Tuesday 2 January 2018

मुक्ति मिटने में नहीं, बदलने में है !





देव सुनो,
दूर किसी दरवाज़े, किसी पेड़ से लटकती हुई
चाइम्स बेल की झंकार सुनाई दे रही है ?
ये आवाज़ें ....
इतनी ही दूर रहेंगी।
तुम इनका पीछा करोगे तब भी....
ये एक दूरी बनाए रखेंगी।
और फिर धीरे-धीरे लुप्त हो जाएंगी।

दरअसल ये आवाज़ें, आवाज़ नहीं लम्हे हैं।
गुज़श्ता साल के लम्हे !!
जो अब तुमसे विदा ले रहे हैं।

कभी दुःख की पुड़िया में लिपटा सुख
तो कभी सुख के कलेवर में लिपटा दुःख।

कभी-कभी,
कुछ चीज़ें इतनी अचानक हो जाती हैं
कि हम उनका हिस्सा होकर भी
बस दर्शक बने देखते रह जाते हैं।
और कभी-कभी
कुछ लम्हे इतने धीमे रेंग-रेंग कर निकलते हैं
कि उनके गुज़र जाने के बहुत बाद भी
उनकी छुअन महसूस होती रहती है।

पता है
अभी-अभी मैंने क्या महसूस किया !
सिगड़ी पर रखी, धुंआ उगलती एक केतली।
बंगाली साड़ी पहने एक युवती
और समीप खड़ा उसका प्रेमी।
कुर्ता पहने
सफेद हो रही अपने बालों की कलम पर हाथ फेरता
स्निग्ध त्वचा वाला 
......वो प्रेमी।

ज़रूरी तो नहीं
कि हर बार जब कोई स्वप्न बुनो
तो उसका एक निर्धारित स्वरूप हो।
अक्सर हमें समय की गति तो पता लगती है देव
मगर हम
ख़ुद को स्थिर मानने की भूल कर बैठते हैं।
हम...
जो जाने कितने प्रकाश वर्ष हर दिन चला करते हैं
भीतर ही भीतर !

एक बात बताओ,
जब-जब मैं तुमसे ये कहती हूँ
कि हम सब अपनी अपनी यात्रा पर हैं।
तब-तब तुम
इतने व्यथित क्यों हो जाते हो ?
बोलो....
मैं जानती हूँ
अकेली यात्राओं की कल्पना मात्र ही से
तुम सिहर उठते हो।
लेकिन ये तो सोचो
उस यात्रा की सिद्धि भी तुम्हारी होगी
और अनुभव भी सिर्फ तुम्हारा !
कुछ यात्राएं 
नितांत व्यक्तिगत होती हैं देव
जिसमें पहले क्रम पर भी हम ही हुआ करते हैं
और सबसे आख़िर में भी बस हम ही खड़े होते हैं।
लेकिन स्वीकारने से डरते हैं
पर डर कर भी क्या होगा
जो करना है
सो तो करना ही पड़ेगा ना !

कोई आर्त्र स्वर में पुकारता है
"मेरे पास ही रहना।"
जवाब में एक मद्धम स्वर उभरता है
"मैं हमेशा से तुम्हारे साथ हूँ।
यहाँ...
तुम्हारे भीतर !"

छटपटाहट की सीमा लाँघ कर
आँखों में सूनी तड़प लिये।
एक बार सिर उठाकर
आसमान की ओर देखना देव
तब जान पाओगे
कि मोक्ष जीते जी मिला करता है।
मुक्ति के लिए मिटना नहीं होता
हाँ,
रूप बदल जाया करते हैं अक्सर।

देखो तो,
सूर्य की ये किरणें
धुँए के अस्तित्व को उजागर कर रही हैं।
लोबान ने जल कर सुगन्ध बिखेरी
और फिर उसका धुंआ बादल बन गया।
बादल.... जो एक दिन
हम सब पर बरसेगा।
मुक्ति मिटने में नहीं देव
रूप बदलने में है।
समझे हो !

तुम्हारी
मैं !



‘वो’ याद आती है मुझको और आती रहेगी !




बचपन की यादों का वो कस्बा ...
बस्ती से कुछ दूर
हाइवे के पास वाली चौड़ी पगडंडी
जिसके बायीं ओर
पेड़ों और झड़ियों का झुरमुट
झुरमुट के उस पार एक बंगला
जिसे कस्बे वाले 'कोठी' कहा करते थे
कोठी.... जहाँ पर ‘वो’ रहती थी।

अरुणिमा....
हाँ,
यही था उसका नाम !
जो मुझे बहुत बाद में पता चला।

कम ही दिखाई देती थी 'वो' !
उसके दिखने का समय भी लगभग निश्चित हुआ करता था।
सुबह, सूरज चढ़ने के पहले
और संध्या गोधूलि के समय।
विक्टोरियन स्टाइल का
ऊँची दीवारों वाला बड़ा सा बंगला
विशाल लॉन,
तरह-तरह के फल और फूल वाले पेड़-पौधे !

कितने सपनीले थे,
वे स्कूली दिन ... !
एक सहपाठी ने बताया था मुझे
अरुणिमा के बारे में।
और ये हिदायत भी दे डाली थी
कि उसके सामने मत चले जाना
नहीं तो...
उसके देखने भर से
तुम भाप बनकर कहीं गुम हो जाओगे !

बातें बे-सिर-पैर की थीं
लेकिन जिस तरह से कही गयी थीं 
उनपर भरोसा करना लाज़मी था।


एक दिन उत्साहित होकर
मैं कोठी तक चला गया
मगर,
मूँछों वाले चौकीदार की गुर्राहट सुनकर
उल्टे पैर भाग आया।
फिर कई दिनों तक मैंने
बगीची वाली उस कोठी का रुख नहीं किया।

बड़े दिनों की छुट्टियाँ चल रही थीं
थोड़ा उत्साहित और थोड़ा सहमा सा मैं
पेड़ों का झुरमुट पार कर
कोठी के मुख्य द्वार तक चला आया
और तभी...
मेरे मन की मुराद पूरी हो गयी।
जिस सुंदरी के अब तक सिर्फ किस्से सुने थे
वो मेरे सामने साक्षात खड़ी थी !

उस दिन पहली बार मैंने जाना
कि दिल.....
एक खास तरीके से कैसे धड़कता है।


वो मुझे देखकर मुस्काई
फिर इशारे से अपने पास बुलाया
मेरा हाथ पकड़ कर बंगले के भीतर ले गई
और ताज़ी प्लम-केक खिलाई।
मैं सकुचाया सा बैठा रहा
वो मुझे देख-देख हँसती रही।
उसके बाद
जाने कब और कैसे
मैं वहाँ से उठकर घर चला आया
मुझे पता नहीं चला।

बहुत खुश था मैं उस दिन
सच कहूँ तो जीवन में पहली बार महसूस की थी
.... वो अजीब सी खुशी !



लोग कहते थे 
कि ‘वो’ दो ही त्योहार मनाती थी।
दीवाली पर दीये जलाती,
और क्रिसमस पर केक बनाती थी !

कुछ महीनों तक
उसके पास जाने का मेरा सिलसिला बदस्तूर रहा।
फिर परीक्षा का दौर शुरू हो गया।
गर्मी की छुट्टियों में
नाना-नानी के घर चला गया।
वहाँ से आकर
अगली कक्षा की
ताज़ी किताबों की खुशबू लेने में मसरूफ़ हो गया।

एकदिन रिम-झिम बूँदा-बाँदी के बीच
कुछ काली लंबी गाडियाँ
अरुणिमा के घर की ओर जाते देखीं
तो मैंने भी अपनी साइकल का रुख उधर कर दिया।
अजीब सा उदास माहौल था
काले कपड़ों में कुछ औरतें
एक अधेड़ औरत को संभाले थीं
जो बिलख-बिलख कर रो रही थी।
मैंने बहुत खोजा
पर अरुणिमा नहीं दिखी !
समझ नहीं पाया कि क्या हुआ।
मगर मेरा दिल विचित्र तरह से डूब गया।
मैं हताश सा चला आया।

अगले दिन स्कूल के लगभग सभी पीरियड खाली थे
न तो प्राचार्य आए थे, ना ही क्लास-टीचर !
सब बच्चे खुसर-पुसर कर रहे थे
ज़्यादा कुछ सुन-समझ नहीं पाया !
बस इतना पता चला
कि अरुणिमा नहीं रही।
कल उसका देहांत हो गया।
मैं स्कूल-बैग को कक्षा में ही छोड़कर
रोते हुये घर भाग आया।

अगले दो-तीन दिन मैं बस रोता रहा
.... सबसे छुपकर !
पूरे तीन महीने बाद
जब मैं उस कोठी की ओर गया
तो वो पूरा बंगला
जैसे खण्डहर हो चुका था।
मुरझाए पेड़-पौधे, झूलता हुआ ताला
और धूल भरी दीवारें !!

सुना किसीसे बहुत बाद में
कि अरुणिमा जब मरी
तो उसको लेने परियाँ आयीं थीं !
उसके कमरे का आईना भी
ठीक उसी पल चटख कर टूट गया था।

आज इतने सालों बाद भी
दिसम्बर के बड़े दिनों में
प्लम-केक लाना नहीं भूलता मैं !
‘वो’ याद आती है मुझको
और तब तक आती रहेगी
जब तक मैं रहूँगा !!!

