Thursday 26 May 2016

ये तपिश भुलाने के लिए



प्रिय देव,


“जो कुछ हमने जीया
हम उसका बीस प्रतिशत ही लोगों से साझा कर पाते हैं
बाकी का अस्सी प्रतिशत
चला जाता है अनकहा ही हमारे साथ !”
यही बोला था ना,
तुम्हारा वो दोस्त...
जिसकी झुर्रियां मुझे बहुत अच्छी लगती हैं।
जिसका चेहरा एक पूरी सदी की दास्तान सुनाता है।
वो दोस्त तो अब
अपना देश छोडकर 
संसार के दूसरे छोर पर
...ठंडे प्रदेश में जा बसा।
लेकिन यहाँ...
रोहिणी नक्षत्र चला आया है।  
विडम्बना देखो
हर कोई झुलस रहा है
फिर भी ये दुआ कर रहा है
कि नौ तपा खूब तपाये,
बारिश की वजह से कहीं गल न जाये
नहीं तो फिर जून-जुलाई सूखे रह जायेंगे।

इस झुलसाते मौसम में
हर कोई अपना आसरा ढूँढ रहा है।
मगर ये धरती... !
ये धरती कहाँ जाये देव ?
इसीलिए शायद
प्रकृति ने दिया है
... गुलमोहर का पेड़ !
मानो एक उपहार गुलदस्ते का,
धरती के वास्ते,
....ये तपिश भुलाने के लिए !

कितनी बातें
इस इकलौते जीवन से जुड़ी हुई
दृश्य से अदृश्य तक की यात्रा जैसी !!!

वो लड़की....
जो बड़ी चित्ताकर्षक है
जिसके बारे में,
तुम सबकुछ जान लेने को उतावले रहा करते हो
कल फिर दिखी थी मुझे !
पता है कहाँ ?
आबादी से दूर
जंगल के क़रीब बने
तुम्हारे पसंदीदा वुड-पार्क रेस्टोरेन्ट में बैठी हुयी।  
वो भी हैप्पी-अवर्स में ... !!!  
हैट को चेहरे पर झुकाये
खिड़की के काँच से ख़ुद को सटाये
गहरे रंग का स्लीव-लेस टॉप पहने।
जाने कहाँ देख रही थी आँखें गड़ाए !
हाथों में गिलास को,
नज़ाकत से थामे हुये।
एक बार मुझसे निगाह मिली
फिर लगा कि उसने मुझे देखकर भी नहीं देखा।
शायद मैं उसके लिए अदृश्य थी
और वो मेरे पार देख रही थी।

मेरे जी में आया
कि काश,
वो मुझमें तुमको देख ले।  
और फिर मैं
अपने इस बचकाने ख़याल पर हँस पड़ी।
मेरी अप्रत्याशित हँसी,
कुछ विस्मित निगाहों
और उठी हुई पलकों का सबब बन गई।

देव सुनो...
कई बार हम
अनजाने ही रूठ जाते हैं किसी से।
कभी-कभी कोई खो जाता है
और हम ये सोचा करते हैं
कि वो अब हमें याद नहीं करता।

होता है ना ऐसा,
कि हमारे शब्द और भाव
कोई दूसरा,
ठीक वैसा ही कभी नहीं महसूस पाता
जैसा कि हम चाहते हैं।
और फिर हम लड़खड़ाने का बहाना बना
खुद को दरकिनार करने लगते हैं
...धीरे-धीरे !
खुद को चाहना कब शुरू करोगे
मेरे अल्हड़ पीहू
बताओ ...

तुम्हारी
मैं !


Thursday 19 May 2016

मर्ज़ तो सबको दिखता है, पर दवा किसी के पास नहीं !



क्या उम्र के साथ
उमंग भी ढल जाती है ?
आज वन्या का फ़ोन आया था
कहने लगी
“अब जीने की इच्छा खत्म हो रही है।”
उसे समझाया
ढेरों इधर-उधर की बातें की
उसका दिल बहलाता रहा
मगर फ़ोन रखने के बाद
मैं उदास हो गया !!!

मन को समझाने के लिए
WhatsApp पर टिक-टैक करता रहा
फिर मन नहीं लगा तो
कमरे का दरवाज़ा खोल कर
ड्योढ़ी में खड़ा हो गया।
बंधन की प्रतीक ड्योढ़ी....
जो कभी-कभी
बड़ी सख़्ती से जकड़ लिया करती है,
पैरों को ही नहीं
....मन को भी !

दिन बड़े हो गए हैं ना
इन दिनों अक्सर दीया-बाती के समय
शाम ढल कर भी नहीं ढलती।
लाइट का स्विच ऑन किया,
और फिर वहीं खड़ा रह गया।

खड़ा-खड़ा जाने क्या सोच रहा था
कि तभी
मंदिर की घंटियों की आवाज़
मेरे कानों में पड़ी;
तो ध्यान आया
कि कितने ही दिनों से
आरती के वक़्त भी
मैं दरवाज़ा लगाकर
कमरे में ही रहता आया हूँ।

ख़ुद में उतरकर
इतना शांत
पिछली बार कब महसूस किया था
याद नहीं आ रहा।
उधर घंटियों की टन्न-टन्न...
और इधर शीतल बयार !
गर्मी के दिनों में
अचानक हो जाने वाली बारिश से उपजी
...मंद-मंद बयार !!
चमेली की इकलौती डाल
घड़ी के पेंडुलम सी लहरा रही है
और मेरे नथुनों में
एक ख़ुशबू सिमट आई
जाने कहाँ से !

नीचे बडी बैठा है
एकदम शांत....
आज तो उसने पूँछ भी नहीं हिलाई
शायद मुझे देखा ही नहीं !
लेकिन दरवाज़ा खुलने की आहट
तो सुनी ही होगी ना उसने !!
शायद वो भी...
मेरी ही तरह ख़ुद में उतर गया है आज !

अब फिर से दरवाज़ा लगा कर
घर के भीतर आ गया हूँ।
एक अजीब सी बेचैनी क्यों है...
क्या वन्या की बात सही थी ?
क्या मेरी भी इच्छाएँ खत्म हो रही हैं धीरे-धीरे !
कुछ समझ नहीं पाता।
ये विचित्र बेचैनी,
क्यों चली आती है बार-बार !
एक ज्योतिष के पास भी गया था
कहने लगे,
“बचपन से ही
बेचैन रहते आए हो तुम !”

मैंने कहा,
“जानता हूँ
आप तो उपाय बताइये !”

तो बोले,
“कोई उपाय नहीं है।”

अब तुम ही कहो
ये भी भला कोई बात हुई
मर्ज़ तो सबको दिखता है,
पर दवा किसी के पास नहीं !

मैं, ना...
दरअसल अपने आस-पास से परेशान हूँ
लोग...
जो मुझ पर थोप दिये गये हैं
बिना किसी वजह के !
परिस्थितियाँ....
जो मुझसे लिपट गयी हैं
जैसे हरे पेड़ पर पीली अमर बेल !
एक दूरी...
जो आकर जम गयी है
मेरे स्व और मेरे बीच !

कभी-कभी ये सोचकर
मन भारी होने लगता है
कि प्यार की उम्र
कम क्यों होती जा रही है
दिन-ब-दिन !
या कि लोग,
अब अनुभव को तरजीह देने लगे हैं
भावना की जगह !!
किसी से कुछ कहता नहीं
कि कोई संदेह ना करने लगे।  
मुझ पर संदेह कर ले तो कोई बात नहीं !
मगर मेरे प्यार पर करे
ये कतई मंज़ूर नहीं !
क्योंकि ये सीधा-सीधा
तुम पर अविश्वास होगा  !

अच्छा सुनो....
कोई आया है बाहर
बडी भौंकने लगा है अचानक
देख लूँ जाकर
शायद कोई उम्मीद हो
रीती ही ना लौट जाये कहीं !
अपना ख़याल रखना !

तुम्हारा
देव 









Thursday 12 May 2016

काश, मेरा नाम ‘यों ही’ होता


उस रात तुमने
बिना वजह ही
WhatsApp पर एक मुस्कान भेजी,
और मैं ये सोच कर खिल उठा
कि तुम आज खुश हो।
मैंने खुशी का कारण पूछा
तो तुम बोलीं
“कुछ नहीं
यों ही।”
मैं अनायास ही कह उठा
कि
“काश,
मेरा नाम ‘यों ही’ होता
और मैं;
तुम्हारी खुशी का सबब बनता रहता।”
तुमने भी तुरंत जवाब दिया
“अरेss
कमाल है देव
जाने क्या क्या बोला करते हो
सो जाओ अब
गुडनाइट।”
गुडनाइट कहने के बाद
तुम एक पल को भी कहाँ ठहरती हो !
तुम तो last seen हो गईं
मगर मैं देर तक तुम्हारे साथ रहा
तुम्हारी प्रोफ़ाइल-पिक से बातें करता रहा ।

“ब्लैक कैज़्युअल टी-शर्ट
काली फ़्रेम वाला वो ऐनक
खुले, बिखरे, कंधे पर डोलते घनेरे बाल
दूज के चन्दा सी कटीली आँखें
बिना लिपस्टिक वाले
भरे-भरे अधखुले से होंठ;
दमकता हुआ सादगीपूर्ण सौन्दर्य !
क्यों कर न बनना चाहूँ मैं
तुम्हारी खुशी का सबब
रम्या मेरी....
बोलो !!!
और हाँ
अभी ये प्रोफ़ाइल-पिक लगी रहने देना
घूंट-घूंट पीना है मुझे
तुम्हारा अनिंद्य सौन्दर्य !!!

कितनी विचित्र होती है
प्रेमी और प्रियतमा की ये दुनिया।  
वो छोटी-छोटी बातें
जो दूसरों के लिए गौण हुआ करती हैं 
उन्हीं बातों में
संसार बसा करता है
दो प्रेमियों का।

खुशनसीब हैं हम
जो इकदूजे से अपना प्यार बाँट सकते हैं।  
वरना,
कभी तो सिर्फ यादें ही बची रह जाती हैं
और बाकी सब उड़ जाता है
हवा के साथ ... धुआँ बनकर !

वो एक आदमी
जो छोड़कर चला गया
भरा-पूरा जिस्म
और बहुत थोड़ी निशानियाँ
...अपने पीछे।
निशानियाँ...
जिनमें शामिल हैं
कुछ म्यूरल्स
कुछ पेंटिंग्स
और एक मासूम सा सात साल का बेटा !
अरे हाँ
एक अकेली औरत भी...
उस आदमी की स्थायी याद जैसी।

इसने उसको और उसने इसको
दोनों ने शिद्दत से चाहा इक दूजे को
मगर अब,
वो अकेली असमंजस में है।
ज़िंदा और बेजान के बीच,
फ़र्क जो नहीं कर पाती।
कभी म्यूरल्स से बातें करने लगती है
तो कभी अपने बेटे को बुत समझ बैठती है।  
अपने प्रेमी की पेंटिंग्स को
हर बार कला-वीथिका की प्रदर्शनी में रखती है,
मगर बेचती नहीं।
एक बार गौर से देख लिया था
उनमें से एक पेंटिंग को मैंने। 
रूह तक सिहर उठा था....
अब तक के देखे-बूझे सारे आयाम
ध्वस्त हो गये थे। 
पहले कभी ऐसी अनुभूति नहीं हुई थी
मेरी इन आँखों को।

हमारे चेहरे की ये चमक
किसी न किसी इंसान से जुड़ी होती है।
इंसान जाता है,
तो चेहरा भी रूखा सा हो जाता है।  
खुशियाँ कुम्हलाने लगती हैं
और साथ बिताए हुये पल
सूख कर झर जाते हैं।
मेरे चेहरे की चमक हो तुम
मेरी आभा...
कांता मेरी !!
अब कभी न कहना
कि जाने क्या-क्या बोला करता हूँ मैं।  
मुझे कहने दिया करो,
मेरे मन की सारी बातें।  
मगर हाँ,
तुम वैसी ही समझदार बनी रहना
जैसी तुम हो !  
हँसकर भुला देना,
मेरी बे-मतलब की बातें
इनपर ज़्यादा ध्यान मत देना।  
प्लीज़ !!!

तुम्हारा

देव 


Thursday 5 May 2016

उसे मेरे आँगन का पता दे देना




मई का महीना है
दो दिन से गला दुख रहा है
एक स्थायी दर्द क्या काफ़ी नहीं था ....
जो और दर्द चले आते हैं
जब-तब मेरा जी दुखाने को !!

जाने क्या हुआ पिछले दिनों
एक बार हिचकी चलनी शुरू हुई
तो बंद ही नहीं हुई।
लाख ठंडा पानी पीया  
खूब मीठा खाया
शॉक-ट्रीटमेंट भी लिया
मगर हिचकी थी
कि बंद ही नहीं हुई 
और मेरी नादानी देखो तो
सबकुछ कर लिया
बस तुम्हारा नाम नहीं लिया।  
पूरे दो दिन जूझता रहा मैं
दुखती हुई पसलियों
और हिच्च-हिच्च की आवाज़ के साथ
फिर अचानक तुम्हारे नाम को
दस मिनिट तक मन के धागे से बुनता रहा
और हिचकी चली गयी ... मुझसे दूर !!!

“चीज़ें जैसी हुआ करती हैं
हम उन्हे वैसा कभी नहीं देखते
हम तो बस वही देखा करते हैं
जो हम देखना चाहते हैं।”
उस दिन तुमने ये क्यों कहा था ?
बोलो भला... !!!
मैंने तो बस यही पूछा था ना
कि
“आज जा रही हो मिलने ?
मुझे तनिक भी एहसास न था
कि बात इतनी बढ़ जायेगी।


"कभी दिल में आरज़ू-सा, कभी मुँह में बददुआ-सा,

मुझे जिस तरह भी चाहा, मैं उसी तरह रहा हूँ।" 
हा दुष्यंत.....
जाने क्या सोचकर तुमने ये शेर लिख दिया;
कि मेरी प्रेयसी को कह दे,
कोई ये जाकर....
कि उसकी रज़ा ही मेरी रज़ा है।
कि उसकी चुप्पी,
तीखी नोक सी चुभती है मुझको।
कि उसकी एक मुस्कान में,
मेरे सातों आसमान हैं !
हाँ,
मैं मानता हूँ
बहुत सोचा करता हूँ मैं
और मेरी सोच के साये तले
कुछ पग्गल भाव डोला करते हैं
मगर मैं करूँ तो भी क्या
मुझे तो बस तुमसे प्यार है..... !!
इक पल ठिठका तो लगा तू आस-पास है
 चाहे तू दूर रहे अब भी तू खास है।”

परी मेरी....
जानती हो,
कैसे गुज़र रहे हैं मेरे दिन-रात
बस एक आँचल के सहारे !
तुम्हारा आँचल...
जो लहराता रहता है मेरे कमरे में
और उस आँचल से छन कर आती हवा में
.... एक विलक्षण सुगंध है
तुम्हारे अहसास से भरी हुई।  
सुगंध....
जो बार-बार कहती है
कि तुम यहीं मेरे इर्द-गिर्द हो कहीं !

सुनो...
कई रातें गुज़रीं
ठीक से सो नहीं पाया हूँ।
मेरा एक काम करोगी ?
सुक़ून नाम की चिड़िया अगर कहीं मिल जाये
तो उसे मेरे आँगन का पता दे देना।
बस... इतना ही !

तुम्हारा

देव