हम नहीं जानते
कि कौन सा पल
हमेशा के लिए
एक याद भर बन के रह जाने वाला है।
इसलिए अनजाने ही
जीवन भर....
हम सिर्फ़ यादें संजोया करते हैं।
क़माल देखो
जब मधुर पलों
का गुच्छा
गुलदस्ता बनकर सामने आने लगता है।
तब तक एक भरा-पूरा जीवन
सिर्फ याद बनकर रह जाता है।
वे दिन..
क़तई ऐसे नहीं थे।
लेक़िन...
उन दिनों की बात
बहुत कुछ, इन दिनों जैसी थी।
उदासी...
इतने भीतर तक तारी थी
कि आँसू ,
सिसकियों का साथ छोड़ चुके थे।
दो जिस्म, एक जान होने के बाद
जब अलग हुआ करते हैं
बड़ी ख़तरनाक शल्यक्रिया से गुज़रा करते हैं तब !
ख़ून नहीं निकलता
ख़ून जलता है, भीतर ही भीतर !
तिनका तिनका जोड़कर
घोंसला बनाते प्रेमी युगल !
जितना जटिल और सुंदर घोंसला
उतनी ही ग़हरी पिरोई हुई आस्थाएँ !
ये घोंसला
बया के घोंसले जैसा था
ख़तरनाक जगह पर भी, अत्यंत सुरक्षित !
पहाड़ी कुँए की मुँडेर
और
पथरीली चट्टान पर उगे पेड़ की
लटकती हुई शाख़ पर बना हुआ।
इस घोंसले ने कई ख़्वाब संजो रखे थे अपने भीतर...
नीड़ के निर्माण की कहानी जो भी हो
उसकी टूटन मगर सैलाब लाती है।
.....दर्द का सैलाब !
ये नहीं पता
कि किसने पहले कही थी
अलग होने की बात !
मगर ये ज़रूर पता है
कि अलगाव ने
दोनों को तोड़ दिया था।
ज़िद बच्चों की सी हो
तो बहुत प्यारी लगती है।
ज़िद जब बड़ों की बन जाए
तो अहंकार आड़े आ जाता है।
और उस पर...
यदि वो प्रेमी हों
तो फिर....
आह ख़ुदाया !
क्यों तू प्रेम के धागे में
विरह की गाँठ लगा देता है
कुछ लोग गाँठ को हदबंदी मान लेते हैं
कुछ लोग गाँठ को खाई समझ बैठते हैं
और कुछ,
गाँठ को खोलने की क़ोशिश में
एक पूरी उम्र
ख़र्च कर देते हैं।
वो भी रोई थी
ये भी सिसका था
जाने कौन सी गाँठ थी
कि एक हाथ,
दूसरे के आँसू नहीं पोंछ पाया !
दूसरा हाथ,
पहले की पीठ नहीं सहला पाया !
दोनों के बीच
एक साझा कमरा था
उसी कमरे में
जुदाई से ठीक पहले
एक बैग रखा था।
जो कि, पहले ने दूसरे को
दिया था।
कब दिया था ?
तब दिया था...
..जब कि जीवन प्रेम था !
जबकि जीवन का
निशानियों में तब्दील होना बाक़ी था।
आँसुओं से भीगी,
जब वो पानी पीने उठी
शायद तब... !
सिसकियाँ रोके हुए,
जब वो दूसरे कमरे में गया
शायद तब... !
इन दो लम्हों के बीच ही कभी
किसी एक ने
बड़े प्यार से देखा था
दूसरे का बैग।
सुरुचियों से लबरेज़
तिनका-तिनका जोड़ने वाले दिनों की
नायाब निशानी !
और तब...
काँपते हाथों से
क्लिक कर के सहेज ली थी
उस बैग की तस्वीर।
गर्म उदास दिनों,
और जेठ की तपती रातों के लिए।
इस आस में
कि शायद कुछ तल्ख़ यादें
हमेशा के लिए धू-धू कर जल जाएँ।
कभी-कभी
यूँ भी सोचता हूँ
कि देह छोड़कर जाने वाली जुदाई
आसान हुआ करती है
देह में रहकर,
परे हो जाने वाली जुदाई से।
तुम भी तो कुछ कहो ना
कब तक मैं ही !
...सिर्फ़ मैं ही
कब तक कहता रहूँ।
तुम्हारा
देव
No comments:
Post a Comment