तुम्हारा
देव




स्वीकार और तिरस्कार से परे है ... हमारा प्यार !






कितना कुछ उमड़ता-घुमड़ता है
मेरे भीतर,
मेरे आस-पास !
तपाता हूँ ख़ुद को
मगर जाने क्यों
उफन कर भी,
पूरा नहीं उफन पाता !!
सैलाब आकर भी नहीं आ पाता
मैं चाहकर भी खाली नहीं हो पाता !
उबल कर उफनता है कुछ,
पर गिर कर बहता नहीं;
अधर में ही झूल जाया करता है अक्सर !

कभी-कभी लगता है
कि तुम्हारा सामना करना
इस दुनिया का सबसे दुरूह काम है।
जैसे सौ फीट ऊँची बंधी रस्सी पर
संतुलन बनाते हुये,
‘नट’ बनकर चलना !
जैसे मौत के कुएँ में
स्पीडोमीटर की ‘आखिरी सीमा’ को छूते हुए,
मोटर-साइकल चलाना !
जैसे तलवार को
मुँह के रास्ते पेट में डालने वाला,
‘खतरनाक खेल’ दिखाना !

फिर ये लगता है
कि तुम्हारा सामना करूँ ही क्यों ?
मैं तो बस.....
तुमको प्यार करना चाहता हूँ।
तुम्हारे एहसास के हिंडोले में
हिचकोले लेना चाहता हूँ !

कभी वैदिक ऋचाओं सी जटिल
तो कभी नागार्जुन की कविता सी सरल
कितने-कितने रूप हैं तुम्हारे !!

जंगली फूल को बालों में खोंसे
नंगे पैर, सफेद रेती पर
हरी-नीली समंदरी लहरों के
समानांतर चलती .... तुम !
और हतप्रभ सा
अपलक निहारता ... मैं !!
बच्चों सा औत्सुक्य लिये
कभी तुमको एकटक देखता
तो कभी तुम्हारी आहट पर छिप जाता मैं !

घोर असहमत हो जाते हैं, कई बार तुम और मैं !
और फिर
अपनी-अपनी सोच का सिरा थामे
थिर जाते हैं ....
दो ध्रुवों की तरह अटल होकर !
मैं बेकल सा छटपटाता हूँ
और तुम ठोस स्वर में कहती हो
“इट वॉज़ नॉट अ स्टेटमेंट,
इट वॉज़ जस्ट एन एक्स्प्रेशन.”
और तब.....
मैं मायूसी की खोह में दुबक जाता हूँ।

फिर एक दिन.....
मेरी आवाज़ को सुन
रुआंसी होकर तुम ज़िद कर बैठती हो
“तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं,
अभी डॉक्टर के यहाँ चलो !”
हमारी आँखें मिलती हैं
मैं नम हो जाता हूँ,
तुम उस समय कुछ नहीं कहतीं
पर बाद में फोन करके
बहुत धीरे से कहती हो....
“इतनी भावुकता अच्छी नहीं,
रोये तो नहीं थे तुम !
मेरे जाने के बाद ?”
..... और मैं फूट-फूट कर रो पड़ता हूँ।

स्वीकार और तिरस्कार,
दोनों से परे है हमारा प्यार !
सुनो ओ मुनिया ....
तुम्हारा हाथ थामकर
भावों के समंदर की तलहटी में
गहरे पैठ जाना चाहता हूँ अब....
.... हमेशा के लिये !!!


तुम्हारा
देव



जाने कैसी आदतें अपने साथ लेकर आया हूँ




सीलन भरी दीवारें 
दीमक लगी चौखट
टूटी हुई बंदनवार 
और एक झूलता दरवाज़ा;
ये ही सब संकेत हैं 
मेरे मन का हाल बताने को !
“जितना सुलझाता हूँ उतनी उलझती जाती है,
ज़िंदगी मेरे आगे सवाल बन जाती है।”

मैं वो कभी हो ही नहीं पाया 
जो मुझे होना था। 
और मेरे होने के लिए 
जिस एक चीज़ की दरकार थी 
वो सिर्फ़ सुकून था !

सुकून मिलकर भी नहीं मिला कभी !
छोटी-छोटी बातें 
बड़े-बड़े व्यवधान का रूप लेकर 
हर बार... 
मेरी राहों का रोड़ा बनती चली गईं। 

सबकुछ मिल जाता है मुझे 
बस सुकून की ‘वो’ छांह नहीं मिलती !
सर्द रातों में कभी-कभी नींद नहीं आती
और आ भी जाये 
तो ऐसे सपने आते हैं 
कि उठकर बैठ जाता हूँ। 
ये सोचकर सिहरने लगता हूँ 
कि कहीं नींद आ गयी 
तो मेरा दुःस्वप्न 
फिर वहीं से न शुरू हो जाये 
जहाँ अधूरा छूटा था। 
“बदसलूकी के ये सपने और पूरी रात बाक़ी,
पूर्णता के मोड़ पर ही लग रही हर बात बाक़ी।”

जाने कैसी आदतें अपने साथ लेकर आया हूँ,
कि एक मर्ज़ का इलाज़ खोजने में 
दूसरे मर्ज़ का सहारा ले लेता हूँ। 
और ये सब इतना अप्रत्यक्ष होता है 
कि समझकर भी नहीं समझ पाता !

हमारे अलावा भी 
एक शख़्स रहता है ना 
.... हमारे भीतर !
जिससे कि हम 
अपनी वो बातें साझा किया करते हैं 
जिन्हें हम कभी दुनिया के सामने नहीं लाते। 
मेरे भीतर का वो शख़्स ‘तुम’ हो !
चाहे मैं तुमको ख़त लिखूँ या न लिखूँ, 
चाहे मैं तुमसे बात करूँ या न करूँ,
हक़ीक़त तो ये है 
कि हर-पल 
मैं तुमसे ख़ुद को साझा करता रहता हूँ। 

हाँ,
एक बात और....
मुझे पता है 
कि कुछ बातें हमेशा अनकही रह जायेंगी
कुछ खुशियाँ कभी नहीं मिल पाएँगी 
कुछ मुलाकातें अधूरी ही छूट जाएँगी
मगर तब भी ....
उनका ख़याल, उनके पूर्ण होने की चाहत 
हमें ज़िंदा रखेगी 
आख़िरी साँस तक !

एक गुज़ारिश है तुमसे 
मेरी बातों के मतलब 
सिर्फ़ मेरे शब्दों में मत ढूँढना;
मेरी तस्वीर को 
अपनी उँगली से छूकर 
तुम्हारे स्पंदन में मुझको जीना !
शायद तब ....
तुम मुझको समझ सको !!

तुम्हारा 
देव




क्षण-भर को लगा जैसे, वो नहीं ‘तुम’ हो !





देव मेरे,
कहाँ हो ?
कितने दिन हुए
इतना लंबा इंतज़ार .....
लेकिन तब भी,
कोई एक ख़त तक नहीं !!
पता है मुझे ...
मसरूफ़ियत तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ती,
लेकिन तुम इतने चुप 
पहले नहीं हुये कभी। 
कहाँ गयी तुम्हारी वो बेचैनियाँ ?
या फिर अब तुम भी ....

प्रेमी मेरे,
इन बेचैनियों से ही तो 
ये संसार चल रहा है। 
कलियों को खिलने की,
पानी को बहने की,
धरती को घूर्णन की ...
सबकी अपनी-अपनी बेचैनियाँ !

अभी जब एकांत में 
मैंने तुमको सोचा,
तो अनायास ही 
वो रेवड़ीवाला याद आ गया।
पहले-पहल जिसने 
अपनी मीठी रेवड़ी का स्वाद जगाया 
और फिर अचानक,
गायब हो गया। 
बाद में जब लौटा 
तो उसने अपनी रेवड़ियों के दाम बढ़ा लिये।
तुम न ऐसे बन जाना,
चस्का लगाकर, बदल जाने वाले। 
प्रेमी हो तुम ...
प्रेमी ही रहना, व्यापारी न बनना !

अरे हाँ,
कुछ दिनों पहले 
मैं घूमने गई थी, 
यहाँ से बहुत दूर .....!
घूमते-घूमते एक मंदिर में चली गयी। 
प्रसाद लिया, पर चढ़ाया नहीं 
वहीं मंदिर के प्रांगण में 
पंछियों के लिये बिखेर दिया। 
तभी जाने कहाँ से दो गिलहरियाँ चली आईं।
उनमें से एक,
मेरे क़रीब आकर आँखों ही आँखों में बतियाने लगी।
इधर उधर फुदकती
थोड़ा सा मटकती,
मैंने एक दाना आगे बढ़ाया
पर उसने नहीं खाया,
मेरी हथेली को चूमा 
और फिर चली गयी। 
बड़ा अनोखा था उसका स्पर्श !
क्षण-भर को लगा जैसे,
वो नहीं ‘तुम’ हो !
आज ही लौटी हूँ 
और ख़त लिखने बैठ गयी। 

देव सुनो,
इश्क़ के इज़हार का 
कोई निश्चित दिन नहीं होता। 
जब, जैसे दिल करे 
तब, वैसे लिखना। 
...... मगर ख़त ज़रूर लिखना !
बाँध और बंधन से 
परे हो चुके तुम ;
समझे हो !
इंतज़ार में.... 

