कई बार बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ
लेकिन उँगलियाँ साथ नहीं देतीं।
अँगूठा भी थकने लगता है।
....यूँ ही मुड़े हुए।
मन करता है
कि कलम उठाऊँ
और कागज़ पर,
आड़ी-तिरछी लकीरें उकेर
अच्छे से तह लगाकर तुमको भेज दूँ।
फिर जब तुम उस काग़ज़ को खोलो
तो वो जीता-जागता ख़त बन जाये।
अचानक एक कहानी कौंधने लगती है।
एक बच्चा....
लगभग पाँच साल का।
उस बच्चे का पढ़ा-लिखा मज़दूर पिता।
मटमैली जींस,
झीना पड़ चुका अधूरी बाँह का शर्ट
पटरियों पर दौड़ती एक रेलगाड़ी;
बच्चे को गोद में उठाये
रेलगाड़ी के साथ दौड़ता..... वो पिता !
विस्तारित हरा मैदान
घास चरती गायें।
"इन हाथों से ताक़तवर,
संसार में कुछ भी नहीं।"
पिता की ठोस बाहों में अटखेलियाँ करता बच्चा सोचता है।
फिर बढ़ी हुई दाढ़ी पर
अपने नर्म हाथ रगड़ते हुए अचानक रुक जाता है।
कुछ लोग उनके इर्द-गिर्द जमा होने लगे हैं।
सब मिलकर आग्रह करते हैं
"कोई धुन सुनाओ
बड़े दिन हुए।"
पिता बच्चे को गोद से उतार
बाजा हाथ में ले लेता है।
मुफ़लिसी के मर्म से
एक तान निकलती है
और वो बच्चा
विस्मयाभिभूत सा
ख़ुद से फिर प्रश्न करने लगता है।
"क्या सच में मेरे पिता इतने विराट हैं ?
क्या सच में इतना सौभाग्यशाली हूँ मैं ?"
और फिर बरसों बाद....
कैंसर से जूझता वही पिता !
अपने जीवन की आख़िरी शाम
अस्पताल के एक कमरे में
चंद लोगों से घिरा,
बहुत हौले स्वर में
एक धुन बजा रहा होता है।
और उसका बेटा
थोड़ी दूरी पर बैठा हुआ
ख़ुद से वही प्रश्न कर रहा है
बचपन के प्रश्न....
जो अब और अधिक स्पष्ट हो चुके हैं।
कहानियाँ शब्दों में खप कर
मन में बाक़ी रह जाती हैं
अक्सर....!!!
और फिर हर कहानी
आकार लिया करती है यथार्थ में
अपने पात्र स्वयं चुनकर !
यक़ीन मानो
मैं नहीं लिखता
कोई लिखवाता है मुझसे।
कितने अधूरे आयाम
पूर्णता की बाट जोहते रहते हैं,
उचित माध्यम की तलाश में।
पिछले हफ़्ते की बात है
छुट्टी की दोपहर
बादलों के इंतज़ार में बैठा हुआ था,
कि तभी मेरे कानों में
एक अजीब सी सम्मोहक धुन गूँजी।
बाहर जाकर देखा
तो गिनी-चुनी बाँसुरियां साथ लिये
एक आदमी दिखा
मानो,
बंसी बेचने का भरम डालकर
कोई धुन सुनाने निकला हो।
पता नहीं क्या हुआ
मैं उसके ठीक सामने जा कर खड़ा हो गया।
मगर वो निर्लिप्त, निर्विकार सा
बाँसुरी में साँस फूँकता रहा।
बजाते-बजाते जब वो वहाँ से चल दिया,
तो मैंने गली के मोड़ तक
उसका पीछा किया।
फिर वो साईकल पर बैठ कर बढ़ चला
और मैं.....
उसके ओझल होने तक वहीं रुका रहा।
कई बार ऐसा होता है ना
कि हमारे भीतर ही कुछ रहता है
जो बाहर नहीं आ पाता
और कोई अनजाना आकर
हमारे ही सामने, हमको ही कुरेद कर
दूर चला जाता है।
और हम बस
साक्षी बने उसको देखा करते हैं।
बस....
ऐसा ही कुछ हुआ है मेरे साथ !
लब खुल नहीं रहे,
और भावों का उफ़ान अपने चरम पर है !
तुम्हारा
देव
No comments:
Post a Comment