Thursday 26 November 2015

“प्रेम की सार्थकता, उसे निर्बन्ध कर देने में है रे मिट्ठू”




प्रिय देव,
कभी-कभी लगता है
तुम मेरी बात को समझकर भी नहीं समझते।
स्त्री शरीर से प्यार नहीं करती
ना ही शरीर के लिए प्यार करती है।
और जो वो ऐसा करे,
तो समझ जाओ....
कि वो सिर्फ एक बोझ उतार रही है।
.... अपनी छाती से !!!

पग्गल सुआ हो तुम देव
सच्ची !
तुम्हें क्या लगता है !
मैं तुमसे मिलने की ज़िद इसलिए करती हूँ
क्योंकि मैं तुम्हारा स्पर्श चाहती हूँ ?
मैं तो रोज़ तुम्हारे संग रमती हूँ रे बावरे;
तुम्हारी तस्वीर देखा करती हूँ  
कि अचानक तुम फ़्रेम से बाहर आ जाते हो
...... साक्षात !
मेरे बिलकुल क़रीब।
तब भी मैं तुम्हें छूती नहीं
बस एकटक देखा करती हूँ
तुम्हारी प्रभा में अपनी आभा घोल लिया करती हूँ।
मन ही मन बतिया लेती हूँ
...बस !

पता है देव ....
पुरुष की प्रवृत्ति है ऊबना,
और स्त्री लगातार घुलती रहती है
पानी में भीगते मिट्टी के सूखे डल्ले की मानिंद !!
घुलते-घुलते कभी
उसमें उबाऊपन के कंकर आ जाते हैं
जो लाख कोशिशों के बाद भी नहीं घुल पाते।
तो वो बांधने का सोचने लगती है।
और बस....
यहीं से शुरू होते हैं
सारे दर्द...
अनकहे, अनसुलझे दर्द !

प्रेम की सार्थकता
उसे निर्बन्ध कर देने में है रे मिट्ठू।
खुला छोड़ दो प्रीत के पत्ते को
यूँ ही बे-सबब बहने के लिए
फिर देखोगे
कि ना कोई तनाव और न ही बंधन।
हाँ,
मानती हूँ
कि मेरे सारे WhatsApp-status तुम्हारे लिए हैं।
तो क्या हुआ
... बोलो ?
हाँ,
स्वीकारती हूँ
कि मैंने कहा था
“तुम्हें miss you बोलने से अच्छा,
कोई ऐसा प्रेमी खोज लेना है
जो मुझे miss किया करे।”
तो क्या हुआ
हम लड़कियां ऐसी ही होती हैं देव
हर बार हमारे शब्दों पर मत जाना
नहीं तो भटक जाओगे
....अतल, अनंत खोह में !
बस मुहाने पर बैठकर
भावों में भीग जाओ
सबकुछ पा लोगे
प्यार के जैसा !


आज मैं कुछ बदली-बदली सी लग रही हूँ ना
ऐसा होता है कभी-कभी
जैसे ऋतुएँ बदलती हैं ना
सृजन और आकर्षण के लिए
वैसे हम भी बदलती हैं।
अपने प्रेमी में एक नया प्रेमी देखने के लिए।
इसलिए किसी बात का कोई गिला मत करना।

कल शाम सूखे हुये सुमन
विसर्जित करने गयी थी
.... यमुना में !!!
पुल पर खड़ी
लगातार देखती रही, भरी-पूरी कालिंदी को।
दूर एक पुरुष.....
नाव खे रहा था,
डूबते सूरज की ओट में !
लगा,
जैसे ये तुम हो
फूल विसर्जित नहीं किये
लौट आई उन सूखे हुये फूलों के साथ।

अच्छा सुनो
मेरा एक काम करोगे ?
तुम्हारे शहर के आस-पास कोई काली नदी है ?
एक बार दिन ढले
उस नदी के किनारे जाकर
मुझे जी लेना !
और वहीं आस-पास
कोई सूखा पत्ता दिख जाये
तो उसे प्यार से उठा कर
थोड़ा सा सहला कर
नदी में बहा देना !
ऐसा करोगे ना ?
मेरे लिए.....

