Thursday 30 October 2014

एक दिन तुम सिर्फ प्यार रह जाओगे !

प्रिय देव ,

ये पहली बार है जब मैं तुम्हें इतनी जल्दी ख़त लिख रही हूँ ।
हमेशा अपना सोचा हो ये ज़रूरी नहीं
और जो सोच रखा हो वही सही हो, ऐसा भी तो नहीं !
इस धनतेरस पर तुमसे मिलने आई तो बड़ा अच्छा लगा।
ख़ुद को खाली कर रहे थे तुम ....
बरसों से जोड़ा हुआ तिनका-तिनका एक ही बार में ख़ुद से अलग कर रहे थे ।
थोड़े दुखी थे !!!

होता है ,
हमारी सहेजी हुयी चीज़ें अक्सर हमसे जुड़ जाती हैं बहुत गहरी ।
लेकिन कभी न कभी तो उनसे अलग होना ही होता है ।
तुम ही कहो ...
नवजात भी तो नाभिनाल से अलग होकर ही जीवन पाता है ।
हर फल के पकने का एक समय है
फिर उसे डाल से अलग होना ही पड़ता है ।

इन बीस साल पुराने कागज़ों से इतना लगाव रखोगे,
तो किसी ज़रूरतमन्द को प्यार कैसे दोगे ?
साझा करने की भी तो एक सीमा होती है देव !
इसलिए हर बार थोड़ा-थोड़ा खाली हो जाया करो ......
प्यार और-और बढ़ता जाएगा, भरता जाएगा
भीतर.....
कहीं बहुत भीतर ।
फिर एक दिन तुम सिर्फ प्यार रह जाओगे !
सारे दुनियावी, सामाजिक टॉक्सिक्स निकल जाएंगे ।

देखो न कितना मज़ेदार है ये सब,
कि एक बच्चा अपने बचपन में अक्सर बड़ा होने का ख़्वाब देखता रहता है।
बड़ी व्यग्रता से ....हर हफ़्ते, हर महीने !
कभी आईने में, तो कभी लोगों के सामने दिखाता, जताता रहता है
कि वो अब बच्चा नहीं।
और जब सच में बड़ा हो जाता है, तो बचपन की तस्वीरें देख-देख रोता है ।
...फिर से बच्चा बनने के लिए !
यही है जीवन .....
जानते सब हैं, मानते नहीं बस !

और ये क्या लगा रखा है ?
तुम्हारे घुटने के दर्द को हौवा न बनाओ देव।
दर्द होता ही सहने के लिए है।
हाँ ये ध्यान रहे कि लापरवाही से कोई बनती बात न बिगड़े।
लेकिन बार-बार बैसाखी पर हाथ फेरना,
फिर सूनी आँखों से आसमान देखना ...
क्या है ये सब !
ठीक हो जाओगे विश्वास रखो ।

याद है वो बच्चा ?
जो तुम्हारे घर से दायीं गली में रहता है ।
बचपन में पतंगबाज़ी करते हुये बिजली के हाई-वोल्टेज तार ने उसका सीधा हाथ ले लिया था ।
तब भी वो एक हाथ को लहराते हुये दौड़ता-भागता रहता था ।
वो बच्चा अब बड़ा हो गया है ।
आज मैंने उसे कार चलाते देखा ....
दोनों हाथों से !!!
कृत्रिम अंगों में भी जीवन आ जाता है देव .....
अगर मन में वैसा भाव हो ।

एक बात मानोगे .....
इस बैसाखी को भी अटाले वाले को दे आओ ।
तुम्हें अब इसकी ज़रूरत नहीं ।
और हाँ ,
वो नीली शर्ट जो मैं तुम्हारे जन्म-दिन पर लायी थी,
तुम पर बड़ी फब रही है ।
एक काला टीका ज़रूर लगा लेना ।

तुम्हारी

मैं !




Thursday 23 October 2014

आज कुछ माँगूँ तुमसे ...




बस अभी – अभी विदा किया है उन्हें ....
कन्हैयालाल नाम है उनका !
ऑपरेटेड घुटना फिर सताने लगा था
सो हस्पताल गया, एक्स-रे कराया और एक विचित्र सा रीतापन लेकर घर चला आया ।
तभी बाहर के बड़े दरवाज़े पर आहट हुई ।
देखा तो कन्हैयालाल खड़े थे ।
किराये की सायकल पर सीढ़ी को लादे हुये !
सीढ़ी , जो मैंने खरीदी थी कल शाम .......
आज उसे मेरे घर पहुँचाने आए थे पचास रुपियों की ख़ातिर ।

बातों में बात निकली
और निकलती चली गयी ।
कहने लगे ....
” नखलऊ का हूँ,
पर बहुत पहले आ गया था आपके शहर ।
जहाँ आपका घर है वहाँ तो जंगल हुआ करता था तीस साल पहले ।
लोग इधर आने में भी डरते थे । ”

फिर बात करते – करते पच्चीस साल पीछे जा पहुँचे और वहीं ठहर गए ।

“ तीन बेटियाँ थीं,
छोटी वाली तो पंद्रह महीने की ही थी, जब बीवी छोड़ गयी हमेशा के लिए ।
जो भी आया है उसे जाना है
....पर यूँ तो न जाये कोई !
हाँ,
फिर शादी नहीं की,
बच्चियों की चिंता थी । ”

अचानक लगा कि कन्हैयालाल मुझे देख कर भी नहीं देख रहे हैं ।
मेरा पूरा बदन सिहर उठा ....
क्या तुम्हारे साथ कभी ऐसा हुआ है ?
कि कोई बिलकुल नज़दीक खड़ा होकर तुमको देखे
पर उसकी आँखें तुम्हें देख ही नहीं रही हों ।

अभी मैं सहज होने का जतन कर ही रहा था कि वे दो आँखें भीग गईं ।
और भीगीं भी ऐसे कि पानी का एक भी कतरा नहीं ।
सिर्फ एक एहसास ...
पनियल होकर भी खुद से छिपती आँखों का ।

सुनो प्रिया .....
सखिया मेरी !
आज मैं रोया हूँ,
बहुत रोया हूँ ।
इसलिए नहीं कि किसी का दर्द नहीं देखा गया ।
इसलिए भी नहीं कि आज हस्पताल की लाचारी को एक अनजान शख़्स कुरेद गया ।
बल्कि इसलिए,
कि प्यार की बड़ी - बड़ी बातें आज निरर्थक लगने लगीं ।
यौवन , ताज़गी , गर्म साँसें , मचलता लहू ...
इस सब पर भारी है प्यार !

पंखुड़ी सी त्वचा,
बरसों की पगडंडी पार कर
जब सलवटों में सिमट जाये;
तब भी कुछ ऐसा रहता है, जो हर दिन जवान होता जाता है ।

आज कुछ माँगूँ तुमसे ...
मुझे इतना निर्मल कर दो
कि मेरा हृदय भी कन्हैयालाल जैसा हो जाए
कि एक दिन मैं तुम्हें खत लिखना भी बंद कर दूँ ।
पहले मेरा अस्तित्व मिटे,
और फिर मेरा नाम भी धुँधला पड़ जाए !
पर तब भी मेरा प्यार हर दिन जवाँ सा होता जाये
... और – और जवाँ ।

तुम्हारा

देव  





Thursday 16 October 2014

“ बोलो न सखी ... कब होगा ऐसा ? ”


पता नहीं क्यों ...
कुछ चीज़ें होती हैं, क्योंकि उन्हें होना होता है ।
और कुछ चीज़ें कभी नहीं होतीं,
फिर भी हम उनके होने की राह तकते रहते हैं ।

अभी एक दिन ...
सुबह करीब सवा पाँच बजे नींद टूट गयी ,
अचानक महसूस हुआ कि बाएँ हाथ में कोई स्पंदन नहीं है ।
घबरा कर उठ बैठा ;
दायें हाथ से बायाँ हाथ संभाले हुये देर तक थपथपाता रहा ,
पहले सुई की सौ नोकों सी झुनझुनी हुई
फिर धीरे-धीरे निर्जीव पड़े हाथ में सामान्य संवेदनाएँ लौटीं !

अक्सर ....
शायद बचपन से ही ऐसा होता आया है
कि मेरा बायाँ हाथ दबा रह जाता है,
मेरे ही शरीर के नीचे
नींद में .....
और मैं उठ बैठता हूँ
भारी, बेजान हाथ में फिर से जान डालने की जुगत में ।
खैर !
उसके बाद नींद नहीं आई और मैं बाहर आँगन में चला आया ।

तुमने सुबह चार से छह के बीच हरसिंगार को झरते देखा है ?
देखना कभी ....
बड़ा अलौकिक लगता है
इन दिनों तो चमेली भी बहार पर है ।
दोनों की मिली-जुली खुशबू मुझे तुम्हारी दुनिया में खींच ले जाती है ।
याद है ,
पिछले साल मैं तुम्हें हरसिंगार के फ़ोटो Whatsapp किया करता था
और तुम उन्हें अपनी dp बना लिया करती थीं ।

पिछले ही साल सितंबर में जब मैं तुमसे मिलने दिल्ली आया,
तो आँगन में झरे हरसिंगार भी चुन लाया था ।
मेरी फ्लाइट तो समय पर पहुंची, लेकिन तुम्हें देरी हो गयी ;
और वो फूल मेरी जेब में पड़े-पड़े ही मुरझा गए थे ।
पता है ...
मेरी जींस की पॉकेट पर उन हरसिंगार के निशान अब तक हैं ।
केसरिया डंठल वाले, सफ़ेद हरसिंगार !
जिनमें यूँ तो कोई खास खुशबू नहीं
पर महसूस लो तो महक उठे तन और मन दोनों।

इस शरद की पूनम पर मैं नर्मदा स्नान को गया था ।
नाव जब नदी के बीचों-बीच पहुँची तो तुम्हारा नाम ज़ोर से पुकारा ,
मगर आवाज़ दब कर रह गयी ।
नदी थी ना ....
पहाड़ों में आवाज़ दूर तक जाती है ।
अबकी जब मांडव जाऊँगा तो इको-पॉइंट से तुम्हें पुकारूँगा ।
कहते हैं कार्तिक के माह में नदी-स्नान का बड़ा महत्व है ।
दीपक बताता है
कि उसकी दादी पूरे कार्तिक हर सुबह नर्मदा में नहाने जाती थी ।
और वो किनारे पर बैठकर नदी की सतह से उठती हुयी भाप देखा करता था ।

सुनो ना .....
क्या ऐसा नहीं हो सकता ?
कि किसी कार्तिक की सुबह मैं भी नर्मदा किनारे जाऊँ,
देर तक सतह से उठती भाप को निहारूँ ....
और ज्यूँ ही सूरज पूरब में आये,
उसकी रश्मियों और उठती हुयी भाप के संगम से तुम बन जाओ !
जीती जागती तुम,
स्पंदित होती तुम !
जैसे कि हर थपथपाहट से मेरे बे-जान हाथ में जान आती गयी थी,
वैसे ही हर आती हुयी हिलोर तुम्हें साकार करती जाये ।
और जब तुम पास आकर मेरा स्पर्श करो ....
तब मैं तुम में घुल जाऊँ भाप बनकर ।
और फिर नदी की सतह पे ठहर जाऊँ ।

बोलो न सखी ...
कब होगा ऐसा ?
कुछ तो ऐसा हो कि ये जन्म सार्थक लगे
वरना जन्म-दिन का क्या ...
वो तो हर साल आता है
ऐसे ही ;
हर अक्टूबर, हर कार्तिक में ।
अरे हाँ ,
शुभकामनाओं में लिपटा तुम्हारा गुलदस्ता मैंने अपनी मेज पर सजा लिया है ।
शुक्रिया सखी...

तुम्हारा

देव












Thursday 9 October 2014

“ ज़िंदगी हसीन है ..... है न ! ”





प्रिय देव,

शब्दों से खेलते – खेलते ख़ुद से क्यों खेलने लगते हो ?
यूँ न बह जाया करो ।
जब मैं कहती हूँ “ just flow ;  तो उसके माने ये नहीं कि तुम बहक जाओ !
याद है वो दिन ...
जब तुम मेरा हाथ थाम कर रोशनी में नहाये थे ।
क्या कोई धरातल था ?
.....तुम्हारे पैरों तले !
नहीं ना ।
बताओ तब भी तुम नहीं लड़खड़ाए ...
तो फिर अब गिरने से क्यूँ डरते हो ?
हादसे होते ही सबक लेने के लिए हैं ।
और जो सबक ले लिया, तो फिर वो हादसा हसीन हो जाएगा ।
हसीन का मतलब तो पता है ना !!!
हाँ,
तुमसे बेहतर भला कौन जानता है ।
हा हा हा

खैर....
वो लाल घाटी याद है तुम्हें ?
सफ़ेद फूलों वाली ...
उस रस्ते पर, उस घाटी में फिर से विचर आओ ।
मेरे बगैर ..... या फिर मेरे साथ !
मन की उड़ान उड़कर ।
संदेह वो दीमक है जो प्यार को खोखला करती जाती है, धीरे – धीरे ।
कमाल है,
तुम्हें मुझ पर तो कोई संदेह नहीं, मगर ख़ुद घिरे रहते हो शक़ के दायरों में ।
और मेरी सीमा ये है
कि मैं तुम्हारे दायरे में दाख़िल नहीं हो सकती ।
एक अजीब सी लक्ष्मण-रेखा बना रखी है तुमने अपने चारों ओर ।
लक्ष्मण-रेखा ....
जो तुम्हारी रक्षा नहीं कर रही,
तुम्हें डोला रही है आस्था और अनास्था के बीच ।
बाहर आ जाओ देव,
सब कुछ लाँघ कर !

उधर देखो ...
एक झीनी सी खुशी छन कर आ रही तुम पर ।
पहले ही बड़ी महीन है,
उसे और नहीं छानो ।
अब तो फैलाओ आँचल
हथेलियाँ बहुत छोटी हैं समेटने को !

और वो छोटा सा चिड़ा ...
जो नवरात्र के पहले दिन अपना खोल तोड़ कर बाहर आया था,
दशहरे की  शाम उड़ कर बादाम के पेड़ पर जा बैठा ।
बादाम का पौधा,
जो हम दोनों ने मिल कर रोंपा था !
.... वो अब पेड़ बन गया है।
और अबकी रुत तो उसमें हरे – हरे कच्चे बादाम भी लगे हैं ।
यक़ीन मानो वो फल पकेंगे ।
मीठी गिरीयों वाले उन पक्के बादाम को जब फोड़ोगे ,
तब वही चिड़िया का बच्चा आएगा तुम्हारे पास ...
उसके हिस्से की गिरी किसी और को ना दे देना ।
नहीं तो मैं रूठ जाऊँगी तुमसे ।
सच कहो ...
ज़िंदगी हसीन है
है न !
चलो हम भी उड़ चलें, इस डाल से उस डाल !

तुम्हारी

मैं !










Friday 3 October 2014

कई बार चाहा …..





जब – जब लगता है कि तुम्हें जान लिया,
तब – तब तुम एक पहेली बन जाती हो ।
कल रात ,
ठीक एक बजकर चालीस मिनिट पर तुमने अपने मोबाइल से फोटो लिया
और फ़ेसबुक पर लिख भेजा ......
“ये रास्ते भी नहीं सोते क्या कभी ?
तुम्हारे ख़यालों कि तरह !!! ”

उसके बाद तुम तो सो गयीं पर मुझे जगा दिया...
एक नया ख़याल देकर ।
जाने क्या सोचा करती हो,
आधी रात के बाद खिड़की पर खड़ी होकर ।

कभी – कभी लगता है कि अंधेरी रातों में तुम भी ढूँढती हो,
कोई तुम जैसा ...
वो,
जो जाग रहा है।
या फिर भाग रहा है, सुनसान सड़कों पर .... तेज़ और तेज़ !!!
ताकि पीछा करते विचार उसे पकड़ न पाएँ, जकड़ न पाएँ !
परसों रात भी तुम रोज़ की तरह खिड़की पर खड़ी थीं
और मैं तुम्हें दूर से निहार रहा था ।
नमी जब तुम्हारी आँखों से ढलक कर गालों पर ठहरने लगी तो मैं बारिश को कोसने लगा ।
अचानक याद आया,
कि अभी मई में भी तो यही हुआ था ।
तब मैंने उस नए एयरकंडिशनर को कोसा था ।

मैं अकुलाता हूँ तो तुम हँसती क्यूँ हो ?
कभी बुक-शेल्फ़ की तस्वीरें ले कर भेजती हो ,
तो कभी घंटों तक उस मोटी ज़िल्द वाली किताब के पन्ने खोल उँगलियों से जाने क्या टटोलती रहती हो ।
अक्सर लगता है
कि आँखों ही आँखों में कह रही हो
“ देव ,
क्यूँ मुझे समझने की कोशिश करते हो ?
सखी हूँ तुम्हारी ...
गति का तीसरा नियम नहीं ! ”
और फिर मैं ये सोच कर हँस पड़ता हूँ
कि मैं भी तो न्यूटन नहीं !

कई बार चाहा ,
कि तुम्हें नहीं देखूँ ,
तुमसे बात ना करूँ,
तुम्हें सोचना और जीना छोड़ दूँ ।
पर आँख बंद करते ही तुम मुझ पर तारी हो जाती हो ।
लोग कहते हैं ,
कि बढ़ती उम्र के साथ उमंग और प्रेम सिकुड़ जाते हैं ।
पर मुझे तो तुम पे फिर-फिर प्यार आता है ।

पता है ?
मेरे मन में अभी-अभी कौन सी हसरत जागी
कि आज रात एक बजकर चालीस मिनिट पर,
मैं तुम्हारी खिड़की के सामने वाली स्ट्रीट–लाइट के नीचे खड़ा हो जाऊँ ;
और ठीक एक बजकर पैंतालीस मिनिट पर,
तुम मेरे मोबाइल पर कॉल कर कहो ...
” कहाँ थे देव ?
मैं कब से तुम्हारी राह देख रही थी ! ”
बस...
उसके बाद स्ट्रीट-लाइट बुझ जाये तो भी गिला नहीं ।

तुम्हारा

देव