Thursday, 18 February 2016

उत्थान नहीं होगा... तो मोक्ष कैसे मिलेगा





मुंडेर पर कोई
प्रवासी पक्षी आकर बैठ जाये
जिसे देखकर सिहरन हो
और ना देखो
तो दिल की धड़कन बढ़ जाये।
ऐसा ही होता है प्यार
कभी पानी,
कभी पारा,
तो कभी पत्थर जैसा !

सूरज मेरे ....
बस आज के लिये
मैं तुम्हारा नाम बसंत रख लूँ !
पीली साड़ी में बड़ी बिंदी लगाये
जो गुज़री है ना अभी तुम्हारे पास से....
जिसकी खुशबू से तुम
ख़ुद को भूले
आँखें बंद किए, थिर से गए हो।
वो,
जिसके सामीप्य ने
तुमको इतना परिपूरित कर दिया
कि तुम,
कंठ में ठहरा घूंट भी
नहीं उतार रहे नीचे !
ना तो पलट कर देख रहे हो
ना ही आगे बढ़ पा रहे हो।
...वो मैं ही हूँ देव !
...वो मेरा ही एहसास है !!  

कुछ नर्म अहसास
इतने साक्षात होते हैं
कि हम उनको हाथ बढ़ा के छू लें,
और कभी इतने अमूर्त
कि उनके आगे हवा भी ठोस नज़र आने लगती है।


देखो तो इस पक्षी को
विचित्र सा है ये
पहले कभी नहीं देखा
पीठ सलेटी
पंख हल्के नीले
और पेट सफ़ेद।
जाने कहाँ से आया ये तुम्हारी मुंडेर पर
और बैठ गया
एक टांग भींचे
एक ही टाँग के बल पर।
गर्दन घुमा रहा है चारों तरफ,
जाने क्या खोजता है...
शायद दर्द लेकर आया है कोई अपने साथ !
देखो ना ये दरार
दीवार भी चटक गयी।
कुछ दर्द कहे नहीं जाते,
फिर भी सबको दिख जाते हैं।
और एक तुम हो
बावरे पंछी,
भटकते रहते हो यहाँ-वहाँ !
बसंत पंचमी के दिन भी
अपनी प्रेयसी को केसरिया भात खिलाना भूल गये।
तिस पर फोन करके पूछते हो
कि मैं कैसी हूँ।

सुनो...
मैं इस पंछी के जैसी हूँ
मेरा दर्द नहीं दिखता किसी को
बस सब मुझे अचरज से देखा करते हैं
किसी की आँखों में प्यार
तो किन्हीं निगाहों में संदेह रहता है मेरे लिये।
तब भी मुझको
कोई गिला नहीं ।
आत्मा के उत्थान के लिये आए हैं हम-तुम
उत्थान नहीं होगा
तो मोक्ष कैसे मिलेगा
है ना ?

बस एक छोटी सी बात कहनी थी
खूब जानती हूँ तुमको
दिन पर दिन सहज होते जा रहे हो
और मेरा नाम तुमने
सरला रख दिया है
तुम भी ना....
मुझमें ख़ुद को देख रहे हो
या ख़ुद में मुझको !
बोलो ?

तुम्हारी

मैं ! 

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