तुम्हारी


मैं !



Thursday 19 November 2015

अरसा हुआ, वो चमक नहीं देखी !!





दो क़ब्रें,
दो दफ़न हो चुके जिस्म।  
पता नहीं
उनकी रूहें अब यहाँ हैं
या कहीं बहुत दूर चली गयीं।
मगर कमाल तो देखो
ये क़ब्रें ....
हर साल बुलाती हैं
लाखों धड़कते दिलों को
...अपने पास !
कारण वही शाश्वत
.... प्रेम !!!

आज मुझे फिर
वो शेर याद आ गया
जिसे पिताजी सुनाया करते थे।
“सैर कर दुनिया की गाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ
ज़िंदगानी गर रहे तो,  नौजवानी फिर कहाँ । ”
नहीं जानता किसने लिखा इसे
लेकिन जब-जब पिताजी इस शेर को सुनाते
तब-तब उनकी आँखों में
एक चमक उभर आती।
थोड़ी देर होते न होते
एक अजीब सी उदासी तैरने लगती।  
फिर जाने कहाँ खो जाते;  
अपने आँसुओं पर बाँध बनाते हुये
एक-एक शब्द को मुक्ति देते से कहते
“यार बाबू,
मज़ा नहीं आया ज़िंदगी का।”
मैं अचकचा जाता
सोचता,
सबकुछ तो है इनके पास
फिर क्यों कहा करते हैं ऐसा !

आज जब तुमने
ताजमहल के अंदर से
इन दो प्रेमिल कब्रों की तस्वीर ले भेजी;
तो किसी ने फेंट दिया
भीतर तक मुझे,
ताश की गड्डी बनाकर !

सुनो....
ऐसा ही हो गया हूँ अब मैं,
थोड़ा रूखा, थोड़ा सूखा।
लाख कहने पर भी
तुम्हारे साथ घूमने नहीं आया,
शायद मन का कोई कोना
दब्बू और अंतर्मुखी होने लगा है अब !

बाहर निकलता हूँ
तो लगता है
कि कोई मेरे चहरे में,
तुमको न देख ले।
कि कोई मेरे शब्दों में,
तुमको न सुन ले।
किसी ने अगर
मुझमें तुम्हें देख लिया
तो क्या होगा ?
उफ़्फ़
मैं क्या करूँ खुद का
तुम्हीं कुछ बताओ लड़की।

पता है
अब मेरा मन हो रहा है
कि मनुहार करके तुमको
अपने साथ ताजमहल की सैर पर ले चलूँ।
तुम्हारा हाथ थामे
अपनी साँसें रोक कर
इन दोनों क़ब्रों के पास
निश्चल खड़ा हो जाऊँ।
और फिर तुम्हें लेकर
फतेहपुर सीकरी जाऊँ।  
उस लड़के को खोजूँ,
जिसने बुलंद दरवाज़े पर खड़े होकर
तुम्हारे हुस्न की तारीफ़ में शेर पढ़े थे।
दस रुपयों में, पूरे बीस शेर !

और जब...
लौटकर मैं वापस घर आऊँ
तो अपने उम्रदराज़ पिता के
बयासी साल पुराने कानों में
चिल्लाकर कहूँ
“ देखो ना पापा
मैं सैर करके लौटा हूँ
अपने घर वापस !”

प्रिया  मेरी
कह दो न एक बार
कि फिर से चमक उठेंगी
वो बूढ़ी आँखें !
अरसा हुआ
वो चमक नहीं देखी !!

तुम्हारा

देव



Thursday 12 November 2015

पता नहीं क्यों.... शायद, मुक्ति की चाहत !!!