तुम्हारी 
मैं !



ताकि लोग, परखने की बजाय प्रेम कर सकें !!!




काल अपनी कसौटी पर 
हर चीज़ कस लेता है। 
मगर कभी,
प्रेम की गहराई नहीं परख पाता !
काल से परे है प्रेम !!
इसीलिए आज भी राधा, लैला, शीरी, साहिबा और मीरा
सब की सब समकालीन लगती हैं !

हाथों में तुम्हारे गहने लिए,
एक सुनार के पास गिरवी रखने जाता हूँ....
अपने प्यार की निशानी, वो गहने
जिनको सुनार बड़ी बेदर्दी से
एक चिकने काले पत्थर पर घिसने लगता है।
पत्थर के जिस्म पर
जगह-जगह सुनहरी चमकीली रेखाएँ उभर आती हैं।
ठीक तभी...
मेरे मन में दो विपरीत धाराएँ आपस में उलझ पड़ती हैं।
एक धारा कहती है .....
कि सोना एकदम ख़रा निकले, ताकि ज़्यादा क़ीमत मिल सके।
और दूसरी धारा ....
मुझे अपराध-बोध के गर्त में लिए जाती है।

पत्थर को हाथ में लेकर निहारता हूँ
तो उसमें तुम दिखाई देती हो
उन्हीं गहनों का श्रृंगार किए !
ख़ुद को दिलासा देता हूँ।
अपना ध्यान कहीं और लगाने के लिए
त्योहारों के बारे में सोचने लगता हूँ।
शरद पूर्णिमा, चाँद, करवा चौथ !!
ओह, ओह, ओह ......
जाने कब से चला आ रहा है ये सिलसिला
चाँद के निकलने तक....
भूखे रहने का !
दुआओं का, लंबी उम्र का !!

एक लड़की चुप-चुप सी ....
अधूरी आस लिये,
हर साल सिंगार करती है
कुछ खाती-पीती भी नहीं !
मगर जिसके लिये ये सब करती है,
वो कभी क़द्र नहीं करता !
दूसरी लड़की....
जो सबके सामने ठहाके लगाकर हँसा करती है
सजती भी है,
लेकिन भूखे रहकर लंबी उम्र वाली बातों को नहीं मानती।

कई-कई बार ...
हम कहीं होकर भी वहाँ नहीं रहते।
और अक्सर....
वहाँ पर पाये जाते हैं,
जहाँ मौज़ूद नहीं हुआ करते।

मेरा यक़ीन करो
कॉर्क की डाट लगी, काँच की बोतल के भीतर
छटपटाते पतंगे की तरह हो गया हूँ।
अपने भीतर इतना कुछ बटोर लिया,
कि अब लड़खड़ाने लगा हूँ मैं !

कोई जतन करो,
कि ‘टक्क’ की आवाज़ हो
और ये कॉर्क की डाट खुल जाये।
ताकि मैं,
भरपूर साँस ले सकूँ।

अरे हाँ,
वो सुनार कह रहा था,
कि कसौटी का ये पत्थर
जब पूजा-घर में रख दिया जाता है.....
तो इसको सब ‘शालग्राम’ मानकर पूजते हैं।
क्या ऐसा नहीं हो सकता,
कि हर कसौटी को कुमकुम-अक्षत लगा कर
आस्था से जोड़ दिया जाये...
ताकि लोग, परखने की बजाय प्रेम कर सकें !!!
बोलो ?

तुम्हारा
देव




ताकि वो एकदिन, इस सब पर हँस सके !





एक कागज़ उड़ रहा था
इधर से उधर !
एक साधारण सा कागज़..
जानती थी मैं,
कि ये तुम्हारा ख़त नहीं
फिर भी अचानक
कुछ ऐसा दिख गया
कि मैंने वो कागज़ सहेज लिया।
तीन आड़ी लकीरों से काटे गये
छोटे-छोटे चार पैरा,
बड़े से अक्षरों में लिखा हुआ P.T.O.
और साथ में एक उदास इमोज़ी !

कागज़ पढ़ कर मैं कुछ समझ नहीं पाई 
लेकिन उलझी हुई पंक्तियों में
कुछ शब्द झांकते दिखे
और ज़ेहन में अटक गए !
"लेखक, चार बजे की बस, इंसान, वयोवृद्ध, टूटे हुए पुर्ज़े, हम ही ज़िम्मेदार....!"

जी में आया कि अभी के अभी
ये शब्द तुमको लिख भेजूँ
और कहूँ कि एक कविता लिखो इन शब्दों पर !
फिर लगा,
कि तुम कहीं वही पुरानी बातें ना सोचने लगे जाओ।
जब चार लोगों की मंडली ने बैठकर
तुम्हारी चुगलियाँ मुझसे की थीं।
"अरे वो देव...
वो तो बात ही इसलिए करता है
कि कोई ख़त, कोई कविता लिख सके !
पत्थर, धूल, पागल या फूल
सबमें ही बस
वो प्यार खोजा करता है।"

तुम सोचते होंगे
कि मैं ये सब क्यों कह रही,
क्योंकि तुम भी अब तक
बस बच्चे ही हो ....
बिल्कुल इस बच्चे जैसे !
कितना मासूम होगा
ये कागज़ लिखने वाला बच्चा
जो गलत लिख देने पर
पहले एक दुख भरा इमोज़ी बनाता है,
फिर सॉरी लिख कर माफ़ी माँगता है
और अंत में वो पन्ना ही फाड़ देता है।

नहीं देव नहीं,
ये अधूरे और गलत पन्ने
हमारे जीवन की किताब के
सबसे सुंदर हिस्से हैं।
इनको अलग करके
हम तिल-तिल ख़ुद को मारते हैं।
मासूम आँखें,
पश्चाताप के मोटे आँसुओं के लिए तो नहीं होतीं;
उनमें सपने भी होते हैं ना !

ये अधूरापन,
उन सपनों की पूर्णता है।
क्यों नहीं देख पाते
अधूरेपन में छिपे शाश्वत सौन्दर्य को !

इस कागज़ को मैं
फ़्रेम करवा कर रखूँगी,
और जब वो बच्चा बड़ा हो जाएगा
तो उसे ये गिफ़्ट कर दूँगी।
ताकि वो एकदिन,
इस सब पर हँस सके।

हाँ याद आया,
छोटी नानी जब भी हलवा बनाती
तो बार-बार उसका स्वाद पूछा करती,
हम बच्चे खाने में मगन रहते
वो बीच-बीच में टोका करतीं
"कैसा लगा ?
मीठा कम तो नहीं ?"
और हम सिर्फ स्वाद का आनंद लेते
बगैर कुछ बोले।

देव सुनो...
कविताएं लिखो
अपनी ठहरी हुई आवाज़ में सुनाओ,
फिर पल भर की देरी किये बग़ैर
वहाँ से चले आओ।
मत देखो, मत पूछो
कि लोगों को कैसी लगी।
सर्जक हो तुम 
और ख़ुद पर ही भरोसा नहीं !

पगलू मेरे...
इस बार रावण दहन देखने
तुम्हारे साथ मैं भी चलूँगी;
ठीक चार बजे आ जाना
इंतज़ार करूँगी।

तुम्हारी
मैं !



ये भी बन गयी ...तुम जैसी !





जब-जब अपने हाथों से 
हरसिंगार लिखकर भेजा,
तब-तब मेरे आस-पास...
तुम्हारा प्यार झर गया !
नन्ही मेरी...
तुम्हारे कोमल स्पर्श के जैसे हैं 
ये नर्मों-नाज़ुक पारिजाती फूल !!

जाने क्या हुआ है इस बार 
क्वांर का महिना तो आया,
लेकिन अपने हिस्से की तीखी धूप 
भूले से कहीं छोड़ आया। 
मौसम पर एतबार करना तो चाहता हूँ, 
मगर मौसम को ख़ुद ही पर एतबार नहीं। 
यों भी इस बार 
कम ही आए हैं हरसिंगार !
और जो आए,
उनको भी बारिश ने गला दिया !

याद है पिछले साल....
वो बूढ़ा और बूढ़ी आते थे, 
जो रोज़ सुबह छह और सात के बीच 
झरे हुये फूल तो बटोरते ही थे। 
पेड़ हिला-हिला कर बचे-खुचे फूलों को भी 
शाख से जुदा कर दिया करते थे। 
लाख ख़ुद को रोका तब भी
एक दिन उलझ ही पड़ा था मैं उन दोनों से !
जाने किस देवता को 
सवा लाख हरसिंगार चढ़ाने की 
मन्नत मान बैठे थे वे दोनों !

और उसके पिछले साल...
हर दिन तड़के चार बजे उठ कर,
तुम अपनी मलमल की चुनरी 
पेड़ के नीचे बिछा आती थीं !
फिर रोज़ सुबह हरसिंगार के फूलों को लाकर 
अपनी स्टडी टेबल पर रख दिया करतीं,
और देर शाम को 
कुम्हला गए फूल क्यारी में विसर्जित कर आतीं। 

एक साइकल पर कई दिनों से लटका था 
कच्च-कच्च करता
पारदर्शी प्लास्टिकिया रेन-कोट !
धूल की मोटी परत ने ओढ़ लिया था जिसको पिछले दिनों। 
आज उस रेन-कोट का दर्द 
बादलों ने पढ़ लिया, 
और बारिश से पोंछ दी 
दर्द वाली सारी गर्द !

