Saturday 17 March 2018

प्यार लिखने से एतराज़ नहीं, मगर कहने से तुम कतराती हो




एक सपना
जिसमें दो गुलाब !
नहीं, दो नहीं
बस एक जोड़ा गुलाब का।
इतने ताज़े
कि उनको छूने का मन हो जाये।
मगर ये क्या....
जैसे ही छूने को हाथ बढ़ाया,
एक काँटा चुभा
और तीखी जलन के साथ खून बह निकला।
सुबह जाग कर देखा
तो उँगली पर उस जगह
एक कत्थई निशान
और हलका दर्द बाक़ी था।


बचपन में माँ
रहीम के दोहे सुनाया करती थी
कहु रहीमकैसे निभै, बेर केर को संग।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।।"
और तब...
मैं कल्पना किया करता
बेर के काँटों से लिपट कर
तार-तार होते
केले के एक लंबे नाज़ुक पत्ते की।


लेकिन आज ...
कैसा अचंभा हुआ।
एक नाज़ुक पंखुरी
जब कांटे से लिपटी
तो काँटा तार-तार हो गया।
वो तुम...
और ये मैं !
उफ़्फ़, उफ़्फ़, उफ़्फ़ !!


जब तुम
विचित्र तरीके से हँसकर कहती हो
“I hate your husky voice.”
तब हर बार
मैं ये सोचता हूँ
कि तुम्हारी आवाज़ भी तो husky है।
लेकिन बस...
सोचता ही हूँ,
कुछ कह नहीं पाता।
शायद शब्दों से भाव ज़ाया हो जाते हैं,
इसीलिए मौन मुखर हो उठता है।


याद है,
जब पीली धूप धीरे-धीरे सिंदूरी हुई थी
और हम दोनों की छाया
लंबी हो चली थी।
लगातार चल रहे थे,
पर हम थके नहीं थे।
दोनों के चेहरे पर,
पसीने की बारीक़ बूंदें।
दोनों की आँखें,
एक-दूजे में कुछ खोजती हुई सी।
और तुम....
एक कदम ठहरकर,
मुझे देखती हुई बोली थीं ....
मेरी ज़िंदगी,
सिर्फ मेरे आस-पास घूमती है।
मैं तुम्हें एकटक देखता रहा
चाहकर भी ये न कह सका
कि तुम्हारे ही इर्द-गिर्द
मेरे जीवन का एक हिस्सा भी
घूमने लगा है अब !


तुमको प्यार लिखने से एतराज़ नहीं,
मगर प्यार कहने से तुम कतराती हो।
और मैं...
कहता भी हूँ, लिखता भी हूँ।
इन दो सिरों के बीच की यात्रा है
....हमारा प्यार !


सुनो प्यारिया,
शरीर अनावृत हो जाये,
तो उतना फर्क नहीं पड़ता।
लेकिन मन के वस्त्र उतार कर
किसी से ख़ुद को साझा कर लेना
बड़ा खतरनाक होता है।
देखो तो,
कितना सौभाग्यशाली हूँ मैं !
मैंने अपना मन
तुमको नज़र कर दिया।
मैं ठीक हूँ ...
तुम अपना खयाल रखना।


तुम्हारा
देव





Sunday 11 March 2018

परदा उठने से, परदा गिरने तक !


पीहू मेरे,
रविवार की उस शाम,
मैं घर पर ही भली थी।
क्यों बुला लिया तुमने ?
शेक्सपियर का नाटक दिखाने के लिए !
नाटक तो खत्म हो गया
मगर मैं....
उस ऑडिटोरियम से अब तक बाहर नहीं आ पाई !!


बार-बार आकर शेक्सपियर
मुझसे मेरे कान में
कुछ न कुछ कहते रहे।
कभी ये
कि,
नाम में क्या रखा है;
गुलाब का नाम बदलने से भी
कहीं ख़ुशबू बदला करती है?”
और कभी ये
कि,
सारा संसार एक रंगमंच है
और हम सब;
अभिनेता भर हैं... बस।


बावरे देव,
कितना समझाती हूँ तुमको ,
कि मेरी डोर को यथार्थ से काटकर
किसी दूसरे संसार से मत जोड़ा करो।
वरना एक दिन
मैं यहाँ की न रहूँगी
और तुम ...
हाथ मलते रह जाओगे।


उदासियों को
बहुत गले लगाये फिरते हो न इन दिनों,
सच भी है
ना तो तुम वो बच्चे हो,
जो चन्दा को मामा बुलाता है।
और ना ही वो बूढ़े,
जिसका बिस्तर ही उसका संसार बन जाता है।
लेकिन तब भी
यूँ बात बे-बात भटकना,
नजूमियों के कुओं में
अपनी प्यास खोजना,
कहाँ तक ठीक है?
आज तक भला कोई
मौत की भविष्यवाणी कर पाया
जो ज़िंदगी का भविष्य बताएगा ?
औंधा कुआं है ये कबीर वाला !
ख़ुद में झाँको...
तब ही अक्स नज़र आयेगा।


दुनिया मुझसे रश्क़ करती है
कि मेरे पास
तुम जैसा प्रेमी है।
और एक तुम हो
जो मुझसे मिलकर उदास हो जाते हो !
मैं तब भी थी देव,
मैं अब भी हूँ;
हम हमेशा रहेंगे
रूप बदलकर !


एक बात सुनो
मेरे लिए प्यार....
कविता की पंक्तियों जैसा नहीं,
मेरे लिए तो प्यार
सूखे कंठ वाले
किसी पागल प्रेमी के
टूटे-फूटे शब्दों जैसा है।
जिसकी व्याख्या,
कोई नहीं कर पाता।
जिसके शब्दों का रस,
सिर्फ उसकी प्रेयसी को ही आता है।
इसीलिए कहती हूँ,
ख़ुद को इतना हलकान न किया करो।


और हाँ,
अबके नाटक दिखाने,
जल्दी से बुलाना।
जीवन भी मेरे लिए बस इतना ही है....
परदा उठने से,
परदा गिरने तक !


एक बात और,
भरोसा करना सीखो
ख़ुद पर और खुदाई पर !!


तुम्हारी

मैं !