Thursday 28 January 2016

प्यार बाँटता है वो, प्रसाद बनाकर !



बेबसी यूँ भी एक शब्द है बस
ख़ुद बेबस हो लो वो अच्छा
किसी और की बेबसी पर मगर
बार-बार बेबस होते रहो
ये भी कोई बात हुई भला....
तुम ही कहो !

मेरा वो दोस्त
जो अक्सर गले मिलते वक़्त
मुझे ज़मीन से आधा फीट ऊपर उठा लेता है।
वो बेबस है सखी....
या शायद उसे देखकर
मैं बेबस हो गया हूँ।
वजह जानती हो,
...प्यार !
कमाल है न ?

कुछ प्रेमिकाएँ विचित्र होती हैं
एक पल को सपनीले संसार की सैर कराती हैं
दूजे पल मुँह फेर लेतीं हैं
बताती भी नहीं ...
कि क्यों, कि क्या और कैसे !!
नर्म-दिल है मेरा दोस्त
मगर अब सूख गया
भीतर से कहीं।
करीने से पलस्तर किया सीमेंट
तरी और पानी के बगैर
चटकने लगता है ना जैसे  
ठीक वैसे ही !

कहता कुछ नहीं
बस जब-तब मेरे पास आकर बैठ जाता है।
हम दोनों घंटों बैठे रहते हैं,
एक ही कमरे में चुपचाप।
मैं तुमसे चैट किया करता हूँ
और वो ...
अपनी प्रेयसी (?) के पुराने मैसेजेस पढ़ा करता है।  
कभी मेरी निगाहें
उसकी पनियल आँखों से टकराती हैं
तो वो बच्चों सा खिल उठता है।
पहले मैं ख़ुद को उस पर थोपता था
अब मैंने उसे खुला छोड़ दिया है।
अब हम मर्म को नहीं छूते
बस जीते हैं।
वैसे भी तो हर दिन
और-और सिकुड़ रही है
....डोर साँसों की !

रेल्वे प्लैटफ़ॉर्म की वो बेंच
जहाँ वे दोनों साथ-साथ बैठे थे कभी
वहाँ जाकर वो अक्सर कली रख आता है
...गुलाब की !
वो मिठाई,
जो उसकी प्रेयसी को प्रिय थी;
उस मिठाई को वो अब चखता भी नहीं
मगर हाँ,
किलो भर खरीद कर
मंदिर के बाहर बैठे लोगों को बाँट आता है।
प्यार बाँटता है वो
प्रसाद बनाकर !

कल साँझ वो मेरे घर आया
जल्दबाज़ी में था
बोला,
“जैसे हो वैसे ही गाड़ी में बैठो।”
पूछने पर भी कुछ नहीं बताया,
गाड़ी चलाता रहा बस।
भीड़ से संकरी हो रही सड़क पर
मजबूती से स्टिअरिंग थामे।  
थोड़ी देर बाद,
हम वृद्धाश्रम में थे।
वृद्धाश्रम.....
जहाँ पुरुष बहुत कम
और औरतें अधिक हैं।
थाली में भोजन परोसकर
मेरे हाथों से वो सबको दिलवाता रहा
और मैं यंत्रवत सा....

ज़्यादा कुछ नहीं
एक वृद्धा याद है।
जिसने खाना भी नहीं खाया
बस थोड़ी सी साबूदाने की खीर पी थी
और फूट-फूट कर रोयी थी।
फिर डॉक्टर का पर्चा देकर बोली थी
“ये दवा बुलवा दो।”  
मैं वहीं रुका रहा
और वो दवा ले आया।

“आज कुछ विशेष है क्या?
विदा होते वक़्त मैंने पूछा।
वो पहले हँसा
फिर मेरे हाथों पर हाथ रखकर बोला
"आज उसका जन्मदिन है।"
जाते-जाते वो मुझे
गले की खिच-खिच दूर करने वाली
दो गोलियाँ थमा गया।  
शायद मेडिकल-स्टोर वाले ने पकड़ा दी होंगी
रेज़गारी बनाकर।

वो जा चुका है
और मैं...
अपने कमरे में होकर भी नहीं हूँ।
सुनो !
क्या कोई ऐसी गोली है
जो जीवन की खिच-खिच को दूर कर सके?
हो तो बस एक दे दो ना,
मेरे यार के प्यार की ख़ातिर !

तुम्हारा
देव  



3 comments:

  1. Replies

    1. शुक्रिया संजय भास्कर साहब !
      :)

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    2. शुक्रिया संजय भास्कर साहब !
      :)

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