Thursday 27 October 2016

मैं उस रंगोली को, मढ़वा कर रखूँगा !





वातवरण बदल गया
एकदम से .....!!
ठंड गमकने लगी है।
पठार पर रहता हूँ ना,
चट्टानें तापमान से सामंजस्य बैठा कर चलती हैं।

अक्टूबर तो हमेशा से लुभाता रहा
मगर एक मलाल फिर बाक़ी रह गया ....
पिछले साल दिसंबर में सोचा था
कि अबके सितंबर महीने में
निर्मल वर्मा की कहानी सितम्बर की एक शाम पढ़ूँगा।
शाम ही के समय,
छत पर बैठकर !
मगर नहीं पढ़ पाया।

अक्सर ऐसा होता है मेरे साथ
चाह कर भी सोचा हुआ नहीं कर पाता !
इस बार भी,
बस सोचता ही रह गया !
किरदार घूमते रहे ज़ेहन में
मगर उन्हें जी नहीं पाया !
एक लड़की और एक लड़का
दोनों को थामे हुये
एक पवित्र रिश्ता !
एक अनकहा तीव्र आकर्षण
और सुलगाती हुई मीठी चुभन !

जानती हो
ये मौसम का परिवर्तन,
मुझे आशंकित करने लगा है अब।
साँस की बीमारी जो लगा ली है तुमने !
कितना नया अनुभव है ये ....
मौसम का स्वागत करने की बजाय  
उससे डरना !!!

सैमी कहता है,
कि मैं बहुत ज़्यादा नॉस्टेल्जिक हो गया हूँ
अपनी दुनिया से बाहर नहीं निकल पाता।
दीक्षा ले चुकी
मेरी हमनाम गृहस्थ सन्यासिनी
जो अक्सर एकान्त में रहना पसंद करती है,
अब तो वो भी पूछने लगी है।
“जब प्यार करते हो
तो ये बेचैनी,अधूरापन और
हर ख़त में बिखरी हुयी तड़प .....
ये सब क्यों, किसके लिए ?”
मेरे पास किसी भी बात का
कोई जवाब नहीं।
या शायद...
मैं किसी को कोई जवाब नहीं देना चाहता।

एक आदमी था,
अपनी प्रेमिल स्त्री और छोटे से बच्चे के साथ रहा करता था।
लेकिन उनके जीवन पर
बेरोज़गारी तारी थी।
हर बार दीवाली के दिन
दोपहर तीन और चार के बीच
जब उसकी पत्नी रंगोली बनाना शुरू करती
तो वो थके होने का नाटक कर
अपने कमरे में सोने चला जाता।
फिर चुपचाप खिड़की से अपनी बीबी को देखा करता।  
जो चुटकी में सूखे रंगों को थामे
तरह-तरह की आकृतियाँ बना रही होती।  
फिर घंटे सवा घंटे बाद
उसको आवाज़ देकर बुलाती
और वो सोने का नाटक करता रहता।
वो फिर पुकार कर जगाती
और पूछती
“क्यों जी,
रंगोली कैसी लग रही है?”
रुलाई को रोके,
अपनी लाल आँखों पर
नींद का बहाना ओढ़े
वो मुस्कुराने की कोशिश करता।  
और उसकी बीबी …..
मुस्कान में छिपी पीड़ा को देख लेती
नहीं-नहीं, देखकर अनदेखा कर देती।

पूरे नौ साल गुज़र गए ऐसे !
फिर कुछ यूं हुआ...
कि अलसाया वक़्त उठ बैठा।
उसकी पत्नी अब उधार के रंगों से नहीं
वरन ख़ुद बाज़ार से रंगों को खरीदकर
रंगोली बनाने लगी।
बड़ी आम सी है ये कहानी
मगर,
जिस पर बीतती है
उसके लिए ख़ास हो जाती है।

कल वो आदमी दिखा था
बहुत दिनों के बाद .....
एक बड़ी सी गाड़ी में
ड्राईवर की बगल वाली सीट पर बैठा हुआ।
और पता है ....
उसकी गाड़ी कौन चला रहा था
उसकी प्रेमिल पत्नी !

