Thursday 25 September 2014

गीत बनकर देखना ... बड़ा मज़ा आएगा ।

  

कैसी हो अनजानी ,
पाठिका मेरी !

तुम्हारा ख़त मिला, पढ़कर अच्छा लगा ।
अनपेक्षित का आनंद मुझे बड़ा रिझाता है ।
पिछला पूरा हफ़्ता तुमको ख़त लिखने की चाहना में गुज़रा ।
जाने कितने कागज नीले कर डाले,
लेकिन भावों को शब्द नहीं मिल पाये ।
जूझता रहा खुद से पूरे सात दिन ।
उफ इस मोह का मायाजाल देखो,
शायद शब्दों से आसक्ति हो गयी !
इसीलिए भाव मेरे उतर नहीं पाये ... कोरे पन्नों पर ।
जीवन के झूले की दो ही तो डोर हैं ,
एक आसक्ति और दूजी विरक्ति ।
खैर ... ।

“ प्रिय नहीं कहूँगी। ”
यही कहा था ना , तुमने अपने ख़त में ?
एक बात बताओ ....
प्रीत के लिए भी क्या संबोधन ज़रूरी है !
प्रीत की प्रतीति तो शब्दों से बड़ी है ।

हाँ तुम सच कहती हो ,
मैं उस दिन तुमको देख रहा था ।
तुम्हारी ही आँखों में दिख रही थी वो चमक.....
जो निस्पृह करती है वर्तमान से ।
और जब तुम मेरे क़रीब से गुज़रीं, तब भी मैं हौले से बुदबुदाया था ।
प्रश्न पूछा था मैंने ।
क्योंकि मुझे पता है, हम दोनों की प्यास एक जैसी है ....
खोज में हैं हम दोनों !

कस्तूरी का मृग कह कर तुमने मेरी मुश्किलें आसां कर दी ।
पर मेरी सुगंध सानिध्य में पलती है ।
सानिध्य, जो तय है ... बहुत पहले से ।
अविश्वासी नहीं हूँ, मैं बस जिज्ञासु हूँ ।
जिज्ञासा का अतिरेक बावरा कर देता है मुझे कभी-कभी।
अच्छा सुनो ....
एक भटकता जिस्म है,
उसमें बसती है एक प्यारी रूह .... एक प्यासी रूह !
नाम है उसका चारुलेखा ।
परसों उसने फोन किया दूर मगध से,
और मुझसे कहने लगी ...
“ अभी इसी वक़्त मन की गति से चले आओ देव ।
देखो तो मौसम का कैसा ये रूप है ।
गंगा की लहरें देहरी को चूम रहीं ।  
सड़कों पर घुटनों तक पानी आ गया। ”
कुछ देर ठहरी और बोली ...
”मैं आज मौसम को पी लेना चाहती हूँ। ”
भावों की कश्ती में खेने लगी खुद को,
और फिर अचानक फफक पड़ी वो ।
उसे याद आ गया उसका प्रीतम ... जो मेरा हमनाम है ।

तुम ही कहो अनजानी ,
मुझमें क्या ढूँढती है चारुलेखा ?
उसे याद हैं पिछले दो जनम ,
देख सकती है वो बहुत दूर तक ।
फिर क्यूँ मुझमें खोजती है उसका प्रियतम ?
बोलो ... !

चलो जाने भी दो ,
अनुभूतियाँ जब समझ नहीं आतीं, तो वे अक्सर दर्शन बन जाती हैं ।
एक बात पूछूँ ...  
क्या तुम कभी लिरिकल हुयी हो ?
गीत बनकर देखना ...
बड़ा मज़ा आएगा ।
हवा में लहराते स्वर किसी के ना होकर भी सबके होते हैं ।
चाह कर भी उनको छीन नहीं सकता कोई !
लब पे उमड़ जाएँ , पैरों में थिरक जाएँ ... गुनगुनाते स्वर ।

सच कहूँ तो मेरी चाहतें ही जुदा हैं ।
सिंधु सभ्यता की लिपि के जैसा, नहीं होना चाहता मैं ।
.... अनमोल पर अपठनीय !
मैं तो रेशा –रेशा हो जाना चाहता हूँ ।
जितना तुम चाहो, उतना महीन हो जाऊँ !
विशेष होने से एलर्जी है मुझको ।
चाहे फिर बात प्रेम की ही हो ।
भले ही नीम बेहोशी में रहूँ ,
तब भी मैं प्यार को ही बड़बड़ाना चाहता हूँ ।
तुम ही कहो ,
पागल हुये बिन क्या प्रेम किया जाता है ?
सिर्फ एक प्रेमी ... प्रेयसी का देव !

तुम्हारा

देव


 









Thursday 18 September 2014

तुम तक खुशबू का झौंका आया या नहीं ?

देव,
सुनो ...

