यहाँ कुछ भी तो स्थाई नहीं,
सिवाय उन टिकटिकाते पलों के !
जो घड़ी की सुइयों से निकलकर
कैलेंडर की तारीख़ों पर जा बैठते हैं
और पीछे रह जाती हैं
चंद चिरंतन स्मृतियाँ !
वो स्मृतियाँ ...
जिनकी कोख में,
सिर्फ आँसू और पीड़ा ही पलते हैं।
कितना रोक था मैंने
....अपने आपको !
लेक़िन तब भी
मैं ही ख़ुद अपनी बात नहीं सुन पाया था।
कितना खदेड़ना चाहा था मैंने
ख़ुद को तुमसे दूर !
मगर तब भी...
एक अनजानी डोर से लिपटा चला आया था।
और आज...
आज वो स्मृतियाँ
मेरे लिए नासूर बन गईं हैं।
मई के महीने की
वो ख़ुशगवार शाम
जब तुम,
ज़बरदस्ती मेरा हाथ थामकर
मुझे एक रेस्तरां में ले आईं।
"लाज़वाब एम्बिअन्स है,
यू विल लाइक
इट।"
और सच में....
बरगद, नीम और पीपल के
उन महाकाय वृक्षों के लहराते पत्ते
उस जगह का पूर्ण प्राकृतिक काष्ठ-मय वातावरण
कैसी विलक्षणता का एहसास दे रहे थे।
और तब,
व्हाइट-वाइन को मेरा
पानी समझकर गटक लेना
फिर फ़ुर्रर्र-फ़ुर्रर्र कर
अपनी जीभ का कसैलापन झाड़ना
यह सब देख
तुम्हारा ठहाके लगाकर हँस पड़ना।
ओह, ओह, ओह
!!!
क्यों कर
हमारी स्मृति के कुछ पन्ने
कभी धुँधले नहीं हो पाते ?
उस दिन के बाद से आज
पूरे पाँच बरस होने आए
हर पाँच मई को, ठीक उसी जगह जाकर
मैंने वो हर चीज़ खाई और पी
.... तुम्हारे बग़ैर !
और पिछले अट्ठाईस महीनों से तो
तुमसे कोई राब्ता रखे बग़ैर !
लेक़िन इस बार
साल दो हज़ार बीस है।
सम संख्या..
जिसे दो से भाग दे दो
तो आधा बच रहता है
ठीक मेरी तरह
एक अकेला...!
सच..
यहाँ कुछ भी तो स्थाई नहीं
यहाँ तक कि, वो अकेली यादें
जिनके नासूर हम कभी सूखने नहीं देते
हर बार सूखी हुई पपड़ी को
खुरच देना चाहते हैं
ताकि रिसता हुआ दर्द
हम में थोड़ी और श्वांस फूंक सके !
मेरे ख़तों की थप्पियाँ लगने लगीं
तुम्हारे नए पते के अभाव में....
एक तो सृष्टि का लॉक-डाउन
उस पर ये बिन पते की चिट्ठियाँ!
सिर्फ आस का ही तो अवलंबन है
कि एक दिन,
ये सब भी नहीं रहेगा !
सबकुछ बदलने के इंतज़ार में....
तुम्हारा
देव
No comments:
Post a Comment