Thursday 25 August 2016

अक्सर .... पसरते हुये सन्नाटे में !



बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए।
ग़ालिब के शेर की ये पंक्तियाँ,
अक्सर दोहराया करते थे पिताजी !
और मैं अपनी आँखें फाड़े
उनको देखता रहता था।
दरअसल मैं तब
उनके शब्दों से बन रही छवि को
अपनी आँखों से पकड़ने की कोशिश कर रहा होता था।
लेकिन मेरे हाथ कुछ नहीं लगता था।
सिवाय शून्य से शून्य तक की एक यात्रा के !


और उस दिन ...
एक खंडहरनुमा मकान के
टूटे दरवाज़े पर
जब मैंने एक ताला लटका देखा
तो फिर पिताजी की वो बात
स्मृति की टोकरी से
बाहर झाँकने लगी।
कोई क्यों करता है ऐसा ?
कि दरवाज़े पर ताला लगाकर
उसको भूल जाता है।
ताले की भी तो अपनी सीमाएं, अपनी मजबूरियां हैं।
जब देह ही जर्जर हो जाती है
तो ये घर, ये दरवाज़े, ये ताले
आखिर कितना ज़ोर लगायेंगे !!


और फिर अक्सर ....
पसरते हुये सन्नाटे में
प्रकृति चली आती है।
किसी दीवार पर चिकनी काई
तो किसी दरार में पीपल उग जाता है।
लकड़ी के दरवाज़े में
चरमराती खिड़कियाँ बन जाती हैं।
कोई बिल्ली उसके भीतर जाकर
अपनी संतान को जन्म देती है।
कुछ बच्चे
खेलते-खेलते रुककर
भय-मिश्रित कौतूहल से उधर देखा करते हैं।
और ताला ...
अपनी बेबसी और अपमान का घूँट पीता रहता है।
या यूं भी तो हो सकता है
कि कोई शख़्स इस दुनिया और दुनिया के शोर से
इतना बेज़ार हो जाये
कि....
नहीं-नहीं, दुनिया में सिर्फ शोर ही तो नहीं
संगीत,किलकारियाँ और प्रार्थना भी तो इसी दुनिया की आवाज़ें हैं !
मगर हाँ,
ठगे जाने का अहसास
अक्सर आहट का भी प्रतिषेध कर देता है।
जब मन इतना कुम्हला जाये
कि किसी दस्तक की भी दरकार ना रहे
अक्सर तब...
जर्जर मकानों पर ताले लटक जाते हैं।
मकान...
जिनमें कभी जीवन स्पंदित होता था।
मकान...
जो कभी घर हुआ करते थे।


हाँ, घर से याद आया
पता नहीं कितने घरों में ऐसा होता होगा,
मगर मेरे घर की दीवारों ने
बिजली के स्विच-बोर्डों के साथ
एक समझौता कर रखा है।
अक्सर दीवार नमी को सोख लिया करती है,
और स्विच को ऑन या ऑफ करने पर
करेंट का झटका लगता है।
पहले बड़ी खीज होती थी
लेकिन अब ...
मैंने इसे जीवन की निशानी मान लिया है।


ये बैरी मन भी
अपने इर्द-गिर्द
जाने कितने संसार रच लेता है।
जिसका इस वास्तविक दुनिया के लिए
कोई मतलब नहीं !
कभी कहता नहीं
मगर हर बारिश में,
मैं यही सोचा करता हूँ
कि कभी किसी दिन
तुम मेरे अंधेरे कमरे में रोशनी करने आओ
तो तुमको बिजली का झटका न लग जाये।
इसलिए अक्सर ...
तुम्हें आवाज़ देकर रोक लिया करता हूँ।
उफ़्फ़
सूखी नदी के जैसे, हजारों अफ़सोस !!!


ऐसा क्यों होता है
कि जब-जब तुम साथ नहीं होतीं
सिर्फ तब ही
मुझे भीतर तक बेकल करने वाले
दृश्य दिखाई दे जाते हैं।
और मेरी ठंडी पड़ चुकी हथेली
तुम्हारी नर्म-गरम उँगलियों को टटोलने लगती है।
लेकिन उसके हिस्से में
सिर्फ शून्य आता है।
ऐसा क्यों होता है ...
बोलो !


तुम्हारा

देव









Thursday 18 August 2016

ज़िंदगी ख़ुद चलकर आती है हमतक !






