Friday, 19 June 2020

बोला करो न कुछ....मेरे लिए भी ऐसा




याद है देव !
पिछली सर्दियाँ...
ऐसे ही तो दिन थे वे
गुलाबी सर्दी की दस्तक़ वाले।
...जब एक दुपहरी
तुमने मुझे तस्वीर भेजी थी।
तस्वीर उस क़िताब की
जिसे तुम उन दिनों फिर से पढ़ रहे थे।
क़िताब पर लरजती, सर्द दुपहरी की पीली धूप
तुम्हारे गोबू-गोबू हाथ
और एक अजीब सा रूमानी मगर उदास एहसास !

'यही सच है.. '
क़िताब अपने नाम से ज़्यादा
तुम्हारी परिस्थिति को सार्थक कर रही थी
तब सिर्फ एक मुस्कुराहट भेज दी थी मैंने
मगर एक तीख़ा एहसास तारी हो गया था मुझ पर
और तस्वीर सहेज ली थी
...आज का ख़त लिखने के लिये।

सच तो ये है देव
कि हमसब अपना-अपना सच छिपाए फिरते हैं।
याद करो वो दिन
हमारी पहली मुलाक़ात वाला
उँगलियों में सिगरेट भींचे हुए तुम
बॉब मार्ले को सुन रहे थे ...
"No women, No cry"
और जब मुझे सामने देखा
तो इस तरह सिकुड़ गए
जैसे कछुआ ख़ुद को समेट लेता है।

अच्छा एक दास्तां सुनो
एक लड़की की दास्तां !
जो मिली थी मुझे उन्हीं दिनों
अपने प्रेमी को लेकर बड़ी परेशान थी।
या यूं कह लो
कि अपनी ही सोच से आक्रांत थी।
मुझसे कहने लगी
"बड़ा हल्का क़िरदार है मेरे प्रेमी का
पतंग जैसा हल्का...
कटी हुई पतंग की तरह
कभी उस छत पर
तो कभी इस छत पर जा बैठता है वो
और मैं..."
फिर मन ही मन बुदबुदाने लगी वो
"सब जानती हूँ... कौन कौन हैं.....
नाम भी पता हैं मुझे"
और भी जाने क्या क्या !
एक क़माल की बात बताऊँ देव
उस समय मैं तुम्हारी भेजी हुई
इसी तस्वीर को देख रही थी
यही सच है...

सुनो ओ देव
तुम कभी क्यों नहीं कहते कुछ
...मेरे बारे में ऐसा !!
मैं भी तो उड़ती फिरती हूँ
यहाँ से वहाँ, उधर से इधर
जंगल, नदी गाँव में
देश-देश की सैर को
बोला करो न कुछ....मेरे लिए भी ऐसा !
इतने चुप्पे क्यों हो ?
महफ़िल में तो बड़ा बोला करते हो
मेरे आगे जाने क्यों तुम....

पिछली सर्दियों में जब
अपनी बीमारी के साथ
तुम मेरे शहर आये थे
कितना चाहा था मैंने तब, तुमसे मिलना
और तुम हो कि
सर्द-धीमी आवाज़ में
अपने बीमार होने की बात कहकर
पूरे तीन दिन रुके
और बिना बताए चले गए।
क्या तुमने ये सब
छाती पर पत्थर रखकर नहीं किया
बोलो...

तुम्हें ऐसा क्यों लगता है
कि प्यार सिर्फ सुख का ही लेना-देना है
दर्द बाँटने से प्यार और बढ़ता है पीहू
समझा करो ना !

तुम्हारी
मैं !



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