बड़े करीने से जमे हुए पाँच पत्थर
मानो एक शिला को तोड़कर
उसके सिसकते हुए हिस्सों को
तड़पती संवेदनाओं के साथ
सजा दिया हो
...प्रकृति के बीचोंबीच !
ताकि जब कोई इनको छुए
तो उसके साथ
ये अपना दर्द बाँट लें।
आज फिर उसी बागीचे में गया
लेकिन उन पत्थरों पर बैठने की हिम्मत
फिर नहीं जुटा पाया।
पाँच बड़े पत्थर
उनके चारों ओर
पीली घास का एक छोटा घेरा,
पैरों तले हौले-हौले कुचली गयी पीली घास
और जाने कितनी संवेदनाओं के हमराज़
.....ये पाँच पत्थर!।
हर रोज़ सुबह
कोई बूढ़ा आता होगा
जो इन पत्थरों पर बैठकर
पिछली रात की करवटों
और सामने पड़े विशाल दिन
के बीच उभर आई
अतीत की सलवटों को सुधारता होगा।
तभी उसे रिटायरमेंट के बाद की ज़िम्मेदारियाँ
याद आने लगती होंगी।
और फिर
घिसटते कदमों से
वो उन्हीं साठ, पैंसठ या सत्तर साल पुराने रस्तों पर
चल पड़ता होगा।
दोपहर को लंच टाइम में
एक प्रेमी आकर
इन पत्थरों पर बैठता होगा
हाथों में 'आज की ताज़ा ख़बर' वाला
आठ पन्नों का इवनिंगर लिये।
निगाहें अख़बार पर कम
और गेट पर अधिक रहती होंगी।
तभी उसे,
ज़ुल्फ़ें संवारती, महक से सराबोर
माशूका आती दिखाई देती होगी।
रूठने-मनाने के दौर के बीच
एक चिट्ठी पढ़ी जाती होगी
फिर कोई डर सताता होगा।
और बुझते मन से चिट्ठी फाड़ दी जाती होगी।
उसके बाद
इकलौते टिफिन में से
कुछ प्रेमिल चटपटे कौरों का आस्वाद लिया जाता होगा
अचानक.....
घड़ी पर निगाह पड़ते ही
दो पत्थरों के बीच
अख़बार फंसाकर
दोनों उठकर खड़े हो जाते होंगे।
फिर देर शाम....
एक बुजुर्ग दम्पत्ति
थोड़े अनमने से आकर
इसी पत्थर पर बैठ जाते होंगे।
जिनको देखकर यह कहना मुश्किल
कि एक दूजे से रूठे हुए हैं
या कि ज़िंदगी से!
दोनों एक दूसरे की तरफ पीठ किये......
औरत बच्चों को देख
खिलखिलाती होगी।
और आदमी
उस अख़बार को खोल
शाम की ताज़ा ख़बर से
अपना जी बहलाता होगा।
उठते समय
एक का घुटना दुखता होगा
दूसरा उसकी ओर हाथ बढ़ाता होगा
और फिर साथ-साथ
एक मौन विश्वास लिये
दोनों घर को चले जाते होंगे।
सुनो,
आज फिर......
मैं बागीचे में गया तो था
लेकिन आज भी
उन पत्थरों पर बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पाया
कि कहीं मेरे स्पर्श से
उन अजनबियों की निर्बाध संवेदनाओं में
कोई ख़लल न पड़ जाये।
कुछ टूटी हुई शिलायें
संवेदनाओं की सबसे अच्छी सुचालक होती हैं
है ना.....
तुम्हारा
देव
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