Wednesday, 17 June 2020

मेरी हर पुकार उत्सव बन जाती है





त्यौहार या उत्सव की जननी अभाव ही है प्रिये।
जो अभावों से घिरे हैं,
उन्हीं को उत्सव लुभाता है।
जिनके पेट भरे हैं...
उनका तो दिन दशहरा और रात दीवाली !

मेरा प्रेम भी तो
तुम्हारे अभाव की ही उपज है।
लोगों को लगता है...
कि तुम एक प्रेमिका हो,
जिसका अस्तित्व भी होगा !
मगर मुझे पता है
कि तुम एक शून्य हो
जिससे मैं मुहब्बत करता हूँ !!!
शायद इसीलिए,
मैं तुमको पुकारा करता हूँ
और मेरी हर पुकार उत्सव बन जाती है।

तुम्हें खोजने मैं किसी मॉल में नहीं जाता !
अक्सर पुरानी गलियों, वीरानों या जंगलों में
तुम्हारी तलाश में निकल पड़ता हूँ।
केवल तब ही...
कोई चमत्कार होता है
और जीवन से मुख़ातिब हो उठता हूँ।

कल भी ऐसा ही हुआ
तुम्हारी तलाश में
शहर के सबसे पुराने बाज़ार में गया।
वहाँ उत्सव था...
मेरे अभावों को पूरित करता !

समय से पहले शुरू हो चुकी सर्दी
एक दिन पहले हुई बारिश
और आ चुके त्यौहार की दस्तक़ !
शॉल-नुमा चादर ओढ़े,
कान पर मफ़लर लपेटे
धानी-बताशे बेचते,
दूसरों का त्यौहार मनाते
अभावग्रस्त (?) लोग....!
ख़जूर की झाड़ू , टोकनियाँ और सूपड़े बेचते
.....ठिठुरे हुए लोग !
रंग इतने....कि जीवन रोशन हो जाये।

चार साल पहले की दीवाली याद आ गई।
जब तुमने,
काले, लाल और केसरिया पट्टों वाली साड़ी में
कोहनी तक लंबी बाहों वाला ब्लाउज़ पहने
एक तस्वीर भेजी थी।
तुम्हारे चेहरे के बिल्कुल सामने
एक दीप जगमगा रहा था
और तुम
अपना बायाँ हाथ
कान और गाल के बीच में रखे
ग्रीवा तिरछी किये
... मुस्कुरा रहीं थीं।

हमेशा की तरह तब भी मैंने
तुमसे नहीं कहा,
पर उस दिन,
फफक-फफक कर रोया था।
क्योंकि मेरे पास
सिर्फ तुम्हारी तस्वीर थी,
तुम कहीं नहीं थीं !

मगर आज...
सफ़ेद शॉल वाली ये अम्मा,
लाल गुलबंद कनपटी पर बाँधे ये आदमी...
इन दोनों को देखकर,
तुम्हारा वही रूप याद आ गया।
लगा,
मानो तुम यहीं मेरे पास हो।
उसी रूप में दीया थामे,
मुझे दुलरा रही हो।

सोचता हूँ...
ये उत्सव,
मुझ जैसों के लिए ही तो हर साल आते हैं।
शायद इसीलिए,
साल-दर-साल साँस ले पाता हूँ।
दीपावली का जगमग प्यार..

तुम्हारा
देव




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