रात गहरा रही है
यही बारह के बाद कोई चालीस मिनिट ऊपर
नवम्बर का महीना
चाँद फिर छोटा होने लगा है
सुबह-सुबह ठिठुरन होती है
फिर भी जाने क्यों
रातों को अजीब सी गर्मी लगा करती है।
लगभग रोज़ ही एयर-कंडीशनर चला लेता हूँ।  

इन दिनों कुछ अजीब सा हो रहा है।
मन ठहर नहीं पाता
सबसे उठने लगा है।
ज़रा सी आहट
आशंकाओं से भर देती है।

कभी-कभी निढाल सा हो जाता हूँ
न कुछ बोलता हूँ
न ही कुछ सोच पाता हूँ।
बस घंटों तकता रहता हूँ
कभी छत,
तो कभी फर्श को।
पता नहीं क्यों....
शायद, मुक्ति की चाहत !!!

मुक्ति भी लगता है,
कि बस एक शब्द भर है
असल में ऐसे किसी भाव का
कोई अस्तित्व ही नहीं !

जो रिश्ते,
हम बनाते हैं।
जिन सम्बन्धों से,
हम बंधते हैं।
क्या उनसे कभी मुक्त हो पाते हैं ?
बस एक नाम है मुक्ति !
कभी देह को छोड़कर
तो कभी सम्बन्धों को तोड़कर,
हम सोच लेते हैं
कि मुक्ति मिल गयी।  
मगर नहीं.....
कोई एक,
हमेशा घुटता रहता है
घुट्टी की तरह
बूंद-बूंद आँसू के साथ
खुद को घिस-घिस कर।

लगता है,
जैसे यही सब बातें
मैं तुमसे पहले भी कर चुका हूँ
बहुत पहले....
बहुत-बहुत पहले।
पर अब याद नहीं आ रहा
कि कौन से काल में
किस अवस्था में
कैसी देह को धारण कर
की थीं मैंने;
तुमसे ये सारी बातें !

सच्ची-सच्ची बोलूँ ?
अब मैं अपने मन की बातें
बहुत कम कर पाता हूँ
किसी से भी .... !

देह से जहाँ पर होता हूँ,
मन से वहाँ नहीं रह पाता। 
बहुत सारे लोगों से घिरा हुआ मैं !
ये कहने में हर बार झिझक जाता हूँ,
कि तुम जो कहा करते हो
वो कभी कर नहीं पाते। 
और जो मैं महसूसता हूँ
उसका दावा नहीं करता।

सूखी आँखों वाली
... वो लड़की !!!
दिन में तीन बार दवा डाला करती है
अपनी आँखों में नमी लाने के लिए
उसके आँसू देखकर
चश्मेवाला बच्चा
रोया करता है ज़ार-ज़ार।
चाहकर भी मुक्ति नहीं मिल पाती
सूखे नयनों में भी
सहेजनी पड़ती है नमी !!!

जानता हूँ ...
मायने नहीं रखता
मेरा इस तरह महसूसना
मगर तब भी ... !

साल ग्यारह सीढ़ियाँ चढ़ चुका है
उम्र ने एक और ढलान देख लिया
पंखे की आवाज़
और घड़ी कि टिक-टिक 
अजीब सा वातावरण बना रहे हैं
देखो मैं फिर से बंध रहा हूँ 
सोच के जाने कैसे-कैसे बंधनों में
मुक्ति कहाँ मिल पाती है ?
बस मुक्ति की चाहत,
और मुक्ति की बातें,
किया करते हैं हम
....अक्सर !

तुम्हारा


देव 

Thursday 5 November 2015

तुम तो मानोगी न ये बात !




कुछ लमहे गुज़र कर भी नहीं गुज़रते
हमेशा साथ रहते हैं,
हमारा अंग बनकर !
तनहाई में, करीब आ जाते हैं मेरे लमहे;
सिर पर हाथ फेरते हैं,
दुलराते हैं गोद में बैठा कर।
आह.....
कभी-कभी सोचता हूँ
ये लमहे भी चले जाएंगे मेरे साथ !
चाह कर भी नहीं चखा पाऊँगा
किसी और को इनका स्वाद !!!

