Tuesday 2 January 2018

‘वो’ याद आती है मुझको और आती रहेगी !




बचपन की यादों का वो कस्बा ...
बस्ती से कुछ दूर
हाइवे के पास वाली चौड़ी पगडंडी
जिसके बायीं ओर
पेड़ों और झड़ियों का झुरमुट
झुरमुट के उस पार एक बंगला
जिसे कस्बे वाले 'कोठी' कहा करते थे
कोठी.... जहाँ पर ‘वो’ रहती थी।

अरुणिमा....
हाँ,
यही था उसका नाम !
जो मुझे बहुत बाद में पता चला।

कम ही दिखाई देती थी 'वो' !
उसके दिखने का समय भी लगभग निश्चित हुआ करता था।
सुबह, सूरज चढ़ने के पहले
और संध्या गोधूलि के समय।
विक्टोरियन स्टाइल का
ऊँची दीवारों वाला बड़ा सा बंगला
विशाल लॉन,
तरह-तरह के फल और फूल वाले पेड़-पौधे !

कितने सपनीले थे,
वे स्कूली दिन ... !
एक सहपाठी ने बताया था मुझे
अरुणिमा के बारे में।
और ये हिदायत भी दे डाली थी
कि उसके सामने मत चले जाना
नहीं तो...
उसके देखने भर से
तुम भाप बनकर कहीं गुम हो जाओगे !

बातें बे-सिर-पैर की थीं
लेकिन जिस तरह से कही गयी थीं 
उनपर भरोसा करना लाज़मी था।


एक दिन उत्साहित होकर
मैं कोठी तक चला गया
मगर,
मूँछों वाले चौकीदार की गुर्राहट सुनकर
उल्टे पैर भाग आया।
फिर कई दिनों तक मैंने
बगीची वाली उस कोठी का रुख नहीं किया।

बड़े दिनों की छुट्टियाँ चल रही थीं
थोड़ा उत्साहित और थोड़ा सहमा सा मैं
पेड़ों का झुरमुट पार कर
कोठी के मुख्य द्वार तक चला आया
और तभी...
मेरे मन की मुराद पूरी हो गयी।
जिस सुंदरी के अब तक सिर्फ किस्से सुने थे
वो मेरे सामने साक्षात खड़ी थी !

उस दिन पहली बार मैंने जाना
कि दिल.....
एक खास तरीके से कैसे धड़कता है।


वो मुझे देखकर मुस्काई
फिर इशारे से अपने पास बुलाया
मेरा हाथ पकड़ कर बंगले के भीतर ले गई
और ताज़ी प्लम-केक खिलाई।
मैं सकुचाया सा बैठा रहा
वो मुझे देख-देख हँसती रही।
उसके बाद
जाने कब और कैसे
मैं वहाँ से उठकर घर चला आया
मुझे पता नहीं चला।

बहुत खुश था मैं उस दिन
सच कहूँ तो जीवन में पहली बार महसूस की थी
.... वो अजीब सी खुशी !



लोग कहते थे 
कि ‘वो’ दो ही त्योहार मनाती थी।
दीवाली पर दीये जलाती,
और क्रिसमस पर केक बनाती थी !

कुछ महीनों तक
उसके पास जाने का मेरा सिलसिला बदस्तूर रहा।
फिर परीक्षा का दौर शुरू हो गया।
गर्मी की छुट्टियों में
नाना-नानी के घर चला गया।
वहाँ से आकर
अगली कक्षा की
ताज़ी किताबों की खुशबू लेने में मसरूफ़ हो गया।

एकदिन रिम-झिम बूँदा-बाँदी के बीच
कुछ काली लंबी गाडियाँ
अरुणिमा के घर की ओर जाते देखीं
तो मैंने भी अपनी साइकल का रुख उधर कर दिया।
अजीब सा उदास माहौल था
काले कपड़ों में कुछ औरतें
एक अधेड़ औरत को संभाले थीं
जो बिलख-बिलख कर रो रही थी।
मैंने बहुत खोजा
पर अरुणिमा नहीं दिखी !
समझ नहीं पाया कि क्या हुआ।
मगर मेरा दिल विचित्र तरह से डूब गया।
मैं हताश सा चला आया।

अगले दिन स्कूल के लगभग सभी पीरियड खाली थे
न तो प्राचार्य आए थे, ना ही क्लास-टीचर !
सब बच्चे खुसर-पुसर कर रहे थे
ज़्यादा कुछ सुन-समझ नहीं पाया !
बस इतना पता चला
कि अरुणिमा नहीं रही।
कल उसका देहांत हो गया।
मैं स्कूल-बैग को कक्षा में ही छोड़कर
रोते हुये घर भाग आया।

अगले दो-तीन दिन मैं बस रोता रहा
.... सबसे छुपकर !
पूरे तीन महीने बाद
जब मैं उस कोठी की ओर गया
तो वो पूरा बंगला
जैसे खण्डहर हो चुका था।
मुरझाए पेड़-पौधे, झूलता हुआ ताला
और धूल भरी दीवारें !!

सुना किसीसे बहुत बाद में
कि अरुणिमा जब मरी
तो उसको लेने परियाँ आयीं थीं !
उसके कमरे का आईना भी
ठीक उसी पल चटख कर टूट गया था।

आज इतने सालों बाद भी
दिसम्बर के बड़े दिनों में
प्लम-केक लाना नहीं भूलता मैं !
‘वो’ याद आती है मुझको
और तब तक आती रहेगी
जब तक मैं रहूँगा !!!

तुम्हारा
देव




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