Friday, 26 June 2020

जीवन की सड़क पर प्यार की ज़ेब्रा-क्रॉसिंग





रात की बाहें
बड़ी अजीब हुआ करती हैं।
मन में अगर शूल उगे हों
तो काँटों की तरह चुभ जाती हैं
और जो,
कोमल भावनाओं से आप्लावित हो मन
तो नर्म, मुलायम, मखमली हो जाती हैं।

रात.....
एक रहस्यमयी अवधारणा
तिस पर बारिश, सुनसान सड़क
और चमकती हुई स्ट्रीट लाइट्स !
इरादा रोज़ करता हूँ
कि प्यार, प्यार और सिर्फ प्यार लिखूँ
नर्म-नाज़ुक रात की बाहों की तरह।
लेकिन जाने कैसे और कहाँ से
शूल उभर आते हैं !

रात की बाहों में सोता हूँ
मगर नींद नहीं आती।
फिर हर दूसरे या तीसरे रोज़
देर रात, ख़ुद से दूर भागने के लिए
रातों का पीछा करने लगता हूँ।
कभी लपक उठते, गुर्राते श्वान
कभी इस दिशा से उस दिशा की ओर
चीखकर जाती हुई टिटहरी
तो कभी नीम के दरख़्त के नीचे बैठा
चिलम फूँकता, जटाजूट बालों वाला वो अघोरी
जो उम्र से पहले ही बुढ़ा गया है।

इन सबसे बचकर
मैं तुम्हारी तस्वीर बनाता हूँ
मगर ऐन वक़्त पर
वो तस्वीर बनते-बनते बिखर जाती है।
ठीक वैसे ही,
जैसे कि कोई काँच की वस्तु
हाथ से छूटकर कठोर धरातल से टकराए
और चूर-चूर हो जाये।

नीरव रातों में
अक्सर एक ही जगह रुकता हूँ
वहाँ फिर-फिर वही गीत सुनाई देता है
“चल कहीं दूर निकल जाएँ…..
..... अच्छा है संभल जाएँ !”
और मैं ख़ुद से सवाल कर बैठता हूँ,
कि मैं कहीं दूर जाना चाहता हूँ
या कि संभल जाना चाहता हूँ ?

छटपटाते हुये मैं उस जगह लौटता हूँ
जहाँ वो अघोरी बैठा था
नज़रें दौड़ाता हूँ, वो नहीं दिखता
कि तभी ठीक मेरे सिर के ऊपर
हँसने की आवाज़ आती है
आँख उठाकर देखता हूँ
तो मुझसे लगभग एक फ़ीट ऊपर
हवा में चौकड़ी लगाए
वही अघोरी हँसता हुआ दिखाई देता है।
मगर वो मुझ पर नहीं हँस रहा...
मैं भी बिलकुल सहज भाव से
उसे छूने के लिए पंजे उचकाता हूँ
किन्तु छूने से ठीक क्षणभर पहले
वह गायब हो जाता है।

अब सिर्फ़ घना नीम का पेड़
चौकोर जूट का आसन
और अघोरी की बुझी हुई चिलम है वहाँ
मैं बुझी हुई चिलम को छूता हूँ
और लगता है
जैसे किसी अंगारे को पकड़ लिया !
छटपटा कर उँगलियाँ मुंह में ले लेता हूँ
कि तभी ....
ख़याल बनकर तुम चली आती हो
कसकर मुझे अपने गले से लगाती हो
और मैं....
रेज़ा-रेज़ा, रेशा-रेशा वाष्पीकृत होता जाता हूँ।  
फिर मैं अपनी आँखों से देखता हूँ
स्वयं को तुम में विलीन होते हुये !
और तुम ...
हौले से मेरे कान में कहती हो-
“देव मेरे,
जीवन एक तेज़ रफ्तार सड़क है
और प्यार,
उस पर बिछी ज़ेब्रा-क्रॉसिंग !
...... झिझको नहीं, आराम से पार करो !!”

किसी ख़ुमारी में खोया हुआ मैं
फिर घर की ओर चल देता हूँ
नींद को आँखों में लिए
फिर से एक और रात के इंतज़ार में
ऐसे ही बेसबब निकल पड़ने के लिए।
हाँ तुम ....
....सिर्फ़ तुम !
और मैं .....