बाहर जाने से इंकार करता 
मुड़ा हुआ पहिया। 
साइकल पर जगह-जगह, झर कर बैठे हुये हरसिंगार। 
पैडल पर मुस्काता इकलौता फूल
हैंडल पर चिपका एक गीला पत्ता 
सीट और कैरियर पर ताज़ा फूलों के बीच 
इक्का-दुक्का गले हुये फूल !

अचानक याद आया,
पिछली बार इस साइकल को तुमने 
पूरे तीन दिनों तक चलाया था।
इससे बातें भी की थीं। 
देखो तो ...
ये भी बन गयी 
तुम जैसी। 
सहेज लिए इसने भी हरसिंगार !
लेकिन मैं....
अब तक बस 'मैं' ही हूँ। 
कब बनूँगा मैं ? 
तुम्हारे जैसा !
बोलो .....

तुम्हारा 
देव



अपनी कुछ चाहतें, कह नहीं पाता


सोचा था 
कि आज कोई ख़त नहीं लिखूँगा !
मगर एक बार फिर 
जाने किस अदृश्य प्रेरणा ने 
मेरा हाथ पकड़कर 
मुझे ख़त लिखने बैठा दिया। 

कोई है 
जो सेतु का काम करता है, 
दृश्य और अदृश्य जगत के बीच !

बेचैनियाँ पिछले जनम से साथ लाया हूँ मैं !
लाख चाहकर भी 
क़रार और सुकूँ नहीं मिल पाता। 
छटपटाहट की सीमा जब लाँघ लेता हूँ,
तो बेसबब आवारा सा 
इधर से उधर घूमने लगता हूँ। 

ऐसे में अक्सर, 
मुझे ‘वो’ याद आने लगती है। 
... तावीज़ वाली लड़की !!!
जो कभी आँखों पर ऐनक चढ़ा लेती 
कभी बालों की पोनी बना लेती 
कभी चुनरी ओढ़ लेती 
तो कभी जींस पहनकर 
पैरों में बिना मोज़ों के स्पोर्ट्स-शू डाल लेती। 

लेकिन एक चीज़ हमेशा उसके साथ रहती 
काले धागे में लिपटा 
गले से थोड़ा नीचे लटकता 
चाँदी का चौकोर तावीज़ !
दायीं ओर से छिदी हुयी नाक, 
उसमें एक छोटा सा लौंग डाले
चेहरे पर आ गए बालों को झटकती 
दुनिया की हर रस्म को 
अपने ही अंदाज़ में निरखती-परखती। 
गिलहरियों की भागदौड़
बारात का नाच और शोर 
या फिर मुहल्ले का क्रिकेट; 
सब पर ऐसी आल्हादित होती 
जैसे कमरे में बंद बच्चा, 
पहली बार घर से बाहर निकला हो। 

आज भी वो दिन नहीं भूलता 
जब एक वायलिन वादक की तान पर मुग्ध होकर 
वो सम्मोहित सी नाचती चली गयी। 
थक कर जब संभल नहीं पाई,
तो जाकर 
वायलिन वादक की साँवली भुजाओं को 
अपने दूधिया हाथों से थाम लिया। 
मैंने देखा तब.....
दो रंगों को एक-दूसरे में घुलते हुए !
चाहकर भी मैं.....
साँवले और दूधिया में अंतर नहीं कर पाया। 

उसे सहारा देकर 
वो वायलिन बजाने वाला चला गया। 
और वो लड़की, 
देर तक उसे जाते हुये देखती रही। 
फिर हल्के से हँसी, अपनी गर्दन हिलाई 
नीचे देखकर अनामिका और मध्यमा से तावीज़ को छूआ 
और चली गयी। 

हाँ,
जाते-जाते एक बार उसने 
नज़र-भर मुझको देखा था 
लेकिन मैं उसकी निगाहों का तेज संभाल नहीं पाया। 

सुनो,
दृश्य और अदृश्य के बीच का मेरा सेतु ..
... तुम हो !
अपनी कुछ चाहतें
मैं ज़बान से नहीं कह पाता 
बस मन ही मन बोल दिया करता हूँ। 
एक तावीज़ लाकर रखा है मैंने 
लकड़ी की आलमारी की ऊपर वाली दराज़ में। 

जब भी आओ
तो बिना कुछ कहे वो तावीज़, 
अपने हाथों से मेरे गले में डाल देना !
बेफिक्र होना चाहता हूँ मैं
उस लड़की के जैसा !
जल्दी आना ....

तुम्हारा 
देव



आत्माओं का संकेन्द्रण ...मेरे आस-पास !



यादों की अदृश्य डोर...
बरसों की नहीं, जनमों की यादें।
कैसे-कैसे मौसम
जाने कितने जिस्मों की ओढ़नी !
और फिर से इस बार 
जनम लिया हमने
मैंने और तुमने!!

पर्दों से ढकी हुई 
अनगिनत खिड़कियाँ।
एक खिड़की का पर्दा हटाता हूँ 
दो जिस्म नज़र आते हैं 
एक बूढ़ा और एक बूढ़ी।
घरघराती आवाज़ में बूढ़ा कहता है 
"पाहुना आये हैं, 
कलेवा ले आओ।"

लिपे-पुते आँगन में 
खटिया बिछाई जाती है।
सत्तू तैयार होता है।
गुड़ घोलकर शरबत बनाया जाता है।
बुढ़िया ने घूँघट नहीं लिया 
मगर सर पर पल्लू कुछ इस तरह रखा है 
कि लाख कोशिश करने पर भी
बुढ़िया का चेहरा नहीं दिखता।

शरबत पीने के बाद 
बूढ़ा अपनी सफ़ेद झबरीली मूँछें पोंछता है,
गौर से देखता हूँ
लेकिन कोई मेहमान नहीं दिखता !
फिर पाहुना किसको कहा था? 
मेरी तंद्रा टूटती है 
ठीक उसी वक़्त 
पीपल के पेड़ पर बैठा कौआ
कांव-कांव करने लगता है।

खिड़की को परदे से ढक
पीछे और पीछे सरकता जाता हूँ,
जब दीवार अड़ने लगती है 
तो सिर को दीवार पर टेक लेता हूँ,
एक आवाज़ कानों में गूंजती है 
"यहाँ कोई किसी का नहीं 
लेकिन हर कोई 
किसी न किसी से जुड़ा है।"

पुरखों के दिन,
फिर से आ गये।
पैर की चोट ने,
फिर लाचार कर दिया।
सीढ़ियां नहीं चढ़ पाता हूँ इन दिनों भी।
जाने कहाँ से आकर 
छत पर कौवे बोला करते हैं 
सबसे नीचे वाली सीढ़ी के पास
कुर्सी डालकर बैठ गया हूँ।
छत पर आती आवाज़ों 
और पत्तों की सरसराहट से 
बाहर के परिदृश्य की कल्पना कर रहा हूँ।

मैंने महसूस किया है
आत्माओं का संकेन्द्रण 
...मेरे आस-पास !

मुझे चोंट पहुंचाने वाले 
मेरे जिस्म तक ही पहुंच पाते हैं बस!
मेरी रूह के माथे पर 
काला टीका लगा गया है कोई।
गहरी शान्ति व्याप्त हो गयी
...मेरे भीतर।

सुनो, 
तुम ही वो एकमात्र देह हो
जिसकी रूह का आवागमन
मैंने प्रत्यक्ष महसूस किया है।
लगभग पूरा पखवाड़ा बाकी है अभी 
कभी किसी दिन 
कुछ घंटों के लिए चली आना।
किसी अदृश्य ने मांगी हैं मुझसे 
तुम्हारे हाथों की बनी
खीर और पूड़ियाँ !
धूप लगाना है मुझको 
तुमको माध्यम बनाकर।
आओगी ना...

तुम्हारा 
देव




वो मेरी ज़िद थी, ये मेरा प्यार है



प्रिय देव,

स्वीकार है मुझको,
ज़िद्दी कहलाना !
लेकिन जिसे लोग मेरी ज़िद समझते हैं,
दरअसल वो,
मेरे मन की मौज है।
क्या ज़रूरी है 
कि हर बार जब बारिश हो,
तो भागकर 
किसी 'शेड' की पनाह ली जाये!
हर बार जब हँसो
तो ये ध्यान रखो
कि हँसी ज़्यादा 'लाऊड' न हो जाये!
हर बार जब कपड़े पहनो 
तो ये एहतियात बरतो 
कि कोई कॉम्बिनेशन 'ऑफबीट' न हो जाये!

