Wednesday, 17 June 2020

निजता तो भीड़ में भी हमारे साथ चलती है





देव सुनो,

दब्बू हो तुम, डरपोक कहीं के !
दुनिया से छिपने के बहाने ढूँढा करते हो बस।
और मुझसे कहते हो
कि निजता पसंद करते हो।
निजता तो भीड़ में भी
हमारे साथ ही चलती है रे पगलू।

कितना कहा था तुमसे
कि चलो मेरे साथ, लद्दाख़ एक बार।
मगर डर गए तुम।
उस ककून से बाहर आना चाहते ही नहीं...
जो बरसों बरस
अपनी शंकाओं में रहकर
...तुमने बुना है।

किस बात की झिझक ?
मैं हूँ तो तुम्हारे साथ !
बस एक बार मेरा हाथ थामो
और निकल पड़ो
फिर तुम्हें सिर्फ मैं नज़र आऊँगी... दुनिया नहीं !

मगर हाँ
तुम मुझसे ये उम्मीद ना ही करो
कि मैं...
तुम्हारे साथ
हाथों में हाथ लिये
चारदीवारी से बाहर
किसी बारिश, किसी पेड़ या किसी पंछी को तकती रहूँगी।
हवा हूँ मैं !
मेरी प्रकृति है बहना !
समझे हो !

उन दिनों जब मैं तुमसे दूर थी,
तब पहाड़ों की गोद में थी;
नदियों के साथ थी।
आह...
कितना अलौकिक है ये सब !!
एक तरफ़ सिंधु , दूसरी तरफ़ ज़ान्सकर !
लद्दाख की वादी,
अलग-अलग रंगों वाली दो नदियों का मिलन।
दूर से बंजर दिखते मगर छाती में जीवन समेटे
ये अबोले पहाड़ !
और आसमान इतना साफ़...
जैसे कि प्यार से भरा एक मासूम दिल !
जैसे कि साफ सुथरे आईने से झाँकती,
रूमी की कोई कविता !

देव सुनो ना...
इस पर्यूषण पर मेरा कहा मानो।
सिर्फ एक बार दिल से क्षमा माँगो !
उन सब से...
जो तुम्हारे नातेदार नहीं हैं।
जो शायद इंसान भी नहीं हैं।
लेकिन जिनकी वज़ह से इंसानों का अस्तित्व है।
जिनके होने से तुम ख़ुद हो।

क्षमा माँगो !
उस धरती से ...
जिस पर इतना बोझ डाल दिया हम सबने !
उस हवा से...
जिसको इतना ज़हरीला कर दिया हम सबने !
उस जलीय जंतु से...
जिसके जीवन को ढँक दिया,
समुद्र में रिसते किसी तैल के टैंकर ने !
उस परिंदे से...
जिसके पर काट दिए तुम्हारी पतंग की डोर ने !

आओ देव,
दूर बैठे ही मैं क्षमा के लिये हाथ उठाती हूँ
और तुम
उधर से मेरा साथ दो !
कहो कि,
" हे प्रकृति
हमें माफ़ कर दो
उन सब कृत्यों के लिये
जिनसे सिकुड़ रहा है
...इस धरती पर जीवन !"

अरे हाँ,
गणेश तो इस बार मिट्टी के ही लाये ना ?
प्लास्टर ऑफ़ पेरिस मुझे पसंद नहीं !
समझे हो !!

तुम्हारी
मैं !



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