Friday, 7 August 2015

इस बारिश में मेरे गाँव चलोगी ?


शहर से अलग-थलग, जंगल के करीब
दफ़्तर में बैठा
कागज़ उलट-पलट रहा था
कि तभी,
तुम्हारी याद ने मन उचटा दिया।
सारे कागज़, सारे बिल और वाउचर्स अजनबी बन गए।
उन पर लिखी इबारतें
रेंगती हुई चीटियों और मकोड़ों की कतार भर लगने लगी।
मैं छटपटाया और बाहर चला आया।
लाल रॉक-टाइल वाले लॉन पर टहलते हुये
मोबाइल से तुम्हारा नंबर डायल करने ही लगा था
कि इस पर नज़र पड़ी।  
धीरे-धीरे रेंगते हुये
मेरे पैरों के पास सरकता ये जीव
जिसे मैं तो घोंघा कहता हूँ
मगर तुम.....
निश्चित ही ‘Snail’ के नाम से समझ पाओगी।

देखो तो सखिया
मौसम अजनबियों को भी अपना बना देता है।
प्रेम ने हमें जाने कैसे जोड़ दिया 
परिस्थितियों ने तो दूर रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

हम दोनों के बीच उतना ही अंतर था
जितना कि भारत और इंडिया में।
तुम्हें कॉन्वेंट एजुकेट कर रहे थे
और मेरी पढ़ाई.....
सर्द दिनों में शीशम के पेड़ तले हो रही थी।
अच्छे से याद हैं मुझे “अमोलक माड़साब” !
जो अटेन्डंस को हाजिरी लेना कहते थे
और यस सर बोलने पर बुरी तरह चिढ़ जाया करते थे।
उनके कोप से बचने के लिए
मैं कभी भी उपस्थित गुरुजी बोलना नहीं भूलता था।

खैर,
आज मुझे एक छोटे से दोस्त की याद आ रही है।
एक छोटा सा जीव !
जो बारिश के दिनों में
अक्सर रेंगता दिख जाता था।
थोड़ा चपटा-थोड़ा गोल
मकई के दाने जैसा
मखमली गद्देदार आवरण
चटक लाल रंग
छोटे-बारीक पैर
अद्भुत था वो जीव।
स्थानीय लोग उसे वीर-बहूटी कहते थे
वहीं कुछ उसे गोकुल-गाय तो गाँव से पढ़ने आने वाले बच्चे बूढ़ी-डोकरी पुकारते।
देवी सिंह नाम का एक सहपाठी था स्कूल में मेरे साथ
बैल गाड़ी से आता था रोज़
मुझसे थोड़ा बड़ा मगर शादी-शुदा ।
उसीने परिचय कराया था उस जीव से मेरा ।

जब ताज़ी हरी घास पर वो चलता
तो एक अलौकिक दृश्य उत्पन्न हो जाता था।
हम उसका पीछा करते
और फिर वो जाने कहाँ गायब हो जाता
शायद गीली धरती की नर्म दरारों में कहीं।
कुछ शैतान बच्चे उसे पकड़कर,
काँच की छोटी पारदर्शी शीशियों में डाल लेते थे।   
कुछ समझदार-संवेदनशील सीनियर्स
उन बच्चों को डांटकर वीर-बहूटी को आज़ाद करा देते।


स्कूल के मैदान के पीछे तारों की बाड़ के उस ओर
मटमैले रंग की छोटी सी घाटी थी।
जिसके पास एक मौसमी नाला बहता था।
जहाँ एक बार मैंने,
बड़े से काले चींटे को बहते हुये पानी से बाहर आने में मदद की थी।
और फिर आकाश में देर तक निहारा था
.... शायद ईश्वर को !

सुनो,
इस बारिश में मेरे गाँव चलोगी ?
साथ-साथ निहारेंगे चटक लाल वीर-बहूटी को !
तुम्हारे बिज़ि-शेड्यूल में से सिर्फ डेढ़ दिन निकालो ना
गाँव जाना कठिन नहीं है
लेकिन वीर-बहूटी को देख पाना बड़ा दुसाध्य हो गया है अब !
वैज्ञानिकों के लिए तो अब वो,
निश्चित ही एक्स्टिंक्ट-स्पीशीज़ बन चुकी होगी।
क्या पता....
तुम्हें साथ देखकर   
वो फिर से ज़मीन के किसी कोने से निकलकर
मुझसे मिलने चली आये
आओगी न ?

तुम्हारा

देव





































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