कल देखने लायक था तुम्हारा चेहरा।
जब लॉन्ग स्कर्ट के साथ 
मैंने तुम्हारा शर्ट पहनकर 
सर पर काउबॉय हैट लगा ली थी।

जानते हो 
तुम मुझे क्यों अच्छे लगते हो ,
क्योंकि तुमने मुझसे प्यार किया 
और फिर 
मुझे बदलने का ख़याल अपने मन में नहीं लाये।

अक्सर लोग दिखावा तो करते हैं
लेकिन ख़ुद नहीं बदलते 
भीतर से जस के तस बने रहते हैं 
और इसके ठीक उलट 
अपने प्रिय को बदल देना चाहते हैं 
.......पूरी तरह !
तिस पर दुहाई प्यार की दिया करते हैं।
कमाल है 
ये तो फिरौती हुई ना !

अच्छा सुनो 
एक बात और .....
ज़रा-ज़रा सी बातों पर 
यूँ आहत न हो जाया करो।
पता है मुझे 
उस पतली मूछों वाले युवक को देख 
जब मैं मुस्काती हूँ ,
तब तुम बड़े विचलित हो जाते हो।
कुछ कहते नहीं 
पर तुम्हारे भीतर की छटपटाहट 
तुम्हारे चेहरे के रोम-रोम से 
बयां हो जाती है।
ऐसा न किया करो देव 
किसी में कुछ अच्छा लगना 
उसके प्यार में पड़ना नहीं होता 
समझे हो ......!

मानती हूँ 
वो मेरी ज़िद थी,
जब लाख कहने पर भी 
बागीचे की सैर के लिए,
तुम्हारे साथ नहीं गई।

मगर ये मेरा प्यार है,
कि तुम्हारी उस चाहत को ख़ुद में समेटे 
आज बिन बताये,
मैं यहाँ चली आई।
यहाँ के पेड़, यहाँ के फूल, यहाँ के पंछी 
और वो बेंच जिसपर तुम बैठा करते हो।
सब बेक़ल हो रहे हैं 
ये बताने को 
कि तुमने मेरा ज़िक्र कई-कई बार 
मौन रह कर किया है इन सबसे !
ये भी पूछते हैं मुझसे मन ही मन 
कि अपने देव के साथ क्यों नहीं आईं ?

सुनो.......
बतखों का एक जोड़ा देखा मैंने 
एक मादा बतख,
बिलकुल मुझ जैसी 
अपने आप में मगन !
और एक उसका प्रेमी बतख 
बिलकुल तुम जैसा 
एक पैर पर खड़ा हुआ।
उनको देखकर बड़ा अच्छा लगा 
जैसे कोई एक 
दिखाने के लिए रूठा हो 
और दूसरा 
उसको मनाने का हर जतन कर रहा हो।

कौन कहता है 
कि एक पैर पर सिर्फ बगुले खड़े होते हैं 
अपने स्वार्थ के लिए।
कभी-कभी 
कोई प्रेमी, कोई योगी या कोई बतख भी तो 
एक पैर पर खड़े हुआ करते हैं।
अपने संसार के भीतर 
एक नया संसार खोजने के लिए।

क्या मैंने कुछ गलत कहा !
बोलो ?

तुम्हारी 
मैं!



ताकि हर बार एक नया प्यार लिख सकूँ





आज ऐसा मन किया
कि कोने में रखे,
उस जर्जर स्टूल को उठाकर 
फिर से,
उम्र के उसी दौर में लौट जाऊँ ;
जब वो स्टूल जवान हुआ करता था।
मेरे लड़कपन का दौर...!

आज मन किया 
कि फिर से माँ की नज़रों से बचकर 
चुपचाप ऊपर वाले स्टोर रूम की चाभी उठा 
छत पर चला जाऊँ,
और फिर 
उस लकड़ी के स्टूल पर चढ़कर 
पंजों के बल उचककर 
स्टोर रूम के रोशनदान से चेहरा सटा
बाहर की दुनिया को 
छिपकर निहारूँ !
उसी कौतुक के साथ....

मन नहीं था 
तो भी तुमसे किया वादा निभाया।
सुबह ठीक साढ़े पांच बजे 
घूमने निकल गया।
जब मेरे ही पैरों की चाप
मन की उड़ान में ख़लल डालने लगी 
तो हौले-हौले चलना शुरू कर दिया।
मगर तभी, 
एक हलकी सर्द और ख़राशदार आवाज़ 
मेरे कानों में पड़ी 
"भगवान् हमारे हैं 
और हमारे का हमें भरोसा है।"

मुझे नहीं मालूम 
कि यह आवाज़ किसी मंदिर से आयी या घर से...
रिकॉर्डेड थी या कोई बोल रहा था ! 
मुझे तो बस इतना पता है
कि उस आवाज़ को सुनते ही 
मेरे भीतर तुम्हारा अक्स उभरा था।

हर बार, 
जब बारिश विदाई की दहलीज़ पर रुककर 
एक बार पीछे मुड़कर देखती है।
तब-तब मैं ये सोच कर आल्हादित हो उठता हूँ 
कि अब, 
उमंगों और त्यौहारों का दौर आने वाला है।

जाने कितनी गड्डमड्ड सी यादें 
उभरने लगती हैं।
कभी-कभी लगता है 
कि कुछ यादें ऐसी हैं 
जिनको सिर्फ किताबों में पढ़कर अपना मान बैठा।
तो कुछ निरी कपोल कल्पनाएं हैं 
जिन्हें मैं एक भूली याद समझने लगा हूँ 

तुम्हें याद है ....
दस या बारह दिन हुए 
जब तुमने अपने पैरों में सुन्दर सी जूतियां पहन 
एक तस्वीर ले भेजी थी
और मैसेज में लिखा था...
"सिंड्रेला के शूज़ !"
उस रात, 
मैं अजीब सी जागी और सोई हालत में रहा।
कोई एक से चार के बीच जब नींद आयी 
तब मैंने एक सपना देखा।
सपने में तुम, 
सिंड्रेला के रूप में ;
और तुम्हारे साथ एक सुदर्शन युवक।

खुश-खुश थीं तुम !
सबसे बतियाती, इधर से उधर डोलती 
और जैसे ही 
मैं तुमसे बात करने आगे बढ़ा 
तुमने उस युवक को पुकारा 
और उसका हाथ थामकर विदा हो गईं।

तभी, 
कहीं से एक आवाज़ उभरी 
"सिंड्रेला अपने राजकुमार के साथ चली गई।" 
एक कागज़ मेरी मुट्ठी में कसमसा कर रह गया।
स्वप्न में ही !
कागज़...
जिसपर लिखकर लाया था 
मैं अपना प्रेम-पत्र !
रोता रहा देर तक ...
उस कागज़ को हाथों में मसलते हुए 
और जब आँख खुली,
तो तकिया आँसुओं से भीगा हुआ था।

जानती हो...
मैं तुम्हें ख़त इसलिए भी लिखता हूँ 
ताकि हर बार 
एक नए अंदाज़ में 
प्यार लिख सकूँ।
ताकि हर बार तुम्हें महसूस हो 
कि आज पहली ही बार 
तुम अपने देव से मिली हो 
और अभी-अभी मैंने 
अपने धड़कते दिल का हाल तुमको बताया है 
समझी ...? 
सोना मेरी !!

तुम्हारा 
देव


जाने कितनी संवेदनाओं के हमराज़




बड़े करीने से जमे हुए पाँच पत्थर 
मानो एक शिला को तोड़कर 
उसके सिसकते हुए हिस्सों को 
तड़पती संवेदनाओं के साथ 
सजा दिया हो 
...प्रकृति के बीचोंबीच !
ताकि जब कोई इनको छुए 
तो उसके साथ 
ये अपना दर्द बाँट लें।

आज फिर उसी बागीचे में गया 
लेकिन उन पत्थरों पर बैठने की हिम्मत 
फिर नहीं जुटा पाया।

पाँच बड़े पत्थर 
उनके चारों ओर
पीली घास का एक छोटा घेरा,
पैरों तले हौले-हौले कुचली गयी पीली घास 
और जाने कितनी संवेदनाओं के हमराज़
.....ये पाँच पत्थर!।

हर रोज़ सुबह 
कोई बूढ़ा आता होगा 
जो इन पत्थरों पर बैठकर 
पिछली रात की करवटों 
और सामने पड़े विशाल दिन 
के बीच उभर आई 
अतीत की सलवटों को सुधारता होगा।
तभी उसे रिटायरमेंट के बाद की ज़िम्मेदारियाँ
याद आने लगती होंगी।
और फिर 
घिसटते कदमों से 
वो उन्हीं साठ, पैंसठ या सत्तर साल पुराने रस्तों पर 
चल पड़ता होगा।

दोपहर को लंच टाइम में 
एक प्रेमी आकर 
इन पत्थरों पर बैठता होगा 
हाथों में 'आज की ताज़ा ख़बर' वाला
आठ पन्नों का इवनिंगर लिये।
निगाहें अख़बार पर कम 
और गेट पर अधिक रहती होंगी।
तभी उसे,
ज़ुल्फ़ें संवारती, महक से सराबोर 
माशूका आती दिखाई देती होगी।
रूठने-मनाने के दौर के बीच 
एक चिट्ठी पढ़ी जाती होगी 
फिर कोई डर सताता होगा।
और बुझते मन से चिट्ठी फाड़ दी जाती होगी।
उसके बाद 
इकलौते टिफिन में से 
कुछ प्रेमिल चटपटे कौरों का आस्वाद लिया जाता होगा 
अचानक.....
घड़ी पर निगाह पड़ते ही 
दो पत्थरों के बीच
अख़बार फंसाकर 
दोनों उठकर खड़े हो जाते होंगे।

फिर देर शाम....
एक बुजुर्ग दम्पत्ति
थोड़े अनमने से आकर 
इसी पत्थर पर बैठ जाते होंगे।
जिनको देखकर यह कहना मुश्किल 
कि एक दूजे से रूठे हुए हैं 
या कि ज़िंदगी से!