अस्तित्वहीन समय को पकड़ने की कोशिश करता हूँ
ऐसे पल....
जो कभी घटित ही नहीं हुये,
ख़यालों में जन्मे
और वहीं दफ़न हो गये।
या फिर
किसी और के टिमटिमाते पल !
.... जिनको मैं अपना मान बैठा।
ऐसा होता है न अक्सर
कभी-कभी किसी मंदिर या धर्मशाला में
अनजाने ही हम अपने पैर
किसी और की चप्पलों में डाल देते हैं।
और ज्यों ही इसका अहसास होता है
अजनबियों की तरह पैरों को झटक कर बाहर निकाल लेते हैं।

बहुत छोटी उम्र थी
तब बड़े विचित्र से ख़याल आया करते थे
लगता था
जैसे घट चुका है ये सब मेरे साथ
...... पता नहीं कब, कौन से काल में !
बड़े-बड़े दालान वाले विशाल घर
लंबे-चौड़े कमरे
खूबसूरत नक्काशी वाला लकड़ी का पलंग।
बंगाली परिवेश
कोलकाता का एक समृद्ध परिवार
समय, आज से कोई सौ-सवासौ साल पहले का,  
और मैं ....
ख़ुद को ही देखता हुआ उस काल में !
पारंपरिक बंगाली परिधान पहने।
बड़े से पलंग के कोने पर पैरों को नीचे लटकाये बैठा हूँ। 
कुर्ते के दो बटन खुले हुये,
वहाँ तुम भी मौजूद हो
लाल बॉर्डर वाली,
सीधे पल्ले की,
क्रीम कलर की साड़ी पहने हुये।
हम दोनों बहुत खुश हैं
आँखों ही आँखों में बातें करते हुये
बहुत करीब से गुज़र जाते हैं,
एक-दूसरे की सुगंध में सराबोर होकर !
और वो दृश्य
धीरे-धीरे विलोपित हो जाता है।

एक अन्य दृश्य
पिछली सदी की शुरुआत का
एक बड़े शहर की सड़क
शायद ... लंदन !
भीगी हुयी रात
लॉन्ग कोट पहने, हैट लगाये हुये
मैं तेज़ी से जा रहा हूँ
लैम्प-पोस्ट की रोशनी
पानी की नर्म-बारीक़ बूंदों के साथ मिलकर
एक अजीब सा सम्मोहन पैदा कर रही है।
मैं, आत्मविश्वास से भरा हुआ
किन्तु चौकन्ना !!!
किसी बहुत ख़ास काम से जा रहा हूँ।
मुझे ही भ्रमित करती मेरी पदचाप
धीरे-धीरे गहराती जा रही है।
और वो दृश्य भी धुंधलाने लगता है।

कुछ दिन आम दिनों जैसे नहीं होते !
ऐसा लगता है
मानो गतिमान समय के साथ घूमती एक स्मृति
हमारे दरवाज़े पर आकर
एक अनजाने आगंतुक सी रुक गयी
और हम बस
उसे देखे जा रहे हैं।
मंत्र-मुग्ध से ....
इतने खोये हुये
कि भीतर आने को भी नहीं कहते।

यूँ मैं जल्दी नहीं जागता
मगर आज सवेरे पाँच बजे उठ गया
पूरे डेढ़ घंटे घूमने के बाद घर आया
तो लगा....
जैसे ये घर मेरा नहीं
किसी पिछली स्मृति का द्योतक है
ये घनेरे पेड़, ये हरियाली
गाय के पानी पीने की लाल हौद ....
सबकुछ वही होकर भी, वो नहीं है !
और हाँ,
सारी अनचाही चीज़ें धुंधला गईं
ज़बरदस्ती गाड़ा गया
वो बिजली का खंभा,
उस पर लटकाए गये
विज्ञापन के बोर्ड,
वो दूर बैठे अदृश्य भविष्य के जैसा
गुमराह करता चौराहा !
सबकुछ धुंधला गये हैं।
बस किसी अलौकिक झरोखे जैसा
ये वर्तमान सामने हैं।
आशाओं से भरी एक निर्जन सड़क,
पानी के साथ भीगकर चमकती हुयी
अभी-अभी जन्मे सूरज की रोशनी.....
सच कहती हो
ज़िंदगी ख़ुद चलकर आती है हमतक !
बस हम पहचान नहीं पाते
या फिर
अफ़सोस के पुलिंदे आँखों की पट्टी बन जाया करते हैं।

सुनो ....
जब भी तुम अपनी सहेली ज़िंदगी से मिलो
उसको मेरा शुक्रिया कहना
और हाँ
हो सके तो वो चिट्ठी फाड़ देना
जिसमें मैंने
अपनी शिकायतें लिख भेजी थीं।

तुम्हारा

देव