Thursday 14 January 2016

सौ क़दम साथ – साथ




“मुहब्बत के लिए कुछ ख़ास दिल मख़सूस होते हैं,
ये वो नगमा है जो हर साज़ पर गाया नहीं जाता।”
सुनो ना गुड़िया,
कितने-कितने नामों से पुकारूँ मैं तुमको?
कभी मुनिया, कभी बच्ची, कभी प्यारिया तो कभी सखिया !
अक्सर सोचता हूँ
कहाँ तुम ... ज़हीन, नज़ाकत से भरी लड़की
और कहाँ मैं .....ऊबड़-खाबड़, खुरदरा आदमी !
सच-सच कहूँ ?
जब से तुम्हारा प्यार मिला
मैंने ख़ुद को आईने में देखना छोड़ दिया।
हर बार जब
आईने के आगे खड़ा होता हूँ
कोई न कोई ऐब दिखने लगती है ख़ुद में !
और ये सोचकर हताश हो जाता हूँ
कि तुमने मुझमें आख़िर क्या देखा ?

मैं भी कैसा हूँ ना
अजीब सा....
जब तुम सबके साथ होती हो
भीड़ से घिरी
चुप्पी को चारों ओर लपेटे
हाथ बाँधे मुसकुराती हुई ! 
तब-तब मैं तुम्हें
दूर एक कोने में खड़ा होकर
धड़कते दिल से निहारा करता हूँ।
और ज्यूँ ही हम एकांत में मिलते हैं।
मैं बच्चों सा बावरा जाता हूँ।

याद है न तुमको....
उस दिन,
जब मैंने तू कहकर पुकारा था
और तुम्हारी आँखों में
एक अजीब सी चमक उभर आई थी।
बोलकर मैं थोड़ा झिझक गया था
और तुम खिलखिला कर हँस पड़ी थी।
फिर हौले से बोली थीं
बोलो ना तू !
अच्छा लगता है।

कितनी सरल हो जाती  हो....
जब कोई नहीं होता,
आस-पास हमारे।
पता है...
उस दिन क्या सोचा था मैंने ?
मैंने सोचा था,
कि मैं ईश्वर को भी तो तू कहकर ही पुकारता हूँ।
और तुम भी तो मेरे लिए
उस अलौकिक से कम नहीं !
जैसे कुम्हार गढ़ता है मिट्टी को,
जैसे सुनार ढालता है सोने को,
ऐसे ही तुमने भी मुझे आकार दिया है।
ख़ुद से रश्क होने लगा है अब मुझे !
नहीं जानता
कि क्यों और कैसे तुम मिल गईं।
बस ये हो गया !

ये जो ख़त है ना आज का
ये हमारा सौवाँ ख़त है
पता ही नहीं चला
कैसे माला में गूँथते गए हर ख़त 
... और शतक बन गया।

जानिया मेरी !
एक बात कहूँ,
मानोगी.....
जल्दी जाने की बात मत किया करो !
अभी तो बस सौ क़दम ही तय किये हमने साथ-साथ।
जाने कितना चलना अभी बाक़ी है।

तुम अपना ख़याल क्यों नहीं रखतीं ?
बोलो.....
दवा ठीक समय पर लिया करो।
किसी अदृश्य ने,
कहा था मुझसे कभी...
“कि आत्मा ज्यूँ-ज्यूँ दीप्त होती है।
शरीर उतनी ही जल्दी जर्जर होजाता है।” 
जानता हूँ
तुम इस जहान की नहीं
तो क्या हुआ ?
मेरे लिये तो रहना है ना तुमको,
अभी और यहाँ पर !

एक सखी है मेरी,
भीड़ में अकेली सी !
खिड़की पर बैठकर अक्सर
कौवे से बात किया करती है।
कौवा भी रोज़ आजाता है।
एक तय समय पर,
उससे बातें करने।
सुनो...
मुझे अपना कौवा बना लो ना !
रोज़ आकर बैठूँगा,
खिड़की वाले नीम के पेड़ पर।
कांव-कांव  करूंगा;
जब तुम मुस्कुरा उठोगी,
तो उड़ जाया करूँगा।
हमें चलना है अभी
बहुssत  दूsssर तक
साथ-साथ !!!

तुम्हारा

देव 

2 comments:

  1. सुन्दर और भाव पूर्ण रचना के लिए बहुत-बहुत आभार...

    कभी फुर्सत मिले तो ….शब्दों की मुस्कराहट पर आपका स्वागत है

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