दोनों एक दूसरे की तरफ पीठ किये......
औरत बच्चों को देख 
खिलखिलाती होगी।
और आदमी 
उस अख़बार को खोल
शाम की ताज़ा ख़बर से 
अपना जी बहलाता होगा।
उठते समय 
एक का घुटना दुखता होगा 
दूसरा उसकी ओर हाथ बढ़ाता होगा 
और फिर साथ-साथ 
एक मौन विश्वास लिये 
दोनों घर को चले जाते होंगे।

सुनो,
आज फिर......
मैं बागीचे में गया तो था 
लेकिन आज भी 
उन पत्थरों पर बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पाया 
कि कहीं मेरे स्पर्श से 
उन अजनबियों की निर्बाध संवेदनाओं में 
कोई ख़लल न पड़ जाये।

कुछ टूटी हुई शिलायें 
संवेदनाओं की सबसे अच्छी सुचालक होती हैं 
है ना.....

तुम्हारा 
देव




रंगीन आँखों वाली उस लड़की के वास्ते...


जैसे कि मैं,
तुम्हें ख़त लिखता हूँ ना !
बिलकुल वैसे ही,
वो कविता लिखा करता था।
रंगीन आँखों वाली
उस लड़की के वास्ते।

हर बार कविता लिख कर
पुरानी किताब के पन्नों के बीच
छिपा दिया करता।
और फिर कभी उन्हें
दोबारा नहीं पढ़ता।

वो,
उस लड़की के लिए लिखता था
जो हर सुबह
डलिया में गुलाब सहेज कर
मौत से लड़ते मरीज़ों के पास जाती।
फिर टीsss, टी ss करती
ICU की बीप के बीच ....
इस बिस्तर से उस बिस्तर।
किसी के सिरहाने गुलाब रख देती,
तो किसी खाली बिस्तर को देख
वापस लौट आती !
बिस्तर.....
जो रात के किसी पहर
रीते हो जाते थे अक्सर!

कभी उसके साथी
हाइजीन का हवाला देकर
उसे रोक दिया करते।
तो कभी वो
खुशी को ही जीवन बताकर
उनकी बात टाल दिया करती।

"किसने बना दिया तुमको डॉक्टर ?
तुम्हे तो कवि होना चाहिए था।"
जब कोई ये कहता
तो वो हँस देती।
चाहती वो भी थी
........कविता लिखना।
चाहने से ही मगर
सब हो नहीं जाता।

इस सबके बीच
एक दिन
उसके हाथ वो कागज़ लग गये।

"अरे वाह......
कितना अच्छा लिखते हो
इनमें से कुछ कवितायेँ
मैं रख लूँ?"

"सुनो...
ये सारे कागज़ तुम रख लो !"
कवि ने अपनी प्रेरणा के समक्ष
अपनी ही कृतियाँ विसर्जित कर दीं।

कवितायेँ पढ़ कर वो
बावरी हो गई
"जो भी तुम लिखते हो !
कैसे लिखते हो ?
कमाल लिखते हो !"
नज़रें झुकाये वो, मुस्कुरा उठा।

चंद दिन ही बीते थे
डलिया में फूल लिए
वो दौड़ी आयी।
और बोली...
"आज मैंने तुम्हारी एक कविता पढ़ी
बिलकुल नयी!
अनदेखी, अनजानी
लेकिन हू ब हू मेरे जैसी !
जानते हो
तुमको पढ़ने के लिए
अक्सर रुक जाती हूँ।
एकांत में अपनी गाड़ी खड़ी करके मैं
तुमको पढ़ती हूँ
ऐसा कैसे लिखते हो ?"

लडके ने हिम्मत कर
उसकी आँखों में देखा
और धीरे से बोला ...
"गुमां हो जायेगा
ख़ुद पर मुझको,
तारीफ़ ना किया करो
मेरी इतनी।"
यकायक लड़की के हाव-भाव बदल गये।
अजीब सी निगाहों से देखकर बोली,
"I am very spontaneous....
Beware from me !!"
इतना कहकर
'वो' चली गयी।
और 'ये' जैसे रेत की भीत सा, भरभरा गया !

फूलों की डलिया में
कुछ फूल बाक़ी थे,
रात बीतने पर भी
जो सूख नहीं पाये।
हाँ मगर इस बीच
एक रात की दूरी
लड़के को मीठा सा रोग दे गई।
डॉक्टर बोला......
"डायस्टोलिक प्रेशर बढ़ना
कई बीमारियों को न्योता देना है।"
अगली सुबह टोकरी में
फूलों के साथ
हाई ब्लड प्रेशर की गोलियों का पत्ता
मुँह चिढ़ा रहा था।

सुनो........
ये ख़त मैं तुमको इसलिए लिख रहा हूँ
क्योंकि एक प्रश्न ने
मेरी नींद ओ करार छीन लिए हैं।
कि जिसके पास इलाज होता है..
अक्सर वो ही हमें
मर्ज़ क्यों दे जाता है।
बोलो?

तुम्हारा
देव



मेरी बात के सिवा, हर बात करते हैं ये शब्द !




मौसम थोड़ा नम है आज !
लेकिन दूर-दूर तक बारिश नहीं...
एक किताब उठाई,
उसको पढ़ने का जतन किया।
मगर दूर कहीं पर बजते रेडियो ने
मेरे मन को जाने किस बीहड़ में भटका दिया।
चाहकर भी शब्दों को नहीं पढ़ सका
अक्षरों को नहीं टटोल पाया।
"खिलते हैं गुल यहाँ
खिल के बिखरने को,
मिलते हैं दिल यहाँ
मिल के बिछड़ने को।"

यूँ लगने लगा
कि एक उम्र, एक अनुभव के बाद
शब्द या तो थोथे पड़ जाते हैं
या बग़ावत कर बैठते हैं हमारे साथ !
जैसे किसी अन-ट्यून्ड गिटार की स्ट्रिंग्स
सुरों से रश्क़ कर बैठी हो।

अब शब्दों से वो अर्थ नहीं निकलता
जो मैं कहना चाहता हूँ।
मेरी बात के सिवा
हर बात करते हैं ये शब्द।
इंसान की बीमारी, जरावस्था तो ख़ूब देखी सुनी है।
लेकिन इस शाब्दिक पक्षाघात का क्या करूँ ?
जिससे इन दिनों रु-ब-रु हो रहा हूँ मैं !

सुनो....
मैं अनपढ़ हो जाना चाहता हूँ।
भूल जाना चाहता हूँ सारे कठिन शब्द
बिसरा देना चाहता हूँ गूढ़ सिद्धान्त और दर्शन
दंतव्य-तालव्य, अनुस्वार-अनुनासिक....
क्या ये सब इतने ज़रूरी हैं ?
मेरे पास नहीं है
तुम जैसा बौद्धिक मन।
इच्छा होती है
कि या तो किसी तट को पकड़ कर
बहाव से बहुत दूर चला जाऊँ।
या फिर ऐसे ही डूब जाऊँ
बिना किसी छटपटाहट !

अपने अस्तित्व को भूलना चाहता हूँ।
शोर करते,
आँखों के सामने नाचते,
आपस में लड़ते-झगड़ते ये शब्द ;
और असहाय सा उनको देखता मैं !
इस क़ैद से बाहर आना चाहता हूँ अब !!
हताश या निराश नहीं हूँ
बस एक यथार्थ से गुज़र रहा हूँ।
ऐसा यथार्थ...
जिसको ना पहले जाना,
ना ही जिसके बारे में कुछ सुना !
तुम समझ रही हो ना ?
वैसे भी अक्षर,
ज्ञान और प्रेम के पर्याय तो नहीं ?
हाँ,
एक माध्यम ज़रूर हो सकते हैं।
किसी अनपढ़ को प्रेमपत्र लिखते
और किसी गूँगे को गुनगुनाते हुए देखना है मुझको अब !
तुम कहती हो ना
कि ये भी एक अवस्था है।
मैं कहता हूँ
कि इस अवस्था का होकर रह जाना चाहता हूँ अब !

एक बात और...
किसी डॉक्टर की दरकार नहीं मुझे !
मेरी अपनी है ये स्थिति
इससे मुझे प्यार है।
ऐसा हो गया हूँ तब भी,
तुम्हारा प्रेमी हूँ।
इस हालत से उबरूंगा भी
तो तुम्हारी प्रीत के सहारे !
कितनी ख़री....
तुम्हारी प्रीत !
..... बिना मिलावट वाली !

तुम्हारा
देव




कितना रूमानी ख़याल है.... !




