देव मेरे,
कहाँ हो ?
कितने दिन हुए
इतना लंबा इंतज़ार .....
लेकिन तब भी,
कोई एक ख़त तक नहीं !!
पता है मुझे ...
मसरूफ़ियत तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ती,
लेकिन तुम इतने चुप
पहले नहीं हुये कभी।
कहाँ गयी तुम्हारी वो बेचैनियाँ ?
या फिर अब तुम भी ....
प्रेमी मेरे,
इन बेचैनियों से ही तो
ये संसार चल रहा है।
कलियों को खिलने की,
पानी को बहने की,
धरती को घूर्णन की ...
सबकी अपनी-अपनी बेचैनियाँ !
अभी जब एकांत में
मैंने तुमको सोचा,
तो अनायास ही
वो रेवड़ीवाला याद आ गया।
पहले-पहल जिसने
अपनी मीठी रेवड़ी का स्वाद जगाया
और फिर अचानक,
गायब हो गया।
बाद में जब लौटा
तो उसने अपनी रेवड़ियों के दाम बढ़ा लिये।
तुम न ऐसे बन जाना,
चस्का लगाकर, बदल जाने वाले।
प्रेमी हो तुम ...
प्रेमी ही रहना, व्यापारी न बनना !
अरे हाँ,
कुछ दिनों पहले
मैं घूमने गई थी,
यहाँ से बहुत दूर .....!
घूमते-घूमते एक मंदिर में चली गयी।
प्रसाद लिया, पर चढ़ाया नहीं
वहीं मंदिर के प्रांगण में
पंछियों के लिये बिखेर दिया।
तभी जाने कहाँ से दो गिलहरियाँ चली आईं।
उनमें से एक,
मेरे क़रीब आकर आँखों ही आँखों में बतियाने लगी।
इधर उधर फुदकती
थोड़ा सा मटकती,
मैंने एक दाना आगे बढ़ाया
पर उसने नहीं खाया,
मेरी हथेली को चूमा
और फिर चली गयी।
बड़ा अनोखा था उसका स्पर्श !
क्षण-भर को लगा जैसे,
वो नहीं ‘तुम’ हो !
आज ही लौटी हूँ
और ख़त लिखने बैठ गयी।
देव सुनो,
इश्क़ के इज़हार का
कोई निश्चित दिन नहीं होता।
जब, जैसे दिल करे
तब, वैसे लिखना।
...... मगर ख़त ज़रूर लिखना !
बाँध और बंधन से
परे हो चुके तुम ;
समझे हो !
इंतज़ार में....
तुम्हारी
मैं !
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