" औरत रुई होती है
पुरुष उसे यदि रेशा-रेशा रहने दे
तो वो बाती बनकर,
ख़ुद को जलाती है !
... उस पुरुष को रोशन करने के लिए !
और यदि...
उसे आँसू दे,
तो वो बादल बन जाती है !
जितने आँसू , उतना रिसता हुआ
काजल
उतनी ही काली बदरी !
बदरी...
जो इसलिए बरसती है
ताकि अपना बोझ हल्का कर सके
फिर से रेशा बन जलने के लिये।"
वो कहे जा रही थी
मैं सुन रहा था।
इसलिए सुन रहा था
क्योंकि उसके दुःख का कारण
भले ही मैं नहीं
मगर मुझ जैसा एक पुरुष था !
वो फिर बोली -
"हम ग़लत समझा करते हैं
कि हम किसी को जानते हैं
दरअसल,
हम किसी को कभी नहीं जान पाते।
जानने और न जानने के सारे विश्वास
हमारे क़यास भर होते हैं... बस !"
बहुत कुछ कहना चाहता था
लेक़िन, मैं कुछ भी न कह
सका !
एक मोटा सा आँसू
उसकी पलक की कोर से निकला
तेज़ी से ढलक कर
उसकी नाक के पास ठहर गया।
मैं सिर्फ़ देखता रहा।
वो कहने लगी -
"मैं उसे संभालती रही
तब तक संभाला;
जब तक कि मैं ख़ुद
बिखर कर कण-कण नहीं हो गई,
अब मुझे नहीं जुड़ना।"
उसकी ये बात
भीतर तक भेद गई मुझे,
उसे संभालने की कोशिश की
लेक़िन नहीं संभाल पाया !
एक मछली की तरह
जो दोबारा पानी में जाने से इनकार कर दे।
ऐसी मछली...
जो पानी से रूठकर
पत्थर पर आ छिटके,
सिर्फ़ ख़ुद को तक़लीफ़ देने
और उम्र से पहले,
ख़त्म हो जाने की आस (?) में !
प्यारिया मेरी,
हम क्यों ख़ुद को अधूरा समझते हैं ?
हम क्यों किसी में पूर्णता ढूँढते हैं ?
कैसे ख़ुद से ही विलग होकर
किसी और में घुलने की चाहना करते हैं !!
आख़िर में वो बोली -
"मुझे किसी भी बात का मलाल नहीं
मेरी रुसवाई
या उसका हरजाई हो जाना
ये कुछ भी मायने नहीं रखता मेरे लिए
और हाँ,
अब मुझसे इस सबके बारे में बात मत करना कभी।"
जानती हो,
जब मैं जाने लगा
तो उसने मुझको पीछे से आवाज़ दी
कहा कि -
"पलटना मत देव
लेकिन सुनो
अब मेरे पास मत आना !
सहानुभूतियाँ, प्रश्न और उनके
उत्तर
मेरा दुःख बढ़ाते हैं।
मैं रातों को सोना चाहती हूँ
मैं सुबह जल्दी जागना चाहती हूँ।"
मैं चला आया
लेक़िन मेरे साथ-साथ
उसका ख़याल भी आ गया।
सुनो ओ सखिया,
मैं उसकी सांद्रता को तरल नहीं करना चाहता।
मगर तब भी
मेरे मन से उसका ख़याल नहीं जाता !
अभी तो आषाढ़ में भी कुछ दिन बाक़ी हैं
तब भी कल रात से ही
बादल बरस रहे हैं।
लोगों को हरियाली के सपने लुभा रहे
लेक़िन मुझे
इस बरसात में
एक रुई-रुई औरत नज़र आती है !
जिसके नैनों का काजल
उसके आँसुओं के साथ
रलक-रलक कर
धरती पर गहरा फैल रहा है।
मैं क्या करूँ ... ?
तुम्हारा
देव
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