आज की सुबह भीगी हुई थी
याद है पिछले साल...
आज ही के दिन
विश्वरंगमंच
दिवस पर
मॉरफ़ोसिस खेला गया था।
....मेरे अपने शहर में पहली बार।
किसी ने आज फ़ोन करके कहा
कि आज फिर अख़बार में तुम्हारे नाटक की ख़बर आई है।
पिछली 27 मार्च और आज 27 मार्च !
कितना अंतर...!
माँ कहती हैं
"भविष्य का पता पहले से चल जाये
तो इंसान जीये कैसे !"
एक मैदान हुआ करता था
वहाँ अब पानी की बड़ी सी टंकी बन रही है
....सीमेंट वाली !
देख रही हो,
ये बड़े-बड़े पाइप्स
और पतझड़ में झर चुका एक पेड़।
विरह भी ऐसा ही होता है
पतझड़ में झर चुके पेड़ जैसा..
..जब ठूँठ बनकर रह जाती है ज़िन्दगी।
तब मिलन की बेला हरियाली लाती है
लेक़िन बिछड़ चुके पत्ते फिर कभी नहीं आते।
हर बार नए हुआ करते हैं।
ठीक ऐसे ही हम भी...
हर बार बदलते हैं
हर विरह - हर मिलन में !
प्रेम,
पारे जैसा नहीं, पानी जैसा होता है।
हम आर-पार देख सकते हैं प्रेम के !
उसे हलक में डाल कर गटकने पर
भीतर ज़हर नहीं जाता,
वरन तृप्ति मिलती है कहीं गहराई में।
और यदि खुला छोड़ दो,
तो भाप बन उड़ जाता है प्रेम
अपने बारीक़ निशान छोड़कर।
हवा या मिट्टी में मिलकर
ज़हर नहीं फैलाता प्रेम !
यूँ भी लगा करता है
कि एक यक्षिणी हो तुम !
जिसका सिर्फ एहसास भर होता है मुझको,
जिसका कहीं कोई अस्तित्व भी नहीं
लेक़िन सोचने भर से,
मेरे आस-पास आ बैठती है जो !
संकेत मिलने लगते हैं
तुम्हारी मौज़ूदगी के।
पर्दे का अचानक से हिलना
अचानक चारों ओर
एक अलौकिक ख़ुशबू का फैल जाना।
एक ऐसी ख़ुमारी...
जो पूरे एक सौ दैहिक मिलन पर भारी पड़े।
लोगों की निग़ाह में
आइसोलेशन में रह रहा हूँ
मगर सिर्फ तुम जानती हो
कि मैं तो तुम्हारा सानिध्य जी रहा हूँ..
अस्तित्व-विहीन सानिध्य !
दरअसल,
रात लंबी नहीं होती
सुबह का इंतज़ार शिद्दत से हुआ करता है।
इसीलिए हर मिनिट
हमको बहुत भारी लगने लगता है।
गुज़र जाएँगे
विरह से भरे पतझड़ वाले ये दिन !
फिर से शाख़ पर
नई कोपलें लहलहायेंगी।
हाँ,
तुम्हारे और मेरे भीतर की शाखाएं वही रहेंगी
...लेक़िन पत्ते नए आ जाएँगे।
मिलन की एक और बेला
इंतज़ार में गुज़र गई
फिर भी मिलन हो गया
और एक मिलन...
...अब भी बाक़ी है।
तुम्हारा
देव
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