Tuesday, 2 January 2018

ज़ंजीरों में जकड़े हुए से


भँवरे मेरे,
कहाँ हो ?
कई दिनों से मुलाकात नहीं हुई।
और देखो तो
आज तुम्हारी याद भी आई
तो फूलों का पराग चखती
एक मधुमक्खी को देखकर !
सोचने लगी
कि तुम भी यहीं कहीं
गुन्न-गुन्न करते
इस फूल से उस फूल पर मंडराते दिख जाओगे।
लेकिन नहीं.....
तुम यहाँ नहीं हो।
हो सकता है
किसी दूसरी बगिया में
कोई अनोखा फूल मिल गया हो तुमको....
चटकीला, पराग-रस से भरपूर।
बस,
यही सोचकर
मैंने तुमको नहीं पुकारा !!
कलम उठाई और अपनी बात
पाती पर उतारने बैठ गई।
वैसे एक बात बताओ
भौंरे कभी शहद क्यों नहीं बनाते ?
पराग-रस तो बहुत पीते हैं
फिर भी काले के काले रहते हैं।
और इस छोटी सी मधुमक्खी को देखो
कतरा-कतरा पराग इकट्ठा कर
मधु का निर्माण करती है।
उसका उपभोग भी कोई और कर लेता है,
और ये फिर
नये सिरे से अपने काम में जुट जाती है।
क्या स्त्री और पुरुष में सदा से
इतना ही अंतर होता आया है ?
एक भौंरे और मधुमक्खी के जितना.....
अरे हाँ, याद आया
मधुमक्खियाँ तो अपनी रानी की बात मानती है
तुम सोचते होंगे
कि काश ,
उनका भी कोई राजा होता।
पता नहीं तुम क्या सोचते हो और क्या नहीं;
मगर मैं अक्सर एक बात सोचती हूँ
कि क्या कभी कोई पुरुष, स्त्री को समझ पाया है ?
जानते हो देव,
प्रेम कभी पुराना नहीं होता
और प्रेमी कभी भूतपूर्व नहीं हुआ करते।
गोपियाँ पागल नहीं थीं
पागल तो उद्धव थे
जो गोपियों को ये समझाने गये
कि कान्हा को भूल जाओ !
दरअसल ना,
पुरूष डरपोक होते हैं;
स्वतंत्र विचरण करते हुए भी
जाने कितनी ज़ंजीरों में जकड़े हुए से !
और स्त्रियाँ...
उनके बंधन सिर्फ़ ऊपरी होते हैं
..... तन के बंधन !!!
स्त्रियों का मन
कभी किसी का ग़ुलाम नही होता।
इसीलिए तो हर औरत के भीतर
एक शहज़ादी ज़िंदा रहती है।
और शायद इसीलिये
हर पुरुष अपने अवचेतन में
कहीं न कहीं ख़ुद को ग़ुलाम समझता है।
मैं अक्सर कहा करती हूँ ना....
दो वाक्यों के बीच पढ़ना सीखो,
दो शब्दों के बीच सुनना सीखो।
मेरी आज की बात को
ऐसे ही समझने की कोशिश करना।
और हाँ,
एक बात मानोगे....
कुछ भी दिल पर मत लेना !
तुम्हारी
मैं!



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