Thursday, 7 August 2014

मैं कुछ नहीं ...

प्रिय देव ,

कभी तकिये पर सीना रखकर दिल की धड़कनों को सुना है ?

सुनना कभी...
दोपहर बारह से तीन के बीच, घुप्प अंधेरे कमरे में...।
या फिर देर रात बारह से तीन के बीच सितारों से भरे आसमान तले !!!
आँखों को बंद कर लेना और जब कान की नसों में खून बहुत तेज़ दौड़ने लगे,
... तो खुद को भूल जाना !

अचानक से तुम डूबने लगोगे डुबुक ...  डुबुक... ।
कुछ क्षण छटपटाओगे ,
फिर कोई निकल कर बाहर आ जायेगा तुममें से।
और उस एक पल में तुम दृष्टा बन जाओगे, साक्षी हो जाओगे ।
उस विराट के, जिसके तुम अंश हो ।
तब तुम उस चरम आनंद को भी जी लोगे, जिसके लिए तुम बार-बार मुझसे कहते रहते हो ।

मैं कुछ नहीं ...
ये तो बस तुम्हारा भाव है मेरे प्रति !
और तुम्हें लगता है कि मैं ही तुम्हारी मंज़िल हूँ ।

मैं रोक नहीं रही तुम्हें ।
जिसमें तुम्हें सुकून मिले वही करो ।
लेकिन विश्वास मानो ....
मैं भी भटक रही हूँ तुम्हारी तरह ।

कई बार लगता है कि तुम खुशकिस्मत हो, जो तुम्हारी बैचेनी मुझ पर आ कर रुक गयी ।
लेकिन मैं अब कहाँ जाऊँ ?
इस रुहानी प्यास के साथ !

तुमसे दूर, बहुत दूर होकर भी मैं तुम्हारे साथ ही हूँ ।
जानते हो न ........
फिर स्वीकार क्यों नहीं करते !

ये झिझक कुछ नहीं ...
बस एक अवस्था है मन की ।
साक्षी बन लगातार देखते रहो अपनी इस झिझक को .......
एक दिन ये तुमसे अलग होकर कहीं दूर चली जाएगी ।
सच !!

तुम्हारी


मैं !


2 comments:

  1. कई बार लगता है कि तुम खुशकिस्मत हो, जो तुम्हारी बैचेनी मुझ पर आ कर रुक गयी.....wow bahut hi sunder likha hamesha ki tarah :-)

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