एक कागज़ उड़ रहा था
इधर से उधर !
एक साधारण सा कागज़..
जानती थी मैं,
कि ये तुम्हारा ख़त नहीं
फिर भी अचानक
कुछ ऐसा दिख गया
कि मैंने वो कागज़ सहेज लिया।
तीन आड़ी लकीरों से काटे गये
छोटे-छोटे चार पैरा,
बड़े से अक्षरों में लिखा हुआ P.T.O.
और साथ में एक उदास इमोज़ी !
कागज़ पढ़ कर मैं कुछ समझ नहीं पाई
लेकिन उलझी हुई पंक्तियों में
कुछ शब्द झांकते दिखे
और ज़ेहन में अटक गए !
"लेखक, चार बजे की बस, इंसान, वयोवृद्ध, टूटे हुए पुर्ज़े, हम ही ज़िम्मेदार....!"
जी में आया कि अभी के अभी
ये शब्द तुमको लिख भेजूँ
और कहूँ कि एक कविता लिखो इन शब्दों पर !
फिर लगा,
कि तुम कहीं वही पुरानी बातें ना सोचने लगे जाओ।
जब चार लोगों की मंडली ने बैठकर
तुम्हारी चुगलियाँ मुझसे की थीं।
"अरे वो देव...
वो तो बात ही इसलिए करता है
कि कोई ख़त, कोई कविता लिख सके !
पत्थर, धूल, पागल या फूल
सबमें ही बस
वो प्यार खोजा करता है।"
तुम सोचते होंगे
कि मैं ये सब क्यों कह रही,
क्योंकि तुम भी अब तक
बस बच्चे ही हो ....
बिल्कुल इस बच्चे जैसे !
कितना मासूम होगा
ये कागज़ लिखने वाला बच्चा
जो गलत लिख देने पर
पहले एक दुख भरा इमोज़ी बनाता है,
फिर सॉरी लिख कर माफ़ी माँगता है
और अंत में वो पन्ना ही फाड़ देता है।
नहीं देव नहीं,
ये अधूरे और गलत पन्ने
हमारे जीवन की किताब के
सबसे सुंदर हिस्से हैं।
इनको अलग करके
हम तिल-तिल ख़ुद को मारते हैं।
मासूम आँखें,
पश्चाताप के मोटे आँसुओं के लिए तो नहीं होतीं;
उनमें सपने भी होते हैं ना !
ये अधूरापन,
उन सपनों की पूर्णता है।
क्यों नहीं देख पाते
अधूरेपन में छिपे शाश्वत सौन्दर्य को !
इस कागज़ को मैं
फ़्रेम करवा कर रखूँगी,
और जब वो बच्चा बड़ा हो जाएगा
तो उसे ये गिफ़्ट कर दूँगी।
ताकि वो एकदिन,
इस सब पर हँस सके।
हाँ याद आया,
छोटी नानी जब भी हलवा बनाती
तो बार-बार उसका स्वाद पूछा करती,
हम बच्चे खाने में मगन रहते
वो बीच-बीच में टोका करतीं
"कैसा लगा ?
मीठा कम तो नहीं ?"
और हम सिर्फ स्वाद का आनंद लेते
बगैर कुछ बोले।
देव सुनो...
कविताएं लिखो
अपनी ठहरी हुई आवाज़ में सुनाओ,
फिर पल भर की देरी किये बग़ैर
वहाँ से चले आओ।
मत देखो, मत पूछो
कि लोगों को कैसी लगी।
सर्जक हो तुम
और ख़ुद पर ही भरोसा नहीं !
पगलू मेरे...
इस बार रावण दहन देखने
तुम्हारे साथ मैं भी चलूँगी;
ठीक चार बजे आ जाना
इंतज़ार करूँगी।
तुम्हारी
मैं !
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