सरला मेरी ....
रंगों की सहचरी !!
इस दीवाली पर
मेरे लिए एक रंगोली बना दो !!
गीले रंगों से,
अपनी कलात्मक उँगलियों के बीच
ब्रश को थामे हुये  
बड़ी सी ड्राईंग-शीट पर !
एक इल्तिजा भी है तुमसे
जो मन करे वो बनाना
मगर उसमें प्रेम भर देना
ताकि,
जब भी कोई उस रंगोली को देखे
तो प्रेम से खिल उठे।
हर आँख को प्रेम दिखे,
हर हृदय में प्रेम उपजे।

और हाँ....
मैं उस रंगोली को
मढ़वा कर रखूँगा !
अपने पूजा-घर में।
दीपावली का प्यार !

तुम्हारा
देव   









Thursday 20 October 2016

सबके सब पत्थर बन गए हैं, या समझदार हो गए हैं !







पैंसठ साल ....
या शायद इससे भी कहीं पुराना चोला
ओढ़े हुये है उसकी आत्मा
.... इस जनम में !
वो मुझे उम्रदराज़ नहीं लगता।
सात समंदर पार से भी
उसके सानिध्य को ऐसे जीता हूँ
जैसे समीप ही बैठा है वो मेरे।

अक्सर कहा करता है वो मुझसे...
“लव यू क्यों बोला करते हैं लोग?
यदि लव है,
तो फिर यू की जगह कहाँ !”
मैं उसकी बात का महीन रेशा पकड़
एक ख़याल बुनने लगता हूँ
तभी दूर कहीं, कोई निर्गुणिया गुज़रता है।
इकतारे पर कबीर को गाते हुये।
और मैं फिर से
अदृश्य के सागर में डूबने लगता हूँ
डुब्ब.... डुब्ब !!

एक आवाज़ कानों में पड़ती है
बिलकुल अलग आवाज़
जो पहले कभी न सुनी !
“प्रेम ने कभी कुछ माँगा है भला?
प्रेम तो बस देता है।”
उस आवाज़ के खत्म होते न होते
कान के पर्दे से
एक और आवाज़ टकराती है।
“प्रेम भी कभी सोच समझ कर किया जाता है भला !”
गुन्न, गुन्न भँवरे जैसा
जाने क्या गुंजायमान होने लगता है।
और फिर...
एक अजीब सा सम्मोहन
तारी हो जाता है !

देखो तो इस दीवाने को
पगला कहीं का
कितने सुकून में है
जाने क्या लिख रहा है
कचरे के ढेर के बीचों-बीच बैठकर !
इसके पास जाने से झिझक गया,
इसीलिए तस्वीर थोड़ी धुंधली आई।
नहीं तो दिखाता तुमको
इसके चेहरे का सुकून !
जब इसको देखा
तो आस-पास का हर नज़ारा भूल गया।

लोग...
जो उम्रभर
इस कोशिश में लगे रहते हैं
कि कभी ख़ुद से मुलाक़ात हो जाये।
लोग...
जो छटपटाते रहते हैं
बाहरी आवरण को सजाये हुये
भीतर से अस्त-व्यस्त लोग !
उनके लिए
जीता-जागता रोल-मॉडल देखा मैंने आज !

गुड़िया मेरी .....
एक पल को लगा
कि दुनिया से बेपरवाह ये शख़्स
इतना तल्लीन होकर
कहीं तुमको तो ख़त नहीं लिख रहा !
फिर अचानक तुम्हारा ख़याल आया
और मैंने सोचा
कि यदि तुम इस वक़्त यहाँ होतीं
तो झट से, उस दीवाने के पास जाकर
बातें करने लगतीं
और यक़ीनन वो भी
तुम्हारी हर बात का जवाब देता।
लेकिन मै...  
चाहकर भी  नहीं बन सकता
.... तुम जैसा !

