स्मृतियों में पनाह लेते
विभ्रांत वर्तमान का दौर है ये !
एक ऐसा दौर,
जहाँ दार्शनिक विदूषक
और बौद्धिक, भांड हो चले हैं।
ये मत समझ लेना
कि किसी एक के लिए कह रहा हूँ,
यहाँ तो सब के सब, एक से हो चले हैं।
आज बड़े दिनों के बाद
जब तुमने फूलों की तस्वीर भेजी
तो सुक़ून मिला;
लेकिन साथ में 'हैप्पी मॉर्निंग'
क्यों लिख दिया।
अजीब सा एहसास है
कि भीतर उठते हुए तूफ़ान से
जूझने के लिए,
प्रेम नाकाफ़ी सा लगने लगा है।
पता नहीं क्यों...!
बीता हुआ कल महिला-दिवस था
आने वाला कल धुलेंडी है।
इन दो दिनों के बीच,
आज कितना विभ्रांत हूँ मैं !
इस बार का फ़ागुन अजीब है
पेड़ों पर पलाश के फूल हैं
मगर उनमें वो बात नहीं।
नन्हीं कलियाँ खिले बग़ैर ही
रूखी-सूखी लग रही हैं...
और वातावरण में महुए की गाढ़ी, मादक महक भी नहीं।
आज सुबह अचानक
ऑस्कर वाइल्ड की वो कहानी याद आ गई।
बुलबुल,ग़ुलाब और प्रेमी
वाली !
तड़पते प्रेमी की कसक देखकर
बुलबुल ने अपने दिल के भीतर
कांटा गहरा धंसा कर
अपने ख़ून से, सफ़ेद गुलाब को लाल
रंग में रंगा !
लेक़िन इसकी अहमियत
कोई नहीं समझ पाया।
शायद इंसान होता ही ऐसा है
.....ना-शुकरा !!
और शायद इसीलिए,
प्रकृति चाहकर भी उसका साथ नहीं दे पाती।
अरे...
मेरी इन बातों के बीच
तुम्हारी आज की तस्वीर तो
कहीं पीछे छूट गई।
कितनी प्यारी है ये तस्वीर...
अनगढ़ जंगलीपन का एहसास देती फुलवारी।
सबसे आगे होली के रंगों वाले फूल
उसके ठीक पीछे, कँटीला ग्वारपाठा
बायीं तरफ़ से आती सूरज की रोशनी
कुछ पीले इठलाते फूल
सामने एक तना... शायद चम्पा का !!
पीछे छोटे-छोटे सदाबहार
और सामने...
शांति के लिए रिरियाते सफ़ेद फूल !
आह...
कितनी उलझन है
तृप्ति और प्यास के बीच !
मेरी प्यास क्या है
ये भी नहीं पता मुझे !!
लेक़िन तब भी चाहता हूँ
कि तृप्ति मिल जाये।
तुम तो ब्रह्माण्ड को अपना दोस्त बताती हो ना !
फिर उस तक
मेरी बात क्यों नहीं पहुँचातीं ?
कहो अपने ब्रह्माण्ड से
कि रंग कभी फीके न पड़ें।
प्रेम का कोई मख़ौल न उड़ाये
और प्रेमी कभी हताश न हों।
और..
बस... और कुछ नहीं।
तुम्हारा
देव
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