सोचा था
कि आज कोई ख़त नहीं लिखूँगा !
मगर एक बार फिर
जाने किस अदृश्य प्रेरणा ने
मेरा हाथ पकड़कर
मुझे ख़त लिखने बैठा दिया।
कोई है
जो सेतु का काम करता है,
दृश्य और अदृश्य जगत के बीच !
बेचैनियाँ पिछले जनम से साथ लाया हूँ मैं !
लाख चाहकर भी
क़रार और सुकूँ नहीं मिल पाता।
छटपटाहट की सीमा जब लाँघ लेता हूँ,
तो बेसबब आवारा सा
इधर से उधर घूमने लगता हूँ।
ऐसे में अक्सर,
मुझे ‘वो’ याद आने लगती है।
... तावीज़ वाली लड़की !!!
जो कभी आँखों पर ऐनक चढ़ा लेती
कभी बालों की पोनी बना लेती
कभी चुनरी ओढ़ लेती
तो कभी जींस पहनकर
पैरों में बिना मोज़ों के स्पोर्ट्स-शू डाल लेती।
लेकिन एक चीज़ हमेशा उसके साथ रहती
काले धागे में लिपटा
गले से थोड़ा नीचे लटकता
चाँदी का चौकोर तावीज़ !
दायीं ओर से छिदी हुयी नाक,
उसमें एक छोटा सा लौंग डाले
चेहरे पर आ गए बालों को झटकती
दुनिया की हर रस्म को
अपने ही अंदाज़ में निरखती-परखती।
गिलहरियों की भागदौड़
बारात का नाच और शोर
या फिर मुहल्ले का क्रिकेट;
सब पर ऐसी आल्हादित होती
जैसे कमरे में बंद बच्चा,
पहली बार घर से बाहर निकला हो।
आज भी वो दिन नहीं भूलता
जब एक वायलिन वादक की तान पर मुग्ध होकर
वो सम्मोहित सी नाचती चली गयी।
थक कर जब संभल नहीं पाई,
तो जाकर
वायलिन वादक की साँवली भुजाओं को
अपने दूधिया हाथों से थाम लिया।
मैंने देखा तब.....
दो रंगों को एक-दूसरे में घुलते हुए !
चाहकर भी मैं.....
साँवले और दूधिया में अंतर नहीं कर पाया।
उसे सहारा देकर
वो वायलिन बजाने वाला चला गया।
और वो लड़की,
देर तक उसे जाते हुये देखती रही।
फिर हल्के से हँसी, अपनी गर्दन हिलाई
नीचे देखकर अनामिका और मध्यमा से तावीज़ को छूआ
और चली गयी।
हाँ,
जाते-जाते एक बार उसने
नज़र-भर मुझको देखा था
लेकिन मैं उसकी निगाहों का तेज संभाल नहीं पाया।
सुनो,
दृश्य और अदृश्य के बीच का मेरा सेतु ..
... तुम हो !
अपनी कुछ चाहतें
मैं ज़बान से नहीं कह पाता
बस मन ही मन बोल दिया करता हूँ।
एक तावीज़ लाकर रखा है मैंने
लकड़ी की आलमारी की ऊपर वाली दराज़ में।
जब भी आओ
तो बिना कुछ कहे वो तावीज़,
अपने हाथों से मेरे गले में डाल देना !
बेफिक्र होना चाहता हूँ मैं
उस लड़की के जैसा !
जल्दी आना ....
तुम्हारा
देव
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