प्रिय नहीं कहूँगी तुम्हें !
वो अधिकार किसी और को जो दिया है तुमने ।
मैं तो तुम्हें ठीक से जानती भी नहीं ।
बस एक दिन,
ख्वाबों को टटोलते हुये तुम्हारे ख़त से गुज़री .....
तो वहाँ बैठे शब्दों ने रोक लिया ।
नहीं ...
शायद तुम्हारे भावों ने गले से लगा लिया ।
लगता है ,
जैसे खुशबू सूँघ लेते हो आस-पास फैले प्यार की ।
अनजाने प्यार को भी महसूस लेते हो तुम ।

उस दिन अचानक तुमसे रु-ब-रु हो गयी ।
भीड़ से घिरे थे तुम !
पर लगातार मेरी ओर देख रहे थे ।

जानती हूँ ...
तुम मुझे नहीं, मुझमें कुछ देख रहे थे ।
क्या ये विस्तार है तुम्हारे प्यार का ?
या फिर तुम हर चेहरे में उसी एक चेहरे को ढूंढते जाते हो !
समझ नहीं पायी
इसीलिए खत लिख रही हूँ ।

याद है ....
एक  पुरजा साथ लाये थे,
जिसे बड़ी मनुहार के बाद पढ़ा था तुमने... सबके आगे ।
तुम्हारी बातें अटपटी पर भावों से भरी थीं ।
“ मैं ,
ठहर जाना चाहता हूँ अब
.... सचमुच !
मगर मुझे कोई
साया नहीं मिलता
रोक नहीं पाता
चलने से खुद को
इसीलिए तेज़ी से
खर्च हो रहा हूँ
....... मैं !! ”
यही बोले थे ना तुम उस दिन ।
लेकिन मुझे क्यूँ देख रहे थे !
बोलो ?
क्या वो साया तुम मुझमें ढूंढते हो ?
और उसी दिन जब अकेले में मेरे क़रीब से गुजरे ....
तो क्या कह रहे थे अपने आपसे ?
या फिर मुझसे ही कुछ पूछ रहे थे ?
“ तुम्हारी बातें
 तुम्हारी तड़प
 तुम्हारी प्यास...
 अपनी सी लगती है । ”
यही बुदबुदाये थे न तुम्हारे होंठ !

ओ देव ....
तुम तो वो मृग हो,
जो प्रेम की हर आहट के लिए आतुर रहता है ।
फिर मुझसे क्यूँ पूछते हो ये सब !!!
कहीं ऐसा तो नहीं ...
कि प्रेम की जिस कस्तूरी को खुद में लिए फिरते हो ,
उस पर तुम्हें खुद ही भरोसा नहीं ।

तक़रार कर सकते हो पर अविश्वास मत करो ।
मैंने हाथों में कलम लेकर ,
तुम्हारा नाम लिखा है अभी !
कहो ,
तुम तक खुशबू का झौंका आया या नहीं ?

एक पाठिका तुम्हारी

अनजानी !








Thursday 11 September 2014

कई बार सोचती हूँ...



प्रिय देव ,

नहीं पूछूँगी कि कैसे हो।
बेवजह की औपचारिकताएँ मुझे असहज कर दिया करती हैं ।
बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हो इन दिनों...
मेरी ओट लेकर !
वो क्या कह रहे थे तुम...?

“ मैं तो प्रतीक्षालय में बैठा
  वो आखिरी यात्री हूँ
  जिसे पता है
  कि उसकी ट्रेन कभी नहीं आएगी !!! ”

क्या सच में ऐसा है ?
और जो ये सच है, तो फिर मैं कौन हूँ ?
क्या लगती हूँ तुम्हारी ?
शायद कोई नहीं !

प्रेम में बौरा जाने का अनोखा अंदाज़ है तुम्हारा ।
खुद को सताने लगते हो तुम !
जानती हूँ ,
विरह और दीवानगी मिलकर प्रेमी को परवाना बना देते हैं ।
वो परवाना ...
जो शमा के आसपास डोलता भर नहीं ,
जो जल जाना चाहता है उसमें ।
पर जल कर मिलेगा भी तो आख़िर क्या ?
बस मुट्ठी भर राख़ !!!

प्रेमी की मज़ार पर दीया जलाने में मेरा विश्वास नहीं देव ।
मैं तो प्रियतम की गोद में सिर रख कर इस दुनिया को भूल जाना चाहती हूँ ।

हाँ मैं कुछ हट कर हूँ !
मगर अपनी सोच पर पूरी आस्था है मेरी ।
गुज़रते वक़्त के साथ इंसान मिटता नहीं ...!  
... और –और बनता जाता है ।
और अधिक अनुभव लेता जाता है ।
वैसे भी यहाँ सब हम-उम्र ही हैं ।
बूढ़ा हो या बच्चा !
तुम ही कहो ...
आत्मा की भी कोई उम्र होती है ?
वो तो चिरंतन है !