मगर हो सके
तो मुझे इसके जैसा बना दो।
दुनिया की परवाह से दूर
ख़ुद ही में मगन
एक प्रेमी, एक जुनूनी !
एक पागल ....
जिसे अपने पागलपन पर फ़ख्र हो।

सुनो ...
ऐसा क्यों हो गया है
कि अब पागल बहुत कम दिखा करते हैं !
सबके सब पत्थर बन गए हैं,
या समझदार हो गए हैं !
बोलो ?

तुम्हारा
देव


 





Thursday 13 October 2016

कोई बंधन भी खोज लाना .... मेरे लिए !!



कुछ बोझ
सिर से उतरकर
मन पर ठहर जाते हैं
और फिर
हर साँस के साथ
ऐसे भारी होते जाते हैं
जैसे कि कोई रूई
पानी की हर बूँद के साथ हुआ करती है।

याद है तुमको
एक बार मैंने तोता पाला था
और जब ये बात तुमको बताई
तो तुम बिलकुल चुप हो गयी थीं
फिर बहुत देर बाद बोली थीं
“एक बच्चा है मेरे पास
उसे पता है
कि पंछियों की जगह
पिंजरे में नहीं
उनको तो
...बस खुला आकाश अच्छा लगता है।”

उसके बाद
मैं इतना मायूस हो गया
कि पूरी दो रातों तक नहीं सो पाया था।
फिर तीसरे दिन
आम की बगीची में जाकर
उस तोते को आज़ाद कर दिया !
...और पिंजरे को तोड़ कर
राह से गुज़रते एक कबाड़ी को दे आया था।

तुम्हें कभी नहीं बताया
मगर,
जब अगले दिन मैं वहाँ गया
तो वो तोता कहीं नहीं दिखा।  
मुझे लगा
कि उसने अपना आकाश चुन लिया
लेकिन ज्यों ही जाने को पलटा
चौकीदार ने पीठ के पीछे से आवाज़ देकर रोक लिया।
बोला...
“बाबूजी,
दिखते तो समझदार हो
फिर क्यों उस पंछी की हत्या के ज़िम्मेदार बने?
तुम्हारे घर पर रहता
तो अपनी ज़िंदगी जीता
मानुस की गंध चढ़ा कर लाये
और बेचारे को जंगल में छोड़ दिया
उसे दूसरे तोतों ने ही मार डाला।”
कुछ देर रुक कर फिर बोला....
“यकीन नहीं होता ना
चलो दिखाता हूँ।”
उसके बाद का दृश्य देखकर
मैं अवाक रह गया !

कुछ हरे-काले पंख बिखरे पड़े थे
तोते का कोई निशान नहीं था।
चौकीदार फिर बोला
“उस बेचारे मरे हुये प्राणी को
रात में किसी कुत्ते या बिल्ली ने चबा लिया।”

हा ईश्वर....
ये क्या अपराध कर दिया मैंने !
आज तक नहीं उबर पाया
उस सदमे से मैं !

जानती हो....
जब तुम मुझे मिट्ठू कह कर बुलाती हो
तो मैं अपने भीतर
उस तोते को महसूस करता हूँ
लगता है
जैसे उसकी आत्मा पुकार रही है मुझे
और चीख-चीख कर पूछ रही है।
“क्यों किया ये सब
.... मेरे साथ !”

ये बातें
तुमसे कभी नहीं कहना चाहता था
ना ही जो तुमको
तकलीफ देना चाहता था
मगर कल एक तोता
जाने कहाँ से  मेरे घर-आँगन में चला आया।
लाख चाहा कि वो उड़ जाये
लेकिन टस से मस नहीं हुआ।
बस फुदकता रहा और फड़फड़ाता रहा।
करीब से देखा तो जाना,
कि इसके पंख कतर दिये हैं किसी ने !
मैंने उसे खुला रखना चाहा
मगर कुछ दरिंदे आ पहुँचे।
भाग कर बाज़ार गया
एक बड़ा सा पिंजरा लाया
और उसको पिंजरे में पनाह दी।
मैंने कुछ गलत तो नहीं किया ना?

