Wednesday, 2 July 2014

मुखपृष्ठ से उपजे सवाल !!!


जो पत्र आज प्रेषित करना था वो तो मेज पर ही रखा रह गया।
और अब तुम्हे जल्दी - जल्दी नया पत्र लिख रहा हूँ।
आज सुबह हॉकर ये पत्रिका दे गया।
नीचे देखो .... " नया ज्ञानोदय " !

भले ही पूरी ना पढूँ पर कुछ मासिक हिंदी पत्रिकाएँ हर महीने बुलवा लिया करता हूँ।
उन पर हाथ फेरना, उन्हें बीच में ही कहीं से खोल कर पढ़ने लगना या फिर उनके नए-नकोर प्रिंटेड कागज़ के बिलकुल क़रीब अपना चेहरा ले जा कर शब्दों को सूँघना .... ये बचपन से मेरा शग़ल है।
….... तासीर है या मनोविकार ? ये भी एक प्रश्न ही है , क्योंकि ये सब शायद मेरी घुट्टी में है।
इस पत्रिका के मुखपृष्ठ को ध्यान से देखो ....
दीवार पर लगी हुयी हाथों की ये छाप देख रही हो?
ये छाप होली के रंग की है।
होली के सात दिन बाद शीतला-सप्तमी पर होने वाली पूजा में भी हाथों की ऐसी ही छाप लगायी जाती है।
उसमें रंग नहीं होता। चावल को गला कर पीसते हैं , फिर हल्दी मिला कर एक लेप तैयार करते हैं और उसकी छाप लगाते हैं।
पर मैं इस पर कोई बात नहीं करना चाहता …

मैं तो उस बच्चे को देख कर चमत्कृत हूँ , जिसके पैर ज़मीन पर नहीं हैं !
उड़ रहा है वो। गली के इस तनहा छोर से, रंगों की ओर …
और वो देखो , उधर एक छोटी सी खिड़की .... जिसके भीतर से चार जोड़ी हसरत भरी निगाहें बाहर तक रही होंगी।
जीवन …जीवन … जीवन …!
कौन कहता है कि जीवन एक पहेली है
तुम्हारे शब्दों में कहूँ तो " बस यही क्षण " !
" The very moment and that's it !!! "

पर इस एक पल के लिए भी कितना तरसना पड़ता है अब !!!
अँधेरी गलियाँ , बदरंग रस्ते , खिड़कियों की लुप्त होती परंपरा और खुद से दूर करती बाज़ार की चमक !!!
बाज़ार जो हर क़दम पर असहज करते हैं
बाज़ार जो बौनेपन का एहसास थोपते हैं
बाज़ार जो प्रकृति से दूर ले जाते हैं
तुम समझ रही हो ना ?
शायद तुम कहीं ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकोगी।
क्योंकि बाज़ार तुम पर तब भी हावी नहीं हुए जब तुम " घोर पूंजीपतियों " के बीच थी।
प्रकृति तब भी तुम्हारी सहचरी बनी रही, जब तुम हिंदुस्तान से बहुत दूर विदेश में थीं।
खैर ....
कहना ये चाहता हूँ कि
" मेरा बचपन तो वैसा ही उन्मुक्त गुज़रा , जैसा कि ये भागता हुआ बच्चा ....
पर मैं अपने बेटे के लिए अब ऐसा बचपन कहाँ से लाऊँ ? "
बोलो न सखी …
संक्षिप्त ही सही ,
उम्मीद है उत्तर अवश्य लिखोगी

तुम्हारा
देव

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