देव मेरे,
तुम्हें क्या लगता है
कि यदि तुम
मुझसे कुछ छुपाओगे
तो मैं जान नहीं पाऊँगी ?
पहले उमस की छटपटाहट
और अब सीलन की चिपचिपाहट !
लगता है,
जैसे हरदम
दो पाटों के बीच
सिमट जाने की जुगत में लगे रहते हो।
हाँ मानती हूँ
कि जो कुछ तुम्हारे साथ गुज़रा
खौफ़नाक था वो सब !
मगर क्या वो ठहरा रहा ?
दिन बीतते न बीतते गुज़रा नहीं ?
देखो,
यूँ न कसमसाया करो।
और चाहे तुम मानो या न मानो
लेकिन हर घटना
एक संदेश लेकर आती है।
संदेशों को समझना शुरू करो।
उसके बाद
ग्लानि से भर उठना भी बंद कर दोगे।
याद है,
बहुत पहले
एक कागज़ दिया था तुमने
अपने हाथों से एक संदेश लिख कर मुझे !
"कबीर तू हारा भला,
जीतन दे संसार।"
कितना रूमानी ख़याल है....
तब,
जबकि हर कोई जीत रहा हो।
उस वक़्त,
सिर्फ़ तुम हार जाओ।
अहा....
हारने के बाद की वो शांति !
महसूस की है न तुमने ?
अब बनने मत लगना
जानती हूँ मैं
उस शांति की साँय साँय को
तुमने जीया है ख़ुद !
सुनो ओ बावरे....
जो तुमने
ख़ुद अपने हाथों से लिखा था
उसको तुम ही भूल गये ?
कैसे ...?
बताओ भला !
अभी कोई तीन दिन पहले
घनेरे काले मेघों की गर्जना के बीच
छत पर खड़ी होकर
वही कविता दोहरा रही थी।
जो तुमने कभी मुझको
झमाझम बारिश के बीच
भीगते हुए सुनाई थी।
"बिजली चमकी
पानी गिरने का डर है।
वे क्यों भागे जाते हैं
जिनके घर हैं।
वे क्यों चुप हैं
जिनको आती है भाषा।
वह क्या है
जो दिखता है धुआँ धुआँ सा !"
किसकी है ये कविता...?
कवि का नाम भूल गई मैं !
शायद केदारनाथ सिंह ?
याद से नाम लिख भेजना
तुम न भूल जाना।
अरे हाँ,
ये कहने के लिये ख़त लिखने बैठी थी
कि व्यर्थ की बातें न सोचा करो।
जब भी मन
व्यथित होकर सिकुड़ने लगे
तो बेहिचक
मेरे पास चले आया करो।
जानते हो ना...
मेरे प्रेमी हो तुम !!!
तुम्हारी
मैं
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