कभी लगता है
कि ये वही तोता है,
जो लौट आया है।
कभी लगता है
कि कुछ बाक़ी रह गया था,
जिसे पूरा करना है।

सुनो....
अब जब भी तुम
मुझे मिट्ठू कहकर पुकारो
तो कोई बंधन भी खोज लाना ....
मेरे लिए;
....पिंजरे जैसा !!

तुम्हारा

देव 

Thursday 6 October 2016

पगले.... मस्त कलंदर क्यों नहीं बन जाते !






सुनो ओ देव,
क्या करने लगे तुम ये !
बावरे तो नहीं हो गये ?
तुम्हारी जिस खूबसूरती की मैं कायल हूँ
उसीसे दूर होने लगे ...?
ज़रूरत क्या है
लोगों से उलझने की
बोलो...!

तुम्हीं कहते हो ना
कि एक नहीं
अनेकों दुनिया फैली हुयी हैं हमारे आस-पास !
तो अपनी दुनिया क्यों नहीं चुन लेते !
इसने ये किया
उसने वो कहा
इन सब बातों में
तुम कब से पड़ने लगे ?
तुम्हारे संसार में
इन बातों के लिए कोई जगह नहीं !
अपनी दुनिया के आयाम पहचानो देव !!
मगर इतना याद रखना
अच्छे और अलग होने का भी मद हो जाया करता है कुछ लोगों को
... उससे बचना !

पगले....
मस्त कलंदर क्यों नहीं बन जाते !
जितना पकड़ोगे
उतना जकड़ोगे
और फिर बंधते जाओगे
गाँठे पड़ती जाएँगी ... नयी-नयी !

अच्छा सुनो !
उस दिन,
तुम नॉक किए बगैर ही क्यों चले आये थे
..... मेरे कमरे में ?
और आ ही गए
तो दृष्टा क्यों नहीं बने ?
सवाल करने लगे थे तुम तो !
हाँ,
मैं गहरे नीले रंग की लिपस्टिक लगाए बैठी थी
तो क्या ....
मेरा मन किया तो लगा ली !
ब्लू मूड भी तो तारी होता है ना कभी-कभी।

एक लड़की है
बोलती आँखों वाली।
जिसके निचले होंठ की
बाहरी किनोर के ठीक बीच में
एक बड़ा प्यारा सा काला तिल है।
यूं तो कई हैं उसको चाहने वाले
मगर एक दीवाना है उसका
बिलकुल तुम जैसा !
जो उससे हर बात करता है
बस प्यार नहीं कह पाता !
वो लड़की भी
अपने होंठों को तिरछा करके
मुस्कुराती रहती है।
बोलती कुछ नहीं !

लड़का हर हफ़्ते-पखवाड़े में
बावरा जाता है।
जब छटपटाहट
उसकी साँसों को जकड़ने लगती है
तो जैसे तैसे शब्दों को चुनकर
हौले से पूछता है
“मैं क्या करूँ ?
और लड़की,
होठों को तिरछा कर हँसते हुये कहती है
“मैं क्या कहूँ ?

तब लड़का,
लगातार लड़की को देखता रहता है।
और फिर बेचैनी का सैलाब
धीरे-धीरे उसके सिर से उतरने लगता है।
लड़का छटपटाहट की घुटन से
ऐसे बाहर आता है
मानो,
डूबे हुये जिस्म की गर्दन उठाये
पानी की सतह पर आकर साँस ले रहा हो।
कितनी अनोखी है
.... ये दुनिया !!!
समझो न प्यारे
कब समझोगे।
और हाँ,
नया नाम अच्छा लगा ... बबली !

तुम्हारी

मैं !