Friday, 19 June 2020

कि उम्र जल्दी से झर जाए




तुम्हें सर्दियाँ अच्छी लगती हैं ना...
अक्सर मौसम के साथ ख़ुद को जोड़ लिया करती हो
और मैं !
.....मैं कभी मौसम के साथ एक हो ही नहीं पाया।

बचपन के अलमस्त दिनों में
गर्मी की छुट्टियों वाले दिन !
तब गर्मी का मौसम इतना अच्छा लगता था
कि तारकोल की तपती सड़क पर
नंगे पैर  दौड़ जाया करता था
घुटने छिलने पर
मैदान की धूल उठाकर
रिसते हुए घाव पर डाल लिया करता था।

उसके बाद बारिशों की रुत भाने लगी
शायद अल्हड़ उमर का असर था।
आज भी याद है
भीगते हुए फुटबॉल खेलना,
तो कभी तेज़ बारिश में
तुम्हारी गली से
ये सोचकर गुज़रना
कि काश !
.... एकबार तुम दिख जाओ मुझको !!
उन्हीं दिनों तुम्हारे घर के क़रीब
एक दफ़ा मेरी बाइक बंद हो गयी थी
और लाख कोशिशों के बाद भी
जब स्टार्ट नहीं हुई
तो मुँह छिपा कर
तुम्हारे घर के सामने से बाइक को
ऐसे घसीट कर ले गया था
मानो कोई अपराधी
पकड़े जाने के डर से
पुलिस वाले को देखकर भाग रहा हो।

हाँ,
सर्दियों के प्रति मेरा आकर्षण
लंबे समय तक बरक़रार रहा
शायद पिछले मौसम तक।
मगर अब...
अब ऐसा नहीं है।
अब जाने क्यों
पतझड़ लुभाने लगा है मुझे !

ऐसा नहीं
कि पतझड़ में ठूठ बन चुके पेड़ों में
कोई मॉडर्न-आर्ट दिखने लगी है
बात बस इतनी है
कि डाल से झरे हुए पत्ते का दर्द
अब मुझे अपना सा लगने लगा है।

ऐसी इच्छा होने लगी है
कि उम्र जल्दी से झर जाए
तुम वैसी ही रहो
और मुझ पर सफ़ेदी आ जाए।

याद है एकबार तुमने
डूबते सूरज के साथ फ़ोटो लेने पर
मुझको टोका था
और कारण पूछने पर
बड़े रूखे तरीक़े से
चुप करा दिया था।
जानती हो...
तब मैं  सबकुछ समझ कर भी
कुछ भी समझना नहीं चाहता था।
लेकिन अब ये चाहता हूँ
कि मैं लगातार बूढ़ा होता जाऊँ
और तुम उसी उम्र में रहो
जिस उम्र में पहली बार तुमने मेरे हाथ थामा था।

कभी-कभी यूँ लगता है
कि ठीक उस पल
तुम्हारे गले से लग जाऊँ
जबकि सूरज डूब रहा हो।
और तब...
सूरज की लालिमा
इतनी मुखर हो
कि कोई हमारी उम्र का अंतर नहीं पहचान पाए।

फिर एक दिन...
मेरा पतझड़ पूरा झर जाए
कोई एक नई कोंपल फूटे
बिल्कुल मेरे जैसी !
और तुम्हारे प्रेम में आकंठ डूब जाए।
ठीक वैसे ही
जैसे रात गुज़रने के बाद
नया बनकर फिर से उदित होता है
...वही सूरज !
मुझ पर हँसना मत
हो सके तो मेरा ख़्वाब जी लेना।

तुम्हारा
देव



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