देव मेरे,
तुम्हें क्या लगता है
कि यदि तुम
मुझसे कुछ छुपाओगे
तो मैं जान नहीं पाऊँगी ?
पहले उमस की छटपटाहट
और अब सीलन की चिपचिपाहट !
लगता है,
जैसे हरदम
दो पाटों के बीच
सिमट जाने की जुगत में लगे रहते हो।

हाँ मानती हूँ
कि जो कुछ तुम्हारे साथ गुज़रा
खौफ़नाक था वो सब !
मगर क्या वो ठहरा रहा ?
दिन बीतते न बीतते गुज़रा नहीं ?

देखो,
यूँ न कसमसाया करो।
और चाहे तुम मानो या न मानो
लेकिन हर घटना
एक संदेश लेकर आती है।
संदेशों को समझना शुरू करो।
उसके बाद
ग्लानि से भर उठना भी बंद कर दोगे।

याद है,
बहुत पहले
एक कागज़ दिया था तुमने
अपने हाथों से एक संदेश लिख कर मुझे !
"कबीर तू हारा भला,
जीतन दे संसार।"

कितना रूमानी ख़याल है....
तब,
जबकि हर कोई जीत रहा हो।
उस वक़्त,
सिर्फ़ तुम हार जाओ।
अहा....
हारने के बाद की वो शांति !
महसूस की है न तुमने ?
अब बनने मत लगना
जानती हूँ मैं
उस शांति की साँय साँय को
तुमने जीया है ख़ुद !

सुनो ओ बावरे....
जो तुमने
ख़ुद अपने हाथों से लिखा था
उसको तुम ही भूल गये ?
कैसे ...?
बताओ भला !

अभी कोई तीन दिन पहले
घनेरे काले मेघों की गर्जना के बीच
छत पर खड़ी होकर
वही कविता दोहरा रही थी।
जो तुमने कभी मुझको
झमाझम बारिश के बीच
भीगते हुए सुनाई थी।

"बिजली चमकी
पानी गिरने का डर है।
वे क्यों भागे जाते हैं
जिनके घर हैं।
वे क्यों चुप हैं
जिनको आती है भाषा।
वह क्या है
जो दिखता है धुआँ धुआँ सा !"

किसकी है ये कविता...?
कवि का नाम भूल गई मैं !
शायद केदारनाथ सिंह ?
याद से नाम लिख भेजना
तुम न भूल जाना।

अरे हाँ,
ये कहने के लिये ख़त लिखने बैठी थी
कि व्यर्थ की बातें न सोचा करो।
जब भी मन
व्यथित होकर सिकुड़ने लगे
तो बेहिचक
मेरे पास चले आया करो।
जानते हो ना...
मेरे प्रेमी हो तुम !!!

तुम्हारी
मैं 




कितनी बार बोला... तुमसे ही हूँ मैं !




आज एक ख़याल कौंधा
कि एडम और ईव में से
किसका दिल आया होगा,
बाग के उस फल पर !
किसका दिल ललचाया होगा..... पहली बार !!
और फिर
उस कठोर सज़ा के मिलने के बाद
किसने किसको दोषी ठहराया होगा।
किसने पहला इल्ज़ाम लगाया होगा।
दोनों में से कौन दुखी होकर भी मुस्कुराया होगा।
आज फिर एक ख़याल कौंधा।

तुमको लगने लगा है ना
कि मैं....
बड़ा आत्मविश्वासी हो चला हूँ इन दिनों
और अब...
मेरे विश्वास से अहंकार छलकने लगा है।

हाँ,
ये सच है
कि नियम, क़ायदे, थोपे हुए रिवाज़
सदा से डराते रहे मुझे।
इसीलिए तो मैंने कभी ग़ज़ल लिखने की कोशिश नहीं की।
ये बहर, काफ़िया, रदीफ़ और ये मीटर....
मुझे भावों के रस्ते की उलझन लगते रहे।
इसीलिए शायद,
मेरे लिये प्यार कभी ग़ज़ल जैसा नहीं रहा।
मगर एक बात तो बताओ
तुमको मुझमें कभी
तुम्हारा अक्स क्यों नज़र नहीं आया ?

जब ओढ़ी,
तब तेरे ही तो प्यार की चादर ओढ़ी री मुनिया।
मेरा सच तो बस इतना है
कि जब-जब तुम्हें याद किया
जब भी तुमसे बात की
जब-जब तुमको देखा;
तब-तब मैं शून्य हो गया।
और शून्य होते ही
मुझे ख़ुद में ब्रह्माण्ड नज़र आने लगा।
अब तुम ही कहो
ब्रह्माण्ड भी कभी दर-ब-दर भटका करता है क्या !

आज तुम्हारी ये चुप्पी
ये नाराज़गी बड़ी बेमतलब सी लग रही है।
कितनी बार बोला
कि तुमसे ही हूँ मैं,
ख़ुद से नहीं हूँ।

जाने क्यों आज
उस कछुए की बहुत याद आ रही है।
स्कूल से लौटते हुए अक्सर हम बच्चे
कबीट के पेड़ वाली बावड़ी पर चले जाते थे।
...हर दोपहर एक से तीन के बीच।
वहाँ सबसे नीचे वाले एरन के पत्थर पर
एक बड़ा सा कछुआ धूप सेंकता बैठा रहता था।
कोई आवाज़ होती
तो ख़ुद में सिकुड़ जाता।
शरारती बच्चे पानी में पत्थर फेंकते
तो हौले से उतरकर
जल की गहराई में विलीन हो जाता।
मैं कई बार अकेला जाकर
उससे बातें किया करता था।
यक़ीन मानो
जब-जब मैं उसे पुकारता
वो अपनी मोटी सी गर्दन ऊपर उठाकर
मुझे देखा करता,
और जब कोई आ जाता
तो वो सिकुड़ जाता।

तुम और मैं भी तो ऐसे ही हैं।
जब भी तुम दुनियावी बंदिशों की गाँठें खोलकर
मुझसे बातें करती हो
तो मैं...
उस कछुए की नाईं,
ख़ुद को फैला देता हूँ।
किन्तु तुम्हारी एक चुप्पी
मुझको सहमा देती है।
ऐसी ठिठौली न किया करो
मैं भी कछुआ बन जाता हूँ...
थिर जाता हूँ धरती पर
पत्थर बनकर !

कुछ ख़ास नहीं है मेरे पास
बस,
एक खोल ज़रूर है
जिसमें सिमट कर मैं
फिर से तुम्हारे चहकने की
राह तकता रहता हूँ।
यक़ीन करो मेरा.....

तुम्हारा
देव



कोई धुन सुनाओ



कई बार बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ
लेकिन उँगलियाँ साथ नहीं देतीं।
अँगूठा भी थकने लगता है।
....यूँ ही मुड़े हुए।
मन करता है
कि कलम उठाऊँ
और कागज़ पर,
आड़ी-तिरछी लकीरें उकेर 
अच्छे से तह लगाकर तुमको भेज दूँ।
फिर जब तुम उस काग़ज़ को खोलो
तो वो जीता-जागता ख़त बन जाये।

अचानक एक कहानी कौंधने लगती है।
एक बच्चा....
लगभग पाँच साल का।
उस बच्चे का पढ़ा-लिखा मज़दूर पिता।
मटमैली जींस,
झीना पड़ चुका अधूरी बाँह का शर्ट
पटरियों पर दौड़ती एक रेलगाड़ी;
बच्चे को गोद में उठाये
रेलगाड़ी के साथ दौड़ता..... वो पिता !
विस्तारित हरा मैदान
घास चरती गायें।

"इन हाथों से ताक़तवर,
संसार में कुछ भी नहीं।"
पिता की ठोस बाहों में अटखेलियाँ करता बच्चा सोचता है।
फिर बढ़ी हुई दाढ़ी पर 
अपने नर्म हाथ रगड़ते हुए अचानक रुक जाता है।
कुछ लोग उनके इर्द-गिर्द जमा होने लगे हैं।
सब मिलकर आग्रह करते हैं
"कोई धुन सुनाओ
बड़े दिन हुए।"
पिता बच्चे को गोद से उतार 
बाजा हाथ में ले लेता है।
मुफ़लिसी के मर्म से
एक तान निकलती है
और वो बच्चा
विस्मयाभिभूत सा
ख़ुद से फिर प्रश्न करने लगता है।
"क्या सच में मेरे पिता इतने विराट हैं ?
क्या सच में इतना सौभाग्यशाली हूँ मैं ?"

और फिर बरसों बाद....
कैंसर से जूझता वही पिता !
अपने जीवन की आख़िरी शाम
अस्पताल के एक कमरे में
चंद लोगों से घिरा,
बहुत हौले स्वर में
एक धुन बजा रहा होता है।
और उसका बेटा
थोड़ी दूरी पर बैठा हुआ
ख़ुद से वही प्रश्न कर रहा है
बचपन के प्रश्न....
जो अब और अधिक स्पष्ट हो चुके हैं।

कहानियाँ शब्दों में खप कर
मन में बाक़ी रह जाती हैं
अक्सर....!!!
और फिर हर कहानी
आकार लिया करती है यथार्थ में
अपने पात्र स्वयं चुनकर !

