प्रेम के दीवाने
और प्रेम के विरोधी !
ये,
दो ध्रुव नहीं हैं सखी...
ये तो एक ही हैं
किसी पैमाने में रलकते हुए
...पारे जैसे !
अंतर इतना ही है
कि एक में बस प्रेम है
और दूजे में
बस प्रेम ही नहीं !
वो
जो जग से हार जाता है...
ख़ुद से जीतता रहता है अक़्सर !
कहता कुछ नहीं
सिर्फ महसूस किया करता है,
अपनी हर पराजय...
और स्वीकार करता जाता है,
एक के बाद दूसरी बेबसी को।
अकेली बुढ़िया
जो सत्ताईस बरस के ग़ज़ल गायक को
बिस्तर पर लेटे-लेटे सुना और देखा करती है
यूँ भी कामना करती है
कि अगले जनम में,
वो ही उसका बेटा बने।
कभी-कभी वो गायक
वीडियो कॉल पर
उसके हाल-चाल पूछा करता है
हर बार बुढ़िया
उसे अपलक निहारने के बाद
एक अदृश्य घूँट
हलक से नीचे, ऐसे उतारती है
जैसे कि अमृत का आस्वाद लिया हो !
बेनाम रिश्ते,
अपने भीतर..
एक विराट अर्थ लिए जीते हैं।
ठीक उस जवान लड़की की तरह
जिसने झक्क सफ़ेद बालों
और सुर्ख़ ग़ुलाबी होठों वाले अधेड़ से,
मुहब्बत कर ली थी।
अधेड़,
बेनाम रिश्ते से ही नहीं
लड़की से भी झिझका करता था।
और लड़की...
सिर्फ़ रिश्ते की व्याख्या किया करती थी।
वे दोनों,
महीने में एक या दो बार
इंग्लिश बुक-स्टोर के ऊपर बने
कॉफ़ी-हाउस की, शानदार कुर्सियों
पर
गोल टेबल के इधर और उधर बैठा करते थे।
अधेड़ अपनी दुनिया में खोया
तीस बरस पहले की बातें किया करता।
और युवती...
उसके अतीत में
अपना वर्तमान खोजा करती !
दरअसल,
प्रेम बुरा नहीं होता !
प्रेम को औज़ार की तरह इस्तेमाल करने वाला,
बुरा हुआ करता है।
वो भी सिर्फ़ तब तक
जब तक कि वो ऐसा करता है।
स्थायी कुछ नहीं...
ये भी नहीं ! वो भी नहीं !
एक लेखक को अपनी कलम से प्रेम था
एक दिन,
उसके उसी हाथ के अँगूठे की जान जाती रही
जिससे वो लिखा करता था।
उसकी कलम अब उँगलियों में फंसती तो है
लेक़िन लिखने के लिए
अँगूठे को कस नहीं पाती !
उसे अब....
अपने बेजान अँगूठे से प्यार हो चला है।
जानिया,
प्रेम अभावों से भी होता है।
लेक़िन,
हम कभी अपने प्रेम को अभाव नहीं बनने देंगे।
चाहे...
हमसे हमारी परछाई रूठ जाए !
मेरी बातों को अवसाद न समझना
जेठ का मास है
और उस पर नौतपा भी !
तपेगा नहीं, तो बरसेगा कैसे ?
प्रेम की फ़सल लहलहाने वाली है।
आहट सुन रही हो !
तुम्हारा
देव
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