आज एक ख़याल कौंधा
कि एडम और ईव में से
किसका दिल आया होगा,
बाग के उस फल पर !
किसका दिल ललचाया होगा..... पहली बार !!
और फिर
उस कठोर सज़ा के मिलने के बाद
किसने किसको दोषी ठहराया होगा।
किसने पहला इल्ज़ाम लगाया होगा।
दोनों में से कौन दुखी होकर भी मुस्कुराया होगा।
आज फिर एक ख़याल कौंधा।
तुमको लगने लगा है ना
कि मैं....
बड़ा आत्मविश्वासी हो चला हूँ इन दिनों
और अब...
मेरे विश्वास से अहंकार छलकने लगा है।
हाँ,
ये सच है
कि नियम, क़ायदे, थोपे हुए रिवाज़
सदा से डराते रहे मुझे।
इसीलिए तो मैंने कभी ग़ज़ल लिखने की कोशिश नहीं की।
ये बहर, काफ़िया, रदीफ़ और ये मीटर....
मुझे भावों के रस्ते की उलझन लगते रहे।
इसीलिए शायद,
मेरे लिये प्यार कभी ग़ज़ल जैसा नहीं रहा।
मगर एक बात तो बताओ
तुमको मुझमें कभी
तुम्हारा अक्स क्यों नज़र नहीं आया ?
जब ओढ़ी,
तब तेरे ही तो प्यार की चादर ओढ़ी री मुनिया।
मेरा सच तो बस इतना है
कि जब-जब तुम्हें याद किया
जब भी तुमसे बात की
जब-जब तुमको देखा;
तब-तब मैं शून्य हो गया।
और शून्य होते ही
मुझे ख़ुद में ब्रह्माण्ड नज़र आने लगा।
अब तुम ही कहो
ब्रह्माण्ड भी कभी दर-ब-दर भटका करता है क्या !
आज तुम्हारी ये चुप्पी
ये नाराज़गी बड़ी बेमतलब सी लग रही है।
कितनी बार बोला
कि तुमसे ही हूँ मैं,
ख़ुद से नहीं हूँ।
जाने क्यों आज
उस कछुए की बहुत याद आ रही है।
स्कूल से लौटते हुए अक्सर हम बच्चे
कबीट के पेड़ वाली बावड़ी पर चले जाते थे।
...हर दोपहर एक से तीन के बीच।
वहाँ सबसे नीचे वाले एरन के पत्थर पर
एक बड़ा सा कछुआ धूप सेंकता बैठा रहता था।
कोई आवाज़ होती
तो ख़ुद में सिकुड़ जाता।
शरारती बच्चे पानी में पत्थर फेंकते
तो हौले से उतरकर
जल की गहराई में विलीन हो जाता।
मैं कई बार अकेला जाकर
उससे बातें किया करता था।
यक़ीन मानो
जब-जब मैं उसे पुकारता
वो अपनी मोटी सी गर्दन ऊपर उठाकर
मुझे देखा करता,
और जब कोई आ जाता
तो वो सिकुड़ जाता।
तुम और मैं भी तो ऐसे ही हैं।
जब भी तुम दुनियावी बंदिशों की गाँठें खोलकर
मुझसे बातें करती हो
तो मैं...
उस कछुए की नाईं,
ख़ुद को फैला देता हूँ।
किन्तु तुम्हारी एक चुप्पी
मुझको सहमा देती है।
ऐसी ठिठौली न किया करो
मैं भी कछुआ बन जाता हूँ...
थिर जाता हूँ धरती पर
पत्थर बनकर !
कुछ ख़ास नहीं है मेरे पास
बस,
एक खोल ज़रूर है
जिसमें सिमट कर मैं
फिर से तुम्हारे चहकने की
राह तकता रहता हूँ।
यक़ीन करो मेरा.....
तुम्हारा
देव
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