जब-जब अपने हाथों से
हरसिंगार लिखकर भेजा,
तब-तब मेरे आस-पास...
तुम्हारा प्यार झर गया !
नन्ही मेरी...
तुम्हारे कोमल स्पर्श के जैसे हैं
ये नर्मों-नाज़ुक पारिजाती फूल !!
जाने क्या हुआ है इस बार
क्वांर का महिना तो आया,
लेकिन अपने हिस्से की तीखी धूप
भूले से कहीं छोड़ आया।
मौसम पर एतबार करना तो चाहता हूँ,
मगर मौसम को ख़ुद ही पर एतबार नहीं।
यों भी इस बार
कम ही आए हैं हरसिंगार !
और जो आए,
उनको भी बारिश ने गला दिया !
याद है पिछले साल....
वो बूढ़ा और बूढ़ी आते थे,
जो रोज़ सुबह छह और सात के बीच
झरे हुये फूल तो बटोरते ही थे।
पेड़ हिला-हिला कर बचे-खुचे फूलों को भी
शाख से जुदा कर दिया करते थे।
लाख ख़ुद को रोका तब भी
एक दिन उलझ ही पड़ा था मैं उन दोनों से !
जाने किस देवता को
सवा लाख हरसिंगार चढ़ाने की
मन्नत मान बैठे थे वे दोनों !
और उसके पिछले साल...
हर दिन तड़के चार बजे उठ कर,
तुम अपनी मलमल की चुनरी
पेड़ के नीचे बिछा आती थीं !
फिर रोज़ सुबह हरसिंगार के फूलों को लाकर
अपनी स्टडी टेबल पर रख दिया करतीं,
और देर शाम को
कुम्हला गए फूल क्यारी में विसर्जित कर आतीं।
एक साइकल पर कई दिनों से लटका था
कच्च-कच्च करता
पारदर्शी प्लास्टिकिया रेन-कोट !
धूल की मोटी परत ने ओढ़ लिया था जिसको पिछले दिनों।
आज उस रेन-कोट का दर्द
बादलों ने पढ़ लिया,
और बारिश से पोंछ दी
दर्द वाली सारी गर्द !
बाहर जाने से इंकार करता
मुड़ा हुआ पहिया।
साइकल पर जगह-जगह, झर कर बैठे हुये हरसिंगार।
पैडल पर मुस्काता इकलौता फूल
हैंडल पर चिपका एक गीला पत्ता
सीट और कैरियर पर ताज़ा फूलों के बीच
इक्का-दुक्का गले हुये फूल !
अचानक याद आया,
पिछली बार इस साइकल को तुमने
पूरे तीन दिनों तक चलाया था।
इससे बातें भी की थीं।
देखो तो ...
ये भी बन गयी
तुम जैसी।
सहेज लिए इसने भी हरसिंगार !
लेकिन मैं....
अब तक बस 'मैं' ही हूँ।
कब बनूँगा मैं ?
तुम्हारे जैसा !
बोलो .....
तुम्हारा
देव
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