Wednesday, 17 June 2020

तर्पण की तलाश में...




श्रद्धा का पखवाड़ा ...
श्राद्ध पक्ष  !!!
कहते हैं,
कि इन्हीं दिनों आती हैं आत्माएं।
अपने लोक से...
और आकर बैठ जाती हैं
नवांकुरित कुशा घास की नोक पर !
स्वजनों के हाथों का भोजन ग्रहण करने !!

भोजन...
जो अक़्सर प्रसाद बन जाता है,
उन आत्माओं को धूप देने पर।

अबके बारिश बहुत हुई
फ़क़त दो-तीन दिनों से ही बादल छंटने लगे हैं।
'धूप' के मौसम में धूप न निकले
तो अटपटा तो लगता ही है ना !
मगर कुछ नया हुआ इस बार;
घर के बाहर लगे ब्लॉक्स के बीच-बीच में
....घास उग आई !
हरी, स्वस्थ, घनी घास।
सोच में था,
कि ये घास क्यों उग आई
तभी पितृ-पक्ष याद आ गया।

एक बात तो कहो
अतृप्त प्रेम कहाँ पर जाता होगा ?
अपनी तृप्ति के लिये !
उसकी भी तो कोई चाहत होगी।
आख़िर जाने कितनों का इष्ट है, ये प्रेम।

अनगिन आत्माओं को,
मुक्त करते होंगे यमराज
इस एक पखवाड़े के लिये।
ताकि वो जाकर,
कुशा की नई कोंपलों की नोक पर बैठ सकें।
अपने स्वजनों के हाथों से बना
भोजन ग्रहण कर सकें।
उंगली में कुश की पैंती डालकर
काले तिल मिले हुए,
जल का तर्पण ले सकें।

युगों से चली आ रही परिपाटी।
अपनी तीन पीढ़ियों का,
श्रद्धापूर्वक तर्पण करते लोग।
घरों से उठती,
हवन के घी और प्राशन्न की महक
और तृप्त होती आत्माएं !

मगर उनका क्या ?
जो प्रेम में अतृप्त रह गये !
सहसा ये लगा ...
कि कहीं अतृप्त प्रेमिल आत्माओं के
तर्पण की तलाश में तो नहीं उगी
ये कोमल घास मेरे दरवाज़े पर !
बताओ असीमा...

धूप की झलक,
घास की लहक
और रोम-रोम सूखने के इंतज़ार में
दहलीज़ के बाहर बैठी, एक भीगी हुई ईंट।
....लंबा निर्जन रास्ता
और सड़क पर लेटा हुआ एक कुकुर !

जानती हो
कि जब-जब उलझता हूँ
तब-तब,
बेबस होकर घंटों छटपटाता हूँ
और फिर...
मेरी छटपटाहट तुमको पुकारती है।
तुम सुनो या न सुनो
लेकिन...
मुझे एक अजीब सी शांति मिलती है।

मेरी पुकार आज सिर्फ़ मेरी नहीं
उन प्रेमिल आत्माओं की पुकार है
जिनको तर्पण नहीं मिला।
वो सारी अशरीरी आत्माएं
जिनको कभी जगह ना मिल पाई
किसी स्मृति या पुराण में !
जिन्हें कभी समझ ही  नहीं पाया
दूषित और कुंठित समाज !

वो आत्माएं,
मेरी चारदीवारी के बाहर
पत्थर पर कुशा का घर बनाकर,
उसकी नोक पर बैठी मुझे पुकारे
तो क्या अपने कान बंद कर लूँ ?
बोलो ...!

तुम्हारा
देव




No comments:

Post a Comment