कल रात नींद नहीं आ रही थी ।
सिरहाने रखी तुम्हारी किताब खोल ली ।
पता है मेरे आगे कौन सी कविता थी ?
“ क्वांर की इक शाम को ... ”
एक अजीब सा लगाव है ना तुम्हें ,
... क्वांर के महीने से ।
और कार्तिक में तो तुम खुद आए ....
फिर से इस धरती पर !
मुझे भी खींचते हैं ये दो महीने अपनी ओर ।
आत्माओं का पखवाड़ा क्वांर !
नौ दुर्गा के नौ दिनों वाला क्वांर !!

कई बार सोचती हूँ
कि ये क्वांर का महिना उस कुँवारी युवती की तरह है ,
जो एक मूरत को मन में बसा कर निकल पड़ी है अज्ञात की खोज में ।
लोग टोकते हैं , रोकते हैं पर वो नहीं मानती ।
नौ दिनों तक भटकती है जाने किसके लिए ...
और अचानक दसवें दिन !
... उसी में से प्रकट हो जाता है कोई ,
साकार रूप बनकर ।

तब ना केवल विरह रूपी बुराई का दहन हो जाता है ।
वरन प्रेमी तक दिल की बात भी पहुँच जाती है ।
और फिर ठीक बीस दिनों बाद ,
दीयों की जगमग और फुलझड़ियों की उमंग तले मिलन होता है,
 ...जन्मों की प्यास और आस्था के अमृत का !

सोच रहे होंगे
कि मैं भी बिलकुल कमली हूँ ।
जाने कैसे ख़यालों के साथ घूमा करती हूँ ।
पर अब क्या करें ?
जो हूँ सो हूँ ।
हाँ ये पक्का पता है
कि तुम भी बहुत कुछ मेरे जैसे हो ।

तुम्हारी

मैं !













Thursday 4 September 2014

पहिया कुछ जल्दी घूम गया ना ?



लोगों की निगाहें बदल गयी हैं इन दिनों।
भरम करने लगे हैं मुझ पर !
कोई कहता है कि मैं उसे घूर रहा हूँ ,
तो किसी को लगता है कि एकटक देखे जा रहा हूँ ।
पर सच सिर्फ़ ये है,
कि तुम्हें और और जी रहा हूँ अब मैं !!!
अनजाने चेहरों में ...
अजनबी आवाज़ों में ...
तलाशने लगता हूँ बरबस ही तुमको ।
भेद मिटने लगे हैं ।
खुद से वादे करना भी छोड़ दिया अब तो !
भीतर ही भीतर एक ज्वार उठाओ ,
और फिर फिर किसी सेफ़्टी–वॉल्व के लिए छटपटाओ ।
... ये नहीं होता अब मुझसे।

कल रात सूफ़ी ने मुझसे पूछा
“ देव ,
एक बात बताओ ?
ये ख़त सिर्फ़ कल्पना है ।
या तुम्हारी ज़िंदगी भी जुड़ी है इन ख़तों से ! ”
उसकी बात सुनकर हड़बड़ा गया मैं ।
जैसे फिसलपट्टी पर फिसलते हुये बीच में ही किसी ने रोक दिया ।
“ कल्पना और हक़ीक़त दोनों। ”
मैं हौले से बुदबुदाया ।
फिर एक लंबा मौन पसर गया हम दोनों के बीच ।
पर ये सच नहीं है सखी ।
कल्पना कहीं भी नहीं है ॥
या तो मेरे ख़तों में सिर्फ़ तुम हो ,
या फिर ख़त जैसा कुछ भी नहीं !

जानती हो ...
कभी- कभी मन करता है ,
कि लिफाफे पर तुम्हारा पता लिख कर उसके भीतर एक कोरा कागज़ रख दूँ ।
भरोसा है कि ज्यूँ ही तुम उसे छूओगी मज़मून खुद-ब-खुद उभर आएगा ।
खाली कहाँ रहता कुछ भी ...
रिश्ते निर्वात नहीं होते ।
देखो न,
हम सब अपना-अपना पहिया थामे हुये एक खेल खेल रहे हैं ....
“किसी से दूर जाने का
किसी के पास आने का”
पूरा ज़ोर लगा कर धकियाते हैं, पर पहिया टस से मस नहीं होता ।
और फिर अचानक ,
पहिया Unlock होकर अपनी रफ़्तार में लपेट कर हमें गोल-गोल घुमा देता है ।
यकायक हम जहाँ थे, वहाँ से कहीं दूर पहुँच जाते हैं ।
कभी पुराने को याद करते हैं ,
तो कभी नए के साथ तालमेल बैठाते हैं ।
अरे हाँ ,
बैठाने से याद आया ।
तुमने गणपती बिठाये या नहीं ?
इस बार 365 दिनों वाला पहिया कुछ जल्दी घूम गया ना ?

तुम्हारा

देव