Thursday, 21 August 2014

मेरी फ़ेवरिट फैंटसी....



तनहा होकर भी तनहा नहीं हूँ,
तुम्हें ख़त जो लिख रहा हूँ।  

सीने के बल लेट कर।
A4 कागज पर गीली आसमानी स्याही से ।

बगल में वही लाल ज़िल्द वाली किताब रखी है ।
जिसके पास होने से एक अजीब सा सुक़ून मिलता है ।

याद है ....
तुमने एक बार पूछा था
“ कि मेरी फ़ेवरिट फैंटसी क्या है ?
पूछ कर तुम तो हँस दी थीं
पर मैं बेक़ल हो गया था ।
वही झिझक फिर आड़े आ गयी, जो बचपन से अब तक साये की तरह मेरे साथ लगी है ।
सुनो ,
सिर्फ आज के लिए ...मैं उस झिझक के पार चला आया हूँ ।
तुमसे अपनी फैंटसी साझा करने !!!!

मैं इस किताब में रखी एक कहानी जीना चाहता हूँ।  
तुम्हें साक्षी बना कर ....
हम दोनों हों
एक भरा-भरा सा लमहा हो
और उस लमहे में ...
सुबह की गमक, दुपहरी की खनक और साँझ की रमक सबकुछ एक साथ हो ! 

इस किताब का चार सौ अट्ठारहवाँ पृष्ठ खोल कर मैं बहुत हौले से हर उस शब्द को जीना चाहता हूँ। 
जिसे बहुत पहले रच दिया था , मेरे प्रिय लेखक ने ।
उस बूढ़े पात्र में समा जाना चाहता हूँ
जो अतीत की न जाने कौन सी गठरी अपने काँधों पे लादे फिर रहा है ।
बूढ़ा ...
जिसे वे दोनों भाई-बहन मास्टरजी कहते थे ।
मास्टरजी बनकर मैं टेनिसन, ब्राउनिंग और स्कॉट की पंक्तियों की व्याख्या करते हुये किसी दूसरी दुनिया में पहुँच जाना चाहता हूँ ।
फिर एक निःश्वास लेकर बांग्ला-भाषा में कुछ बुदबुदाना चाहता हूँ ।
और जब वो बूढ़ा बैचेन होकर अपनी कलाई पर बँधी गोल बड़े डायल वाली पुरानी पीली सी घड़ी पर नज़र डाले, तो मैं सरकती हुयी सुइयों कि टिक – टिक बन जाना चाहता हूँ ।

मैं उन बच्चों जैसा भी हो जाना चाहता हूँ ,
जिनकी मासूमियत अनजाने ही अपराध बन गयी ।
जो उस बूढ़े को आम दिन की आम घटना मानते रहे ।
उसके चले जाने के बाद उसकी विरासत नहीं सहेज पाये और पाठकों की नज़र में सबसे बड़े गुनहगार बन बैठे ।

मैं मास्टरजी की आखिरी निशानी बन जाना चाहता हूँ ।
... वो भूरा फाउंटेन पेन !

यही कहानी जीनी है मुझे ..... तुम्हारे साथ !
चाहता हूँ कि कहानी का अंत आते – आते मेरा गला रुँध जाये ,
पलकें भीग जायें
और जब मैं पूरी तरह निस्सहाय हो जाऊँ
तब तुम धीरे से मुझसे कहो ...
“ कहानी है बुद्धू
क्यूँ खुद को इतना हलकान कर रहे हो ?
क्यूँ रोने लगते हो बात-बात पार ! “

फिर,
तुम्हें देखे बगैर
मैं वहाँ से उठ कर चला जाऊँ
.... शायद हमेशा के लिए !

कैसी लगी मेरी ये फैंटसी
और हाँ ,
मेरे प्रिय लेखक और उनकी इस कहानी का नाम तभी बताऊँगा,
जब वो कहानी तुम्हें सुनाऊँगा ।

तुम्हारा

देव














2 comments:

  1. मैं उन बच्चों जैसा भी हो जाना चाहता हूँ ,
    जिनकी मासूमियत अनजाने ही अपराध बन गयी ।
    जो उस बूढ़े को आम दिन की आम घटना मानते रहे ।
    उसके चले जाने के बाद उसकी विरासत नहीं सहेज पाये और पाठकों की नज़र में सबसे बड़े गुनहगार बन बैठे .....m touched......very very beautifull

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