यक़ीन मानो
मैं नहीं लिखता
कोई लिखवाता है मुझसे।
कितने अधूरे आयाम
पूर्णता की बाट जोहते रहते हैं,
उचित माध्यम की तलाश में।

पिछले हफ़्ते की बात है
छुट्टी की दोपहर
बादलों के इंतज़ार में बैठा हुआ था,
कि तभी मेरे कानों में
एक अजीब सी सम्मोहक धुन गूँजी।
बाहर जाकर देखा
तो गिनी-चुनी बाँसुरियां साथ लिये
एक आदमी दिखा
मानो,
बंसी बेचने का भरम डालकर
कोई धुन सुनाने निकला हो।

पता नहीं क्या हुआ
मैं उसके ठीक सामने जा कर खड़ा हो गया।
मगर वो निर्लिप्त, निर्विकार सा
बाँसुरी में साँस फूँकता रहा।
बजाते-बजाते जब वो वहाँ से चल दिया,
तो मैंने गली के मोड़ तक
उसका पीछा किया।
फिर वो साईकल पर बैठ कर बढ़ चला
और मैं.....
उसके ओझल होने तक वहीं रुका रहा।

कई बार ऐसा होता है ना
कि हमारे भीतर ही कुछ रहता है
जो बाहर नहीं आ पाता
और कोई अनजाना आकर
हमारे ही सामने, हमको ही कुरेद कर
दूर चला जाता है।
और हम बस 
साक्षी बने उसको देखा करते हैं।

बस....
ऐसा ही कुछ हुआ है मेरे साथ !
लब खुल नहीं रहे,
और भावों का उफ़ान अपने चरम पर है !

तुम्हारा
देव



एक डल्ला बाक़ी रह गया कहीं न कहीं


अल्हड़ थी लड़की
उमंगों से भरी हुई
और लड़का संजीदा
ख़ुद ही में खोया सा !
दोनों ने लोगों से ,
बहुत सुन रखा था
इक दूजे के बारे में।
और फिर आख़िर
वे दोनों मिले
एक फ़ैमिली फंक्शन में।
आधे दिन वाली एक सांझ
और पूरे दिन वाली दो रातों के लिए !
एक दूसरे को जब पहली बार देखा
तब आँखें मिली
मगर चार नहीं हो पायीं।
कुछ आड़े आ गया था
दोनों के बीच !
या तो किसी ने आवाज़ लगाई थी
या किसी के हाथ से
कोई गिलास छूटा था
छन्न से !!!
एक मीठा धागा धीरे-धीरे
खट्टी उलझनें फैलाने लगा था
कि तभी...
लड़की ने अनजाने ही एक मज़ाक कर दिया
...लड़के के साथ !!!
लोगों को हँसने का मौका मिल गया
और लड़के की आँखों में
किरकिरी सी आ गई।
वो वहाँ होकर भी
वहाँ का नहीं रहा।
एक दिन गुज़रा
फिर एक रात
अगला दिन ढलने लगा
तो साँझ को लड़की ने संदेसा भिजवाया।
"कोई बात बुरी लगी हो
तो माफ़ कर देना
ना जाने क्या है मेरे साथ भी
ख़ुशी क़रीब आये
तो नज़र लग जाती है।"
लड़के का दिल पिंघला
मगर पूरी तरह नहीं।
एक डल्ला बाक़ी रह गया
कहीं न कहीं।
उसने लड़की को बुलवा भेजा
व्यग्रता पर आस की दुशाला ओढ़े
वो चली आई।
और फिर वे दोनों मिले
दिन और रात के मुहाने पर !
सुरमई अँधेरा गहराने को था।
लड़के ने लड़की का हाथ खींच कर
उसे एक लंबी छाया के तले खड़ा कर दिया।
एक दूसरे की उंगली को थामे
दोनों कुछ देर तक
धक-धक स्पंदन महसूसते रहे।
लड़की हौले से बोली..."सॉरी!"
लड़के ने चाँदी की एक कटोरी में से
ढेर सारे दाने थमाते हुए कहा
"ये लो
इनको मुँह में रखकर
अच्छे से चबा लो
फिर नहीं लगेगी
कभी भी नज़र !"
लड़की ने झट से उसकी बात मान ली
और फिर तुरंत ही
वहाँ से चली गयी।
"बावरी है क्या
देख तो तेरा क्या हाल हुआ है।
काली मिर्च चबाये जा रही है
आँखें देख अपनी
ये लाल-लाल रेशे
ये आँसू
चेहरे पर ये तीखी सी झाल !"
सहेली की बात सुन
रोती हुई लड़की
अचानक हँसने लगी।
अपराध का बोध
तब हज़ार ज़हरीली नोक बन चुभता है
जब प्रायश्चित नहीं हो पाता।
लड़के ने उसी रात
वो जगह छोड़ दी।
जाते जाते मगर कुछ साथ ले आया
हमेशा के वास्ते !
एक दर्द,
एक अपराध-बोध,
या शायद एक अधूरा प्रायश्चित।
हर दूसरे रोज़ वो
दिन और रात के संगम तले
मसालों वाली गली में जाकर
एक ख़ास जगह पर खड़ा हो जाता।
जब लाल पिसी मिर्ची की तीखी धांस आती
तो ख़ूब खाँसता
इतना....
कि खाँसते खाँसते आँसू निकल आते।
फिर पैदल चलने लगता
और हर तीसरे कदम पर
एक कालीमिर्च
मुँह में रख कर दाँतों से दबा देता।
एक गुनाह ...
किसी को साक्षी बना कर किया।
एक प्रायश्चित...
जो सबसे छिप कर बार-बार किया।
सुनो...
मेरा एक काम कर दो ना।
उस लड़की से जाकर इतना कह दो
कि लड़के की हालत कुछ ऐसी है
कि सुक़ून में पीड़ा है
और मुश्किलों में राहत !
बस...
इससे ज़्यादा कुछ भी न कहना।
तुम्हारा
देव



मैं तो पंछी बन गया हूँ प्यारी !




एक अदृश्य तार रहता है
... हम सब में !!
जिसे कोई अनजाना अजनबी आकर
झनझना देता है।
और फिर भीतर ही भीतर
आनंद का सोता बहने लगता है।
किसी जीते जागते स्वार्गिक सुख जैसा !
कितना निर्दोष होता है ना
ये प्यार भी !!!
उस दिन जब तुम्हारे मोबाइल पर
बार-बार नेटवर्क आ और जा रहा था।
तब तुम थोड़ी बेकल हो गयी थीं 
मगर मैं निश्चिंत था।
"इंतज़ार करना आता है मुझको।"
मैंने तो बस
इतना भर कहा था।
मगर उसके बाद तुमने जो कहा,
उसने मुझे अंदर तक भिगो दिया।
"जानती हूँ देव,
कुछ लोग होते हैं ठहरे हुए से....
जो किसी भी हद तक इंतज़ार कर पाते हैं।
बिना किसी आशा या अपेक्षा के
बस...
वैसे ही हो तुम !"
इधर तुमने बात ख़त्म की
और उधर मैं रो पड़ा था
फूट-फूट कर !
तब,
तुमने अपनी दो उँगलियों से छुआ था
.... मेरी कलाई को !
और हौले से बोली थीं
बह जाने दो...
अच्छा लगेगा।
एक बात कहूँ
हर बार जब तुम मुझे पुकारती हो
तब दरअसल ,
तुम्हारी आवाज़ मेरे कानों में नहीं घुलती
वरन,
तुम गुज़र जाती हो, मुझसे होकर...
बहुत भीतर कहीं
आत्मा से सटकर !
अक्सर ये होता है मेरे साथ
कि तुम्हारे जाने के बाद 
तुम्हारे निशान ढूँढता हूँ,
उन पर अपनी उँगलियाँ फेर कर
तुम्हारे स्पंदन को जीता हूँ।
वो मील का पत्थर...
जिस पर तुम,
हर सुबह मॉर्निंग वॉक के समय सुस्ताती हो।
चुपके से जाकर उस पर बैठ जाना
मेरा सबसे प्यारा शग़ल है।
पता है क्या... !
तुम मुझे ट्रांस में लिये जाती हो
और वहाँ से इतनी विराट लगती हो
कि मेरी आँखें चुँधिया जाती हैं।
विस्तारित तुम...
इस क्षितिज से उस फ़लक तक !
अचानक मैं आँखें बंद कर
अपने अदृश्य पंख फैला कर तैरने लगता हूँ...
कभी दायें तो कभी बाँये
मस्ती के हिचकौले लेते हुए !!
उफ़्फ़....
कैसे समझाऊँ तुम्हें
तुम्हारी ही बात मैं !!
सुनो...
उस दिन मेरी कलाई पर
जहाँ तुमने अपनी उंगली रखी थी ना
आज वहाँ मैंने,
अपने होंठ रख दिये।
और जी भर कर पी .... ख़ुशबू तुम्हारी।
यक़ीन करोगी
अभी देखा तो पता चला
कि मेरी कलाई पर उस जगह एक तिल भी है
छोटा सा !!!
कमाल है
तुम्हारे एहसासों में इतना मशगूल रहता हूँ
कि ख़ुद पर भी अब 
ग़ौर नहीं कर पाता।
लेकिन मुझे इसका
रत्तीभर गिला नहीं...
मैं तो पंछी बन गया हूँ प्यारी !
यूँ ही डरा करता था
अब तक उड़ने से...
सच !!!
तुम्हारा
देव