दुःख
में सने हुए
चुटकीभर
दिनों को रोते हम,
सुख
से सजे हुए
मुट्ठी
भर दिन भूल क्यों जाते हैं !
अक़्सर
कहती हो ना
कि
मैं,
ग़ज़ल
लिखते लिखते मर्सिया पढ़ने लग जाता हूँ।
सच
कहूँ,
ऐसा
मैं जानबूझ कर नहीं करता;
और
जो ख़ुद-ब-ख़ुद होने लगता है।
उसे
रोकने की कोशिश भी नहीं किया करता।
उस
दिन जब,
तुमने
ये कहा
कि
तुम मेरे जन्मदिन पर नहीं आओगी
तब
मैंने स्वीकार कर लिया था
कि
नहीं ही आओगी।
फिर
केक भेजने की ज़रूरत ही क्या थी ?
वैसे
भी मेरी परवरिश
तुमसे
बहुत अलग तरह हुई है।
बचपन
में माँ,
तिथि
के अनुसार धनतेरस को मेरा जन्मदिन मनाती थीं।
घर
पर उसे बर्थडे नहीं, बरसगाँठ कहा जाता था।
इसे
तुम वर्षगाँठ का तद्भव मान लो।
ललाट
पर लम्बा सा तिलक,
उस
पर चिपके चार-पाँच अक्षत
हाथों
में नारियल
और
कटोरी में मोहन-भोग
अरे
वही गेहूँ के आटे का हलवा !
ये
भी सच है
कि
तुमसे मिलने के बाद ही,
मैं
केक-कल्चर को समझ पाया।
उससे
पहले मेरी झिझक ने
केक
काटने से मुझे हमेशा रोके रखा !
बारिश
अब विदा हो चुकी है।
तीख़ी
धूप,
श्राद्ध
वाले क्वांर के दिनों की याद दिला रही है।
रातें
कानों में कहती हैं
कि
कार्तिक आ गया....
और
मेरा मन घबराता है
कि
दीवाली के बाद
जब
उत्सव ख़त्म हो जाएँगे
तो
मन का उत्साह कैसे सहेजूँगा....
कि
तभी चहलक़दमी करते दुष्यंत क़रीब आ बैठते हैं
"क्या
भरोसा काँच का घट है किसी दिन फूट जाए
एक
भूली सी कहानी है अधूरी छूट जाए !"
ख़ुद
को जब समझा-मना कर
जैसे-तैसे
ठौर पाता हूँ
तो
तुम विचलन से भर देती हो।
"हमारा
प्यार भी बस
फ़ॉर्मेलिटी
बनकर रह गया है।
कभी
फ़ोन पर बात कर लो, कभी मुलाक़ात कर लो
और
कभी व्यस्तता का बहाना कर दो।"
यही
कहा था न तुमने !
इस
बात पर जब मैं तुम्हारे गले लगकर
फफक
पड़ा था,
तब
मेरी पीठ सहलाते हुए
तुम
सांत्वना दे रहीं थीं...
"अरे
मैं तो तुमको बस ऐसे ही उकसाती हूँ,
ताकि
हमारा प्यार सुलगा रहे।"
मैं
तुम्हें कभी बता ही नहीं पाया
कि
ऐसी सुलगाहट...
मुझे
भीतर से कितना जलाती है !
इस
बार जन्मदिन पर तुम नहीं थीं,
तुम्हारा
भेजा हुआ केक था।
सुबह
साढ़े दस से, रात
साढ़े नौ तक
ऑफिस
में बैठा रहा।
रात
को तुम्हारी फेवरेट रेड वाइन
और
होटल का खाना मेरे साथी थे।
रात
बारह बजे के बाद
जब
दिन पूरा हुआ
तो
फिर से असुरक्षाबोध ने मुझे घेर लिया !
लगने
लगा
कि
ये दिन गुज़र क्यों गया !
चाहे
अकेलेपन से सराबोर था
लेकिन
तब भी...
वो
दिन मेरा था !!!
और
जो अपना होता है
उससे
बिछड़ना
सुई
की नोक पर पाँव धरने जैसा होता है।
बचपन
की याद
अब
उतना नहीं रुलाती !
मौत
का डर भी
वैसा
नहीं सताता !
....बस
बैठे-बैठे उदास हो जाता हूँ।
एक
बात मानोगी...
हो
सके तो धनतेरस पर चली आना
खुशियों
की लंबाई थोड़ी बढ़ जाएगी !
तुम्हारा
देव
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