आज फिर...
उसी नंबर से मिस-कॉल आया,
लगातार सात कॉल किए मैंने उसके बाद !
मगर घंटी घनघनाती रही बस....
हाँ,
एक रिकॉर्डेड संदेश ज़रूर उभरता रहा बार-बार
जिसे सुनकर,
मैं समझ गया;
कि ये तुम ही हो !
तुम्हारे प्रांत की बोली
अब समझ आने लगी है मुझे।
कितना अच्छा है
कि हम समकालीन हैं;
कि हम समकालीन हैं;
नहीं तो कैसे बन पाता मैं, तुम्हारा देव !
और तुम भी तो फिर
‘तुम’ नहीं रहतीं।
जानता हूँ,
समझदारी की उम्र में चाहा है तुमने मुझको !
वरना लड़कपन में तो तुम
उस शायर की दीवानी थीं
जो तुम्हारे जन्म से भी पहले
कुछ गीत, कुछ नगमे सुनाकर
हमेशा के लिए चला गया;
यौवन की दुपहरी में....!
अब लगता है
कि अच्छा ही है
तस्वीरों से प्यार करना भी।
खुशी के सारे सबब,
हम तस्वीर के नाम कर देते हैं
और गमों के लिए,
ख़ुद को क़ुसूरवार मान लेते हैं।
यक़ीन मानो...
मेरी तड़प को तुम,
इस जनम में नहीं समझ पाओगी।
हर बार बेकल हो उठता हूँ
कि जैसे....
आख़िरी चंद बूंदें बची हैं स्याही की
और एक पूरी गाथा
लिखनी बाक़ी है अभी !
कि जैसे...
हाशिये भर कागज़ पर
ज़िंदगी उकेरनी है पूरी !
हर बार कोई
इतना खुश तो नहीं रह सकता
जितना कि वो दिखता है
या दिखने की कोशिश करता है।
तुम तो बड़ी समझदार हो प्रीति !
फिर क्यों इस फेर में पड़ गईं ?
ये लमहा....
जो फिसल रहा है
मुट्ठी में बंद रेत की मानिंद;
यही तो बस अपना है।
फिर-फिर वही गलती क्यों कर बैठती हो ?
कि किसी और की मुक्ति के लिए,
अपने पुण्य दे देती हो !
और तो और
अंजुरी में जल भरकर,
संकल्प भी ले लेती हो।
मगर मैं ऐसा नहीं....!
सच कहता हूँ
मैं बिलकुल भी नहीं, तुम जैसा
!
मैं जी लेना चाहता हूँ
हर एक लमहा;
संकल्प और विकल्प के पार आकर !
इसीलिए....
आज फिर ‘नी गॉर्ड’ पहना
आज फिर मैंने ‘बाइक’ उठाई
आज फिर माइलोमीटर की सूई ‘सवा-सौ’ के ऊपर हुई
आज फिर ‘तुम’ बहुत याद आयीं।
सुनो...
आज की रात मुझे सोने मत देना
इतने मिस-कॉल करना
कि मेरी नींद उड़ जाये
कि फिर मैं चंद बूंद स्याही से,
हाशिये भर कागज़ पर
एक पूरी गाथा लिखने के लिए छटपटाऊँ
मगर लिख न पाऊँ।
करोगी ना ऐसा ?
मेरे लिए... !
तुम्हारा
देव
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