परसों की रात बड़ी बेचैन गुज़री।  
कुछ लोग बिना पूछे
मेरे मनमें दाख़िल हो गये
और उलट-पुलट कर डाला
भावों के घरौंदे को।
लगा जैसे चोर घुस आए दबे पाँव
मेरा सुकून चुरा लेने को।
उन्हें अब ये भी गवारा नहीं,
कि मैं तुम्हें ख़त लिखूँ।
मुझ पर तंज़ कसने लगे हैं वे लोग।  
तुम ही कहो,
प्रेम में होना कोई पाप है ?
प्रेम को लिखना, क्या अपराध है ?
मैं तो साये पर भी पैर रखने में झिझकता हूँ
फिर मुझे क्यों सताया ?
एक बे-दर्द ने !
ये कहकर,
कि तुम्हें प्रेम-पत्र लिखने के लिये
नयी-नयी प्रेरणा खोजने में, लगा रहता हूँ मैं बस !
साँस लेने के लिये भी कभी
किसी प्रेरणा की ज़रूरत हुयी भला ?
मेरे ख़त साँस हैं मेरी
तुम तो मानोगी न ये बात !

रात भर सिसका किया !
सुबह ये सोच कर उठा
कि डि-एक्टिवेट होकर सबसे दूर चला जाऊँ
मगर ज्यूँ ही कम्प्यूटर ऑन किया
मेरी आँखों के आगे,
ये तस्वीर जगमगा उठी।  
जीवन के रंगों से सजी,
अलौकिक तस्वीर !
जिसे पहली बार देखकर,
मैं सुध-बुध खो बैठा था।

कैनवस पर ब्रश चलाती
हाथों में कलर-प्लेट थामे
लमहा-लमहा सार्थक करती  
एक चित्रकार !

देखो तो प्यारी....
जीवन छलका पड़ रहा है
... इस तस्वीर से।
खिड़की से आती धूप
टोकरी में रखी कलर-ट्यूब्स
स्टैंड में खड़े,
एक-दूसरे से होड़ लेते छोटे-बड़े ब्रश !
कुछ पेंटिंग्स पूरी हो गयीं
तो कुछ बाट जोह रही हैं
.... अपनी पूर्णता की !
ज़रा खिड़की के इस पर्दे को देखो तो;
जैसे कोई राजस्थानी नवोढा
गोटेदार नारंगी साड़ी पहने
पूजा का थाल हाथों में ले
चल पड़ी हो इठलाकर !
और उधर...
लकड़ी की छोटी सी अलमारी के ऊपर
कोने में रखा वो फूलदान !
मानो किसी पेंटिंग से निकल कर,
बाहर आया हो अभी-अभी।
यक़ीन करोगी.....  
ये तस्वीर एक बच्ची ने ली है
एप्रन पहने, रंगों में रमी
अपनी माँ की तस्वीर !

अक्सर मुझे लगता है,
तुम्हारे लिये मेरा प्यार भी तो ऐसा ही है।  
दुनिया से बे-ख़बर,
अपनी कला में तल्लीन,
इस चित्रकार के जैसा !

सुनो न प्रिये
ये तस्वीर भी एक लमहा है
जिसे जी रहा हूँ मैं अपनी तरह
और जो चला जाएगा मेरे साथ !
जब-जब आहत होता हूँ;
ऐसा ही कोई लमहा,
मुझसे आ कर कहता है
 “देव,
क्यों सोचते हो इतना,
और किसके लिये?
दुनिया तो बस  दुनिया है,
और प्यार सिर्फ प्यार।
मन के नाज़ुक दरवाज़े पर,
एक छोटा सा ताला डाल दो ना !”

सखिया सुनो,
अबकी दिवाली
ये सारे रंग....
तुम्हारे लिये।
जी लो ज़िंदगी, जागती आँखों से !
ढेर सारा प्यार
.... दीपावली का !

तुम्हारा


देव