित्व के मिटने की चिंता नहीं मुझे
मगर अस्तित्व के रहते
खुद को मिटा हुआ मान लेना भी बर्दाश्त नहीं।

जानते हो ...
कल की रात,
मैंने एक जंगल में बितायी।
और आज सुबह के झुटपुटे में
एक मोर को नाचते देखा।
झूम-झूम कर नाचा वो मोर मेरे सामने
और जाते-जाते
एक पंख छोड़ गया
..... मेरे लिये।

तुम्हारी एक किताब अब भी महफ़ूज है
..... मेरे पास।
नमी और सीलन से अछूती।
उस किताब के सौलहवें पन्ने पर
मोर का ताज़ा पंख रखकर भेज रही हूँ
सहेज लेना !!!

समझ गये ना,
बुद्धू मेरे !!


तुम्हारी

मैं !




Thursday 20 August 2015

मैंने देखा, एक फ़ीनिक्स.... अपने भीतर !







जाने क्यों
प्रेमी-प्रेमिका ऐसे होते हैं
मर्त्य और अमर्त्य के बीच झूलते से !

जिस पल सबसे ज़्यादा एक-दूसरे को पा लेते हैं
बस उस ही पल
एक-दूसरे को खोकर रीते हो जाते हैं।
अजीब सी असुरक्षा
है ना ...
नहीं तो क्यों जाये परवाना
अपनी शमा के पास जलने !
और क्यों फ़ीनिक्स
अचानक से राख़ हो जाये
खुद होकर !!

मैंने देखा,
अपने भीतर एक फ़ीनिक्स.... 
जो तड़प रहा है
अपनी आख़िरी कविता कहने के लिए
पर उसे आग नहीं मिल रही
जल जाने को !

आज सुबह उठकर
टहल रहा था
अपनी छोटी सी बगिया में
कि,
ये दिखा मुझे।
पतंगे जैसा कुछ
या जंगली तितली कोई
एकदम निर्जीव,निढाल
रास्ते के बीच पड़ी हुयी सी।

सोचा कि
इस बेदम की मुक्ति
किसी के पैरों तले कुचलकर न हो जाये
सो एक शाख से टूटे हुये
पत्ते का आसरा लिया।
और देखो तो
ये पतंगा भी
उस पत्ते से चिपक गया।
ना हिला, ना डुला
उसके पंख भी निस्तेज से रहे
मगर उसकी आँखों में जीवन था।
उसे अपने हाथ पर लिए
देर तक देखा किया।

वो दिन याद करो...
जब पहली बार तुमने मिलने बुलाया था,
उस तनहा कमरे में।  
दूर कुर्सी पर बैठ कर
अपनी हथेली पे ठोड़ी टिकाये
मैं लगातार तुम्हें देखता रहा था।
और तुम
अध-मुंदी पलकों से
कभी मुझे देखतीं
तो कभी खो सी जातीं .... ख़ुद में।

कभी कहीं पढ़ा या सुना था
कि
,
प्राण आँखों से निकलते हैं
कहीं इसीलिए तो
इस जंगली तितली की आँखों में इतनी चमक नहीं !
निकलते हुये प्राणों की चमक ....

अच्छा एक बात कहो
क्यों नाराज़ हुईं थीं तुम
इस पंद्रह-अगस्त को मुझसे !
मुक्ति के वास्ते ... ?

हम फिर-फिर ख़ुद को तकलीफ देते हैं
ये समझकर
कि जैसे कुन्दन निखरता है
हम भी निखर जायेंगे वैसे
मगर ये क्यों भूल जाते हैं
कि हम इंसान हैं
धातु नहीं !


फिर-फिर झगड़ते
और प्यार करते रहते हैं
खुद ही से बस !
ये आदत तो छोड़नी होगी न प्रिय।

कोई क्या कहेगा .....
जब भी ये विचार
हमारे प्रेम की राह में आये
तब एक ही बात सोचना
कि जब हम न होंगे
तो किसी को फुरसत नहीं होगी
हमें याद करने की।
और तब भी अगर
किसी ने हमें याद किया
तो समझ लेना कि
वही सच्ची श्रद्धांजलि है
हमारे प्रेम के प्रति !

तब तक के लिए आओ
हम दोनों तलाशें,
अपनी-अपनी आग...
फ़ीनिक्स बनने के लिये !

