बावरे पीहू,
कितने-कितने संकेत भेजता है कोई
आस-पास तुम्हारे;
तब भी तुम देखो समझ नहीं पाते
ब्रह्माण्ड के इशारे !
रे देव,
प्रेम या तो होता है,
या नहीं होता।
प्रेम में बीच का कुछ नहीं;
और यदि है भी
तो वो बस प्रेम है।
दरिया किनारे, टेढ़े-मेढ़े रस्तों
पर
मेरा हाथ थामे जब तुम चलते हो
तब हौले से
जो हवा हमारे चेहरे को भिगोती है
उसमें पानी रहता है
मगर दिखता नहीं !
बस हमारे चेहरे पर चिपक जाता है
बड़ी नफ़ासत से।
प्रेम भी तो इतना ही तरल होता है...
ठोस नहीं होता प्रेम।
ठोस तो अक्सर हथियार होते हैं
जिनका इस्तेमाल किया जाता है।
अब तुम ये न पूछने लगना
कि जिस हवा में पानी नहीं घुला होता
क्या वो प्रेम से रीती होती है....
पगलू मेरे !
जानते हो...
प्रेम तो भीतर ही भीतर बहता है।
भूमिगत जल के अजस्र स्रोत की तरह !
कभी वो बाहर आ जाता है
तो कभी इक द्वार की तलाश में
कुलाँच लगाता रहता है।
हाँ कभी-कभी
किसी विलुप्त नदी कि नाईं
अदृश्य भी हो जाता है।
मगर तब भी
मौजूद रहता है
बहुत भीतर की परतों में कहीं
बिछड़ गए अधूरे हिस्से की तलाश में !
जिस दिन सूर्य उत्तरायण हुए
उस दिन आयी थी
मैं तुमसे मिलने
तिल और गुड़ लेकर !
सोचा था,
उत्सव मनायेंगे .... मिलकर।
मगर फिर से वही हुआ
तुम नहीं मिले !
शायद ऑफिस गये थे
या अपनी ही मौज में कहीं भटक रहे थे।
मैं रुक गयी, थोड़ी देर वहीं।
तभी जाने कहाँ से
दो पतंगें लहराती आयीं
और बैठ गईं
बादाम के पेड़ पर।
जाने कब इनको जिस्म मिला
जाने कब इनमें जान आयी
और देखो तो
लहराती हुयी साथ-साथ;
यहाँ आकर अटक गईं।
कुछ बातें शायद
अधूरी छूट गयीं थीं।
जिन्हें पूरी करना ज़रूरी था इस रूप में !
इसीलिए देखो
ये मिल गईं इस जगह पर।
और एक तुम हो
कभी-कभी मैं बिलकुल नहीं समझ पाती
कि तुम खुद में खोये रहते हो
या दुनिया में गुम रहते हो।
अपने आस-पास तो तुम कभी देखते ही नहीं !
जागो मोहन प्यारे
तरल हो तो फिर बहते क्यों नहीं...
ठिठके रहोगे तो जम जाओगे !
और हथियारों से तो
नफरत है न तुमको
हूँ ?
.... बोलो !
अच्छा सुनो,
घर के बाहर आओ
बिलकुल अभी।
बादाम के उस पेड़ के क़रीब जाकर
उसके तने को छू लो
एक प्रेमिल स्पर्श खुद में भरकर
इससे पहले
कि महीन ताव से बनी वो पतंगें,
फटकर फड़फड़ाने लगें;
उनके सानिध्य को जी लो !
कुछ सानिध्य सुखद होते हैं
और दुर्लभ भी !
समझ गये ना ...
तुम्हारी
मैं !
बेहतरीन कहा...बहुत अच्छा
ReplyDeleteआपका हार्दिक आभार संजय साहब
Deleteआपका हार्दिक आभार संजय साहब
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