काल अपनी कसौटी पर
हर चीज़ कस लेता है।
मगर कभी,
प्रेम की गहराई नहीं परख पाता !
काल से परे है प्रेम !!
इसीलिए आज भी राधा, लैला, शीरी, साहिबा और मीरा
सब की सब समकालीन लगती हैं !
हाथों में तुम्हारे गहने लिए,
एक सुनार के पास गिरवी रखने जाता हूँ....
अपने प्यार की निशानी, वो गहने
जिनको सुनार बड़ी बेदर्दी से
एक चिकने काले पत्थर पर घिसने लगता है।
पत्थर के जिस्म पर
जगह-जगह सुनहरी चमकीली रेखाएँ उभर आती हैं।
ठीक तभी...
मेरे मन में दो विपरीत धाराएँ आपस में उलझ पड़ती हैं।
एक धारा कहती है .....
कि सोना एकदम ख़रा निकले, ताकि ज़्यादा क़ीमत मिल सके।
और दूसरी धारा ....
मुझे अपराध-बोध के गर्त में लिए जाती है।
पत्थर को हाथ में लेकर निहारता हूँ
तो उसमें तुम दिखाई देती हो
उन्हीं गहनों का श्रृंगार किए !
ख़ुद को दिलासा देता हूँ।
अपना ध्यान कहीं और लगाने के लिए
त्योहारों के बारे में सोचने लगता हूँ।
शरद पूर्णिमा, चाँद, करवा चौथ !!
ओह, ओह, ओह ......
जाने कब से चला आ रहा है ये सिलसिला
चाँद के निकलने तक....
भूखे रहने का !
दुआओं का, लंबी उम्र का !!
एक लड़की चुप-चुप सी ....
अधूरी आस लिये,
हर साल सिंगार करती है
कुछ खाती-पीती भी नहीं !
मगर जिसके लिये ये सब करती है,
वो कभी क़द्र नहीं करता !
दूसरी लड़की....
जो सबके सामने ठहाके लगाकर हँसा करती है
सजती भी है,
लेकिन भूखे रहकर लंबी उम्र वाली बातों को नहीं मानती।
कई-कई बार ...
हम कहीं होकर भी वहाँ नहीं रहते।
और अक्सर....
वहाँ पर पाये जाते हैं,
जहाँ मौज़ूद नहीं हुआ करते।
मेरा यक़ीन करो
कॉर्क की डाट लगी, काँच की बोतल के भीतर
छटपटाते पतंगे की तरह हो गया हूँ।
अपने भीतर इतना कुछ बटोर लिया,
कि अब लड़खड़ाने लगा हूँ मैं !
कोई जतन करो,
कि ‘टक्क’ की आवाज़ हो
और ये कॉर्क की डाट खुल जाये।
ताकि मैं,
भरपूर साँस ले सकूँ।
अरे हाँ,
वो सुनार कह रहा था,
कि कसौटी का ये पत्थर
जब पूजा-घर में रख दिया जाता है.....
तो इसको सब ‘शालग्राम’ मानकर पूजते हैं।
क्या ऐसा नहीं हो सकता,
कि हर कसौटी को कुमकुम-अक्षत लगा कर
आस्था से जोड़ दिया जाये...
ताकि लोग, परखने की बजाय प्रेम कर सकें !!!
बोलो ?
तुम्हारा
देव
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