और हाँ...
तुम्हें ख़त लिख कर
ज्यों ही बाहर आया
ना तो पत्ता दिखा मुझे
ना ही वो पतंगा
दोनों को हवा उड़ा ले गयी शायद
कहीं दूर ....


तुम्हारा

देव


Thursday 13 August 2015

साँसें सँजोकर रखनी हैं तुम्हें ……. मेरे लिए !





कब कहा मैंने
कि मैं चिरंतन हूँ ;
एक घटना हूँ मैं छोटी सी
तुम्हारे जीवन की !!!

हाँ,
घुप्प अंधेरे में 
लालटेन के उस पार से देखने पर
एक साया दिखता है मेरा
फर्श से लेकर छत जितना
कुछ लोग साये को हक़ीक़त समझ बैठे
विराट मानने लगे हैं मेरे भंगुर अस्तित्व को
मार देना चाहते हैं वो
मेरे भीतर के प्रेमी को
मैं भी तैयार हूँ
साक्षी भाव से खुद को मिटते देखने के लिये।

सुनो ...
बहुत सी बातें अधूरी हैं अभी
वो सच्चे किस्से
जो तुमने कहना चाहे पर कह नहीं पायीं।
प्राग के काफ़्का म्यूज़ियम की वो बात
जो आज तक तुमने नहीं बताई ।
चौड़े चौकोर काले पत्थरों वाली
पुरानी सड़कों पर
पैदल घूमते हुये
साझा की गयी वो अधूरी याद
जो ट्राम-गाड़ी के आ जाने से पूरी नहीं हो सकी।
क़हवा-घर का वो किस्सा
जब तुमने खुद के लिये स्वीट-लेमन ज्यूस
और मेरे लिये ब्लैक-स्ट्रॉंग कॉफी ऑर्डर की थी।
वो भी तब...
जबकि मैं तुमसे पूरे चौदहसौ सत्तर किलोमीटर दूर बैठा था।
हमारे बीच में दो समुद्र और एक महाद्वीप की दूरी थी।

और वो तस्वीर ....
जो तुमने लंदन की एक खुशनुमा क़ब्रगाह में खड़े हो कर ली थी
मुझे डराती नहीं वो तस्वीर
लेकिन मैं फिर-फिर बाध्य हो जाता हूँ
सोचने के लिये
तुम्हारे और मेरे प्रेम को लेकर !

वो कहते हैं
कि मैं तुम पर आ कर रुक गया हूँ
कि मैं फिर-फिर खुद को दोहरा रहा हूँ।
वो चाहते हैं
कि मैं आगे बढ़ जाऊँ
तुम पर उड़ती सी निगाह डालकर।
मगर मैं क्या करूँ
बड़ा बेबस हूँ मैं।
क़लम थामते ही
तुम आ जाती हो मुझमें
नहीं लिखना चाहता
तुम्हें कोई ख़त
रोक नहीं पाता मगर खुद को।

जानता हूँ
ये बड़ा खतरनाक है
क्योंकि वो ऐसा नहीं चाहते
लेकिन करूँ तो क्या
मजबूर हूँ मैं भी।

अच्छा सुनो....
कल तुम्हें देखा
जागती आँखों के सपने में
नीले रंग का प्लाज़ो
काऊ-बॉय हैट
और काला दुपट्टा गले में डाले !

मुसकुराते हुये जा रही थीं तुम
.... मुझसे दूर !
चेहरा मेरी तरफ
मगर चल पीछे की ओर रहीं थीं  
धीरे-धीरे
और-और पीछे !!
गनीमत है
कोई मुहाना नहीं था
तुम्हारी राह में
पीठ के पीछे।

याद है एक बार
'ब्रेख़्त' की बातें करते हुये
हम किसी तंग गली से गुज़र रहे थे
और अचानक दीवार टटोलते हुये
हम दोनों की उँगलियाँ छू गयी थी आपस में।
बस उतना काफी है
हमारे प्रेम की पूर्णता को।

कभी उनके आगे ज़िक्र न कर बैठना
कि हम एक-दूसरे को देख कर जीते हैं
नहीं तो ....
कुछ लोग माहिर होते हैं
प्रेम का गला घोंटने में
और अब
हम दोनों सिर्फ प्रेम रह गए हैं।
अपनी साँसें सँजोकर रखनी हैं तुम्हें
मेरे लिए।
जानती हो न !
बस ...
और कुछ नहीं।

तुम्हारा

देव








































Friday 7 August 2015

इस बारिश में मेरे गाँव चलोगी ?


