बात ये है
कि चाहते हम दोनों हैं एक-दूजे को,
बस...
अभिव्यक्ति के अंदाज़ जुदा हैं।
आह...
फागुन के वो मादक दिन
जब तुमसे घंटों बातें किया करता था।
हर दूसरे पहर,
तुमसे तुम्हारी तस्वीरें भेजने की ज़िद किया करता
और कागज़ पर जगह-जगह,
तुम्हारे नाम का पहला अक्षर उकेरा करता था।
फिर...
एक दिन मैं रोया
...बहुत रोया
बेवज़ह रोया !
और तुमने
चुप्पी को अपना साथी बना लिया।
मुझे मलाल बस इतना
कि तुम ही कहती हो ना
"आँसू ,
प्यार को और भी निर्मल बना देते हैं।"
फिर ऐसा क्यों हुआ
कि तुम...
ख़ैर,
तुमको जब-जब सोचा
तब-तब अहोभाव से भर उठा।
हम दोनों के अंदाज़ कितने अनूठे हैं।
मैं धरती से बाहर निकलने को आतुर,
जल के किसी सोते सा फूट पड़ना चाहता हूँ।
जबकि तुम...
...और शांत, और ग़हरी हो जाती
हो।
आज अलसुबह भी कुछ ऐसा ही तो हुआ।
तुमने कॉल करके कहा
"व्हाट्सएप देखो,
कुछ भेजा है तुम्हारे लिए।"
और मैं,
तुम्हारी आवाज़ से ही कृत-कृत्य हो उठा।
रमोला मेरी....
कितना कुछ बाक़ी रह जाता है,
सबकुछ कह देने के बाद भी !
तुम्हारी क्लिक की हुई एक तस्वीर...
उबड़-खाबड़ सीमेंट की छतरी तले
जूनी-पुरानी चाय की गुमटी।
पास में खड़ा हुआ, वयोवृद्ध ठेला
जिस पर दमकते चार दीपक।
ठेले पर लटकी माता की चुनरी।
ठहरी हुई लकदक कार,
जिससे परावर्तित होती दीयों की रोशनी।
जानती हो अलौकिका,
ये हाथ-ठेला मैं हूँ।
उसके पहियों पर लगी पत्थर की आड़,
तुम्हारी चुप्पी है।
इन दीयों की जगमगाहट,
तुम्हारा प्यारा है।
कार के पीछे परावर्तित होता दीयों का प्रकाश,
हर ओर फैला तुम्हारा अक़्स है।
और ये चुनरी...
हमारे प्यार पर लहराता
ब्रम्हाण्ड का आशीष है।
मैं यूँ ही खड़ा रहूँगा हमेशा
पत्थरों की आड़ लिये
चूने से अधकचरी पुती हुई,
दीवार का
सहारा लेकर
किसी बहुमंज़िला इमारत के तले,
फुटपाथ पर...!
और तुम रोशन करती रहना
मेरी साँस-साँस !
ताकि सब कह सकें
कि देखो उस प्रेमी को,
जो खड़ा हुआ है
स्पंदन-मुक्त पत्थरों के सहारे
प्यार को स्पंदित करता हुआ !
बोलो हाँ...
तुम्हारा
देव
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