Wednesday, 17 June 2020

बस इतना ही तो चाहा था तब





"अब उम्र की ढलान उतरते हुए मुझे,
आती है तेरी याद तुझे कैसे भूल जाऊँ।"
लड़कपन और जवानी की दहलीज़ थी वो उम्र
तभी प्यार हुआ था मुझे
दुष्यंत की गज़लों से।
अक्सर ये सोचा करता था
कि आख़िर इस आदमी को
दर्द से ही मुहब्बत क्यों है !

और अब...
वो गूढ़ गंभीर बातें
कितनी सीधी सरल होकर
मेरे सामने आने लगीं हैं।

तुम कहती हो
कि मेरा प्यार चुक गया है
इसलिए अब मैंने ख़त लिखने छोड़ दिये।
तुम्हारी बातों को सोचकर
मैं हताशा से भर उठता हूँ
और तभी...
मेरे क़रीब दुष्यंत कुमार आकर बैठ जाते हैं।
"चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गयी पाँवों की,
सोचो कितना बोझ उठाकर मैं इन राहों से गुज़रा।
सहने को हो गया इकट्ठा इतना सारा दुःख मन में
कहने को हो गया कि देखो अब मैं तुमको भूल गया।"

तुम्हें बताया नहीं
पर उन दिनों मैं हस्पताल में भर्ती था।
लोग, रंगों के त्यौहार का
बेसब्र इंतज़ार कर रहे थे
और मैं ... !
मैं रंगीन सलाईन बॉटल
सिर पर लटकाए लेटा हुआ था।
नली का एक सिरा मेरी नस में धंसा हुआ था
किसी कमी की आशंका को
पूरा करता हुआ सा।

बस इतना ही तो चाहा था तब
कि तुम एक बार मुझे देख लो।
सो वीडियो कॉल की बात कही।
मगर तुम...
कितनी रुख़ी हो गईं थी तब !
किसी खुरदरी शिला सी।
-"रहने दो,
वैसे ही ठीक है।"

- "कैसे ?"(मैंने छटपटा कर पूछा था)

-"फ़ोन पर।
यूँ ही बात करो फ़ोन पर।"

और मेरे भीतर
आकार लेने से पहले ही
कुछ फट पड़ा था फिर से।

ठीक कहती हो तुम
बावरा हूँ मैं !
नहीं आता मुझे, अपनी बात कहना।
मगर तुम्हें क्या होता है ?
जो तुम
इतनी निर्मम हो जाती हो !!

कुछ भी कहने से,
सकुचाता हूँ मैं !
कि कहीं
तुम  ये न कह दो
"कि हमारे सोचने का तरीक़ा बिल्कुल अलग है।
कि जुदा-जुदा हैं हम दोनों।"

मगर हाँ,
कभी-कभी दिल करता है
कि तुम आकर
थाम लो मेरी  थरथराती बेचैनियों को !

पता है आज क्या हुआ ?
मेरी कलम का एक हिस्सा टूट गया
और मैं...
इस अंदेशे से घिर गया
कि जज की कलम भी तो
मृत्युदंड देने के बाद
तोड़ दी जाती है।
तो क्या मेरी कलम का टूटना भी
कोई संकेत है
किसी अदृश्य का !

ये सोच ही रहा था
कि मुझे तुम दिखाई दी
मेरी बातों पर
ठहाका लगा कर हँसती हुईं
और मैं...
तुमको ख़त लिखने बैठ गया !

अच्छा ये तो बताओ
कि तुम कैसी हो ?

तुम्हारा
देव



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