शहर से अलग-थलग, जंगल के करीब
दफ़्तर में बैठा
कागज़ उलट-पलट रहा था
कि तभी,
तुम्हारी याद ने मन उचटा दिया।
सारे कागज़, सारे बिल और वाउचर्स अजनबी बन गए।
उन पर लिखी इबारतें
रेंगती हुई चीटियों और मकोड़ों की कतार भर लगने लगी।
मैं छटपटाया और बाहर चला आया।
लाल रॉक-टाइल वाले लॉन पर टहलते हुये
मोबाइल से तुम्हारा नंबर डायल करने ही लगा था
कि इस पर नज़र पड़ी।  
धीरे-धीरे रेंगते हुये
मेरे पैरों के पास सरकता ये जीव
जिसे मैं तो घोंघा कहता हूँ
मगर तुम.....
निश्चित ही ‘Snail’ के नाम से समझ पाओगी।

देखो तो सखिया
मौसम अजनबियों को भी अपना बना देता है।
प्रेम ने हमें जाने कैसे जोड़ दिया 
परिस्थितियों ने तो दूर रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

हम दोनों के बीच उतना ही अंतर था
जितना कि भारत और इंडिया में।
तुम्हें कॉन्वेंट एजुकेट कर रहे थे
और मेरी पढ़ाई.....
सर्द दिनों में शीशम के पेड़ तले हो रही थी।
अच्छे से याद हैं मुझे “अमोलक माड़साब” !
जो अटेन्डंस को हाजिरी लेना कहते थे
और यस सर बोलने पर बुरी तरह चिढ़ जाया करते थे।
उनके कोप से बचने के लिए
मैं कभी भी उपस्थित गुरुजी बोलना नहीं भूलता था।

खैर,
आज मुझे एक छोटे से दोस्त की याद आ रही है।
एक छोटा सा जीव !
जो बारिश के दिनों में
अक्सर रेंगता दिख जाता था।
थोड़ा चपटा-थोड़ा गोल
मकई के दाने जैसा
मखमली गद्देदार आवरण
चटक लाल रंग
छोटे-बारीक पैर
अद्भुत था वो जीव।
स्थानीय लोग उसे वीर-बहूटी कहते थे
वहीं कुछ उसे गोकुल-गाय तो गाँव से पढ़ने आने वाले बच्चे बूढ़ी-डोकरी पुकारते।
देवी सिंह नाम का एक सहपाठी था स्कूल में मेरे साथ
बैल गाड़ी से आता था रोज़
मुझसे थोड़ा बड़ा मगर शादी-शुदा ।
उसीने परिचय कराया था उस जीव से मेरा ।

जब ताज़ी हरी घास पर वो चलता
तो एक अलौकिक दृश्य उत्पन्न हो जाता था।
हम उसका पीछा करते
और फिर वो जाने कहाँ गायब हो जाता
शायद गीली धरती की नर्म दरारों में कहीं।
कुछ शैतान बच्चे उसे पकड़कर,
काँच की छोटी पारदर्शी शीशियों में डाल लेते थे।   
कुछ समझदार-संवेदनशील सीनियर्स
उन बच्चों को डांटकर वीर-बहूटी को आज़ाद करा देते।


स्कूल के मैदान के पीछे तारों की बाड़ के उस ओर
मटमैले रंग की छोटी सी घाटी थी।
जिसके पास एक मौसमी नाला बहता था।
जहाँ एक बार मैंने,
बड़े से काले चींटे को बहते हुये पानी से बाहर आने में मदद की थी।
और फिर आकाश में देर तक निहारा था
.... शायद ईश्वर को !

सुनो,
इस बारिश में मेरे गाँव चलोगी ?
साथ-साथ निहारेंगे चटक लाल वीर-बहूटी को !
तुम्हारे बिज़ि-शेड्यूल में से सिर्फ डेढ़ दिन निकालो ना
गाँव जाना कठिन नहीं है
लेकिन वीर-बहूटी को देख पाना बड़ा दुसाध्य हो गया है अब !
वैज्ञानिकों के लिए तो अब वो,
निश्चित ही एक्स्टिंक्ट-स्पीशीज़ बन चुकी होगी।
क्या पता....
तुम्हें साथ देखकर   
वो फिर से ज़मीन के किसी कोने से निकलकर
मुझसे मिलने चली आये
आओगी न ?

तुम्हारा

देव