तुम्हारा
देव




उदासी आँखों के रस्ते, पैरों में उतर आई थी





वे दो सखियाँ थीं !
जिनको अपने हमराज़ होने पर बड़ा नाज़ था। 
दोनों तितलियों की तरह उड़ा करतीं
जब-जब मिलतीं, ज़ोर से खिलखिलातीं
एक, जो उनमें थोड़ी बड़ी थी
उसने अपनी सखी को
उस प्रेमी की कवितायें सुनाईं
जो अक्सर उदास रहा करता था।
और ये भी बताया
कि ये प्रेमी ......
कुछ अलग सा है !
इसकी उदासी मुझे सुख देती है,
और इससे दूरी, मुझे उदास करती है।

फिर ऐसा हुआ
कि एक दिन वो
अपने प्रेमी के लिये,
मोगरे के कुछ फूल लेकर आयी।
उन फूलों की सुगंध तो मादक थी ही
लेकिन एक विचित्र सा
बैंगनी रंग का मोगरा भी
उन फूलों में शामिल था।
जो उन सफ़ेद फूलों से इतर
बड़ा अनूठा लग रहा था।
प्रेमिका ने उस चिर उदास प्रेमी की हथेली पर
मोगरे के फूल उड़ेलते हुये कहा –
“ ये लो ........
मेरी ख़ुशबू !
सँजोये रखना इसे
जब तक कि मैं वापस न आऊँ
कहीं जा रही हूँ
लौटकर मिलूँगी।”
वो चली गई
प्रेमी हथेली में फूल लिए उनको देखता रहा।

उँगलियों में एक अँगूठी चाँदी की और एक अष्ट-धातु की।
हथेली में फूल और कलाई पर काला धागा
जाने किसकी नज़र से बचने के लिए
... एक चिरंतन कोशिश !

प्रेमी की नरमाई आँखें, पथराने लगीं।
विरह के पलों से बचने के लिए
किसी आगंतुक के इंतज़ार में !

तभी...
दूसरी सखी वहाँ आ पहुँची
और संयोग तो देखो
कि उसने हल्के नीले और बैंगनी वस्त्र पहने हुये थे।
“दुखी हो,
मेरी सखी के विरह में...
बोलो !”
कहकर वो खिलखिला पड़ी।

और ये....
उसकी बीत चुकी हँसी की गूँज के सहारे
अपनी प्रेयसी के बारे में सोचने लगा।
जाने किस ख़याल से बंधा हुआ
एक उड़ती नज़र डालकर बोला –
“अक्सर नीला रंग ही क्यों पहनती हो !
उदास नहीं करते तुमको नीले रंग ?
कासनी रंग तुम्हें कैसा लगता है ?”
तिस पर वो बोली –
“मैं नहीं जानती कासनी रँग को
मैं सिर्फ नीला कहाँ पहनती !
मुझे तो उसके शेड्स पसंद हैं   
देखो, मेरे हाथों पर जो कपड़ा है
उसका रँग ओशियन-ब्लू है
और बाकी पूरी ड्रेस का रँग पर्पल-ब्लू !” 

फिर वो जाने लगी
तो उस प्रेमी ने आवाज़ दी उसको
और मोगरे के फूल, उसके हाथों में थमा दिये।
फिर धीरे से बोला.....
“ये फूल तुम्हारी सखी ने दिये हैं
इनमें एक बैंगनी मोगरा भी है
शायद तुम्हारे आज के रँग के लिए !
मेरा क्या है ..
मैं तो ख़ुशबू के सहारे भी जीवन गुज़ार सकता हूँ।”
वो वैसे ही खिलखिलाती हुई चली गई
और ये,
इस सोच के साथ अपराधबोध से मुक्त हुआ
कि फूलों के मुरझाने से पहले
उनका सार्थक उपयोग हो गया।

दिन गुज़रे ...
कुछ और दिन गुज़रे
उदासी और और गहरी होती गई।
प्रेयसी नहीं आई
तो प्रेमी उसकी खोज में
एक दिन बगिया जा पहुँचा।
वहाँ दोनों सखियाँ खिलखिला रही थीं
प्रेमी जब प्रेयसी के पास पहुँचा
तो दूसरी सखी, वहाँ से दूर
अमराई तले जाकर बैठ गई।

