मौसम थोड़ा नम है आज !
लेकिन दूर-दूर तक बारिश नहीं...
एक किताब उठाई,
उसको पढ़ने का जतन किया।
मगर दूर कहीं पर बजते रेडियो ने
मेरे मन को जाने किस बीहड़ में भटका दिया।
चाहकर भी शब्दों को नहीं पढ़ सका
अक्षरों को नहीं टटोल पाया।
"खिलते हैं गुल यहाँ
खिल के बिखरने को,
मिलते हैं दिल यहाँ
मिल के बिछड़ने को।"
यूँ लगने लगा
कि एक उम्र, एक अनुभव के बाद
शब्द या तो थोथे पड़ जाते हैं
या बग़ावत कर बैठते हैं हमारे साथ !
जैसे किसी अन-ट्यून्ड गिटार की स्ट्रिंग्स
सुरों से रश्क़ कर बैठी हो।
अब शब्दों से वो अर्थ नहीं निकलता
जो मैं कहना चाहता हूँ।
मेरी बात के सिवा
हर बात करते हैं ये शब्द।
इंसान की बीमारी, जरावस्था तो ख़ूब देखी सुनी है।
लेकिन इस शाब्दिक पक्षाघात का क्या करूँ ?
जिससे इन दिनों रु-ब-रु हो रहा हूँ मैं !
सुनो....
मैं अनपढ़ हो जाना चाहता हूँ।
भूल जाना चाहता हूँ सारे कठिन शब्द
बिसरा देना चाहता हूँ गूढ़ सिद्धान्त और दर्शन
दंतव्य-तालव्य, अनुस्वार-अनुनासिक....
क्या ये सब इतने ज़रूरी हैं ?
मेरे पास नहीं है
तुम जैसा बौद्धिक मन।
इच्छा होती है
कि या तो किसी तट को पकड़ कर
बहाव से बहुत दूर चला जाऊँ।
या फिर ऐसे ही डूब जाऊँ
बिना किसी छटपटाहट !
अपने अस्तित्व को भूलना चाहता हूँ।
शोर करते,
आँखों के सामने नाचते,
आपस में लड़ते-झगड़ते ये शब्द ;
और असहाय सा उनको देखता मैं !
इस क़ैद से बाहर आना चाहता हूँ अब !!
हताश या निराश नहीं हूँ
बस एक यथार्थ से गुज़र रहा हूँ।
ऐसा यथार्थ...
जिसको ना पहले जाना,
ना ही जिसके बारे में कुछ सुना !
तुम समझ रही हो ना ?
वैसे भी अक्षर,
ज्ञान और प्रेम के पर्याय तो नहीं ?
हाँ,
एक माध्यम ज़रूर हो सकते हैं।
किसी अनपढ़ को प्रेमपत्र लिखते
और किसी गूँगे को गुनगुनाते हुए देखना है मुझको अब !
तुम कहती हो ना
कि ये भी एक अवस्था है।
मैं कहता हूँ
कि इस अवस्था का होकर रह जाना चाहता हूँ अब !
एक बात और...
किसी डॉक्टर की दरकार नहीं मुझे !
मेरी अपनी है ये स्थिति
इससे मुझे प्यार है।
ऐसा हो गया हूँ तब भी,
तुम्हारा प्रेमी हूँ।
इस हालत से उबरूंगा भी
तो तुम्हारी प्रीत के सहारे !
कितनी ख़री....
तुम्हारी प्रीत !
..... बिना मिलावट वाली !
तुम्हारा
देव
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