प्रेमी की आँखें नम और नर्म थीं
उसने तैरते प्रश्नो के साथ, प्रेयसी की आँखों में झाँका 
प्रेयसी के चेहरे पर कोई भाव नहीं था
“ये सब क्यों ?”
बड़ी मुश्किल से वो बोल पाया।
प्रेमिका ने बगिया के उस कोने की तरफ इशारा कर दिया
जिधर मोगरे के फूल लहक रहे थे।

वो कुछ नहीं बोला ...
पलट कर चल दिया
अपने पैरों को उठाना,  उसे बोझ लग रहा था
शायद आज ....
उदासी आँखों के रस्ते, पैरों में उतर आई थी।

ये सिर्फ़ कहानी है
इसे हक़ीक़त न मान बैठना !
समझी हो .....!

तुम्हारा
देव




Friday, 19 June 2020

एक औरत रुई-रुई



" औरत रुई होती है
पुरुष उसे यदि रेशा-रेशा रहने दे
तो वो बाती बनकर,
ख़ुद को जलाती है !
... उस पुरुष को रोशन करने के लिए !
और यदि...
उसे आँसू दे,
तो वो बादल बन जाती है !
जितने आँसू , उतना रिसता हुआ काजल
उतनी ही काली बदरी !
बदरी...
जो इसलिए बरसती है
ताकि अपना बोझ हल्का कर सके
फिर से रेशा बन जलने के लिये।"

वो कहे जा रही थी
मैं सुन रहा था।
इसलिए सुन रहा था
क्योंकि उसके दुःख का कारण
भले ही मैं नहीं
मगर मुझ जैसा एक पुरुष था !

वो फिर बोली -
"हम ग़लत समझा करते हैं
कि हम किसी को जानते हैं
दरअसल,
हम किसी को कभी नहीं जान पाते।
जानने और न जानने के सारे विश्वास
हमारे क़यास भर होते हैं... बस !"

बहुत कुछ कहना चाहता था
लेक़िन, मैं कुछ भी न कह सका !
एक मोटा सा आँसू 
उसकी पलक की कोर से निकला
तेज़ी से ढलक कर
उसकी नाक के पास ठहर गया।
मैं सिर्फ़ देखता रहा।

वो कहने लगी -
"मैं उसे संभालती रही
तब तक संभाला;
जब तक कि मैं ख़ुद
बिखर कर कण-कण नहीं हो गई,
अब मुझे नहीं जुड़ना।"

उसकी ये बात
भीतर तक भेद गई मुझे,
उसे संभालने की कोशिश की
लेक़िन नहीं संभाल पाया !
एक मछली की तरह
जो दोबारा पानी में जाने से इनकार कर दे।
ऐसी मछली...
जो पानी से रूठकर
पत्थर पर आ छिटके,
सिर्फ़ ख़ुद को तक़लीफ़ देने
और उम्र से पहले,
ख़त्म हो जाने की आस (?) में !

प्यारिया मेरी,
हम क्यों ख़ुद को अधूरा समझते हैं ?
हम क्यों किसी में पूर्णता ढूँढते हैं ?
कैसे ख़ुद से ही विलग होकर
किसी और में घुलने की चाहना करते हैं !!

आख़िर में वो बोली -
"मुझे किसी भी बात का मलाल नहीं
मेरी रुसवाई
या उसका हरजाई हो जाना
ये कुछ भी मायने नहीं रखता मेरे लिए
और हाँ,
अब मुझसे इस सबके बारे में बात मत करना कभी।"

जानती हो,
जब मैं जाने लगा
तो उसने मुझको पीछे से आवाज़ दी
कहा कि -
"पलटना मत देव
लेकिन सुनो
अब मेरे पास मत आना !
सहानुभूतियाँ, प्रश्न और उनके उत्तर
मेरा दुःख बढ़ाते हैं।
मैं रातों को सोना चाहती हूँ
मैं सुबह जल्दी जागना चाहती हूँ।"

मैं चला आया
लेक़िन मेरे साथ-साथ
उसका ख़याल भी आ गया।

सुनो ओ सखिया,
मैं उसकी सांद्रता को तरल नहीं करना चाहता।
मगर तब भी
मेरे मन से उसका ख़याल नहीं जाता !

अभी तो आषाढ़ में भी कुछ दिन बाक़ी हैं
तब भी कल रात से ही
बादल बरस रहे हैं।
लोगों को हरियाली के सपने लुभा रहे
लेक़िन मुझे
इस बरसात में
एक रुई-रुई औरत नज़र आती है !
जिसके नैनों का काजल
उसके आँसुओं के साथ
रलक-रलक कर
धरती पर गहरा फैल रहा है।
मैं क्या करूँ ... ?

तुम्हारा
देव


चाहे... परछाई रूठ जाए



प्रेम के दीवाने
और प्रेम के विरोधी !
ये,
दो ध्रुव नहीं हैं सखी...
ये तो एक ही हैं
किसी पैमाने में रलकते हुए
...पारे जैसे !
अंतर इतना ही है
कि एक में बस प्रेम है
और दूजे में
बस प्रेम ही नहीं !

वो
जो जग से हार जाता है...
ख़ुद से जीतता रहता है अक़्सर !
कहता कुछ नहीं
सिर्फ महसूस किया करता है,
अपनी हर पराजय...
और स्वीकार करता जाता है,
एक के बाद दूसरी बेबसी को।

अकेली बुढ़िया
जो सत्ताईस बरस के ग़ज़ल गायक को
बिस्तर पर लेटे-लेटे सुना और देखा करती है
यूँ भी कामना करती है
कि अगले जनम में,
वो ही उसका बेटा बने।
कभी-कभी वो गायक
वीडियो कॉल पर
उसके हाल-चाल पूछा करता है
हर बार बुढ़िया
उसे अपलक निहारने के बाद
एक अदृश्य घूँट
हलक से नीचे, ऐसे उतारती है
जैसे कि अमृत का आस्वाद लिया हो !

बेनाम रिश्ते,
अपने भीतर..
एक विराट अर्थ लिए जीते हैं।
ठीक उस जवान लड़की की तरह
जिसने झक्क सफ़ेद बालों
और सुर्ख़ ग़ुलाबी होठों वाले अधेड़ से,
मुहब्बत कर ली थी।

अधेड़,
बेनाम रिश्ते से ही नहीं
लड़की से भी झिझका करता था।
और लड़की...
सिर्फ़ रिश्ते की व्याख्या किया करती थी।
वे दोनों,
महीने में एक या दो बार
इंग्लिश बुक-स्टोर के ऊपर बने
कॉफ़ी-हाउस की, शानदार कुर्सियों पर
गोल टेबल के इधर और उधर बैठा करते थे।
अधेड़ अपनी दुनिया में खोया
तीस बरस पहले की बातें किया करता।
और युवती...
उसके अतीत में
अपना वर्तमान खोजा करती !

दरअसल,
प्रेम बुरा नहीं होता !
प्रेम को औज़ार की तरह इस्तेमाल करने वाला,
बुरा हुआ करता है।
वो भी सिर्फ़ तब तक
जब तक कि वो ऐसा करता है।
स्थायी कुछ नहीं...
ये भी नहीं ! वो भी नहीं !

एक लेखक को अपनी कलम से प्रेम था
एक दिन,
उसके उसी हाथ के अँगूठे की जान जाती रही
जिससे वो लिखा करता था।
उसकी कलम अब उँगलियों में फंसती तो है
लेक़िन लिखने के लिए
अँगूठे को कस नहीं पाती !
उसे अब....
अपने बेजान अँगूठे से प्यार हो चला है।

जानिया,
प्रेम अभावों से भी होता है।
लेक़िन,
हम कभी अपने प्रेम को अभाव नहीं बनने देंगे।
चाहे...
हमसे हमारी परछाई रूठ जाए !

मेरी बातों को अवसाद न समझना
जेठ का मास है
और उस पर नौतपा भी !
तपेगा नहीं, तो बरसेगा कैसे ?
प्रेम की फ़सल लहलहाने वाली है।
आहट सुन